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संघ दर्शन

ग्राम विकास के शिल्पी राजर्षि नानाजी देशमुख

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रामराज्य में वर्णित नागरिक कल्याण और महात्मा गांधी की कल्पना के ग्राम स्वराज्य को अपने पुरुषार्थ, दूरदृष्टि और प्रभावी कार्यान्वयन द्वारा धरातल पर उतारने वाले विराट व्यक्तित्व का नाम है भारतरत्न नानाजी देशमुख। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के व्रती स्वयंसेवक, सुप्रसिद्ध समाजसेवी और राष्ट्रऋषि की संज्ञा से विभूषित नानाजी का मूलनाम-चंडिकादास अमृतराव देशमुख था। इनका जन्म महाराष्ट्र के एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हिंगोली जिले के कडोली कस्बे में शरद पूर्णिमा के दिन 11 अक्टूबर, 1916 को  हुआ था।

महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण से विशेष प्रभावित नानाजी को संघ शाखा से आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने जोड़ा तो उनकी प्रतिभा, कार्यक्षमता और सांगठनिक कौशल को देखकर संघ कार्य विस्तार की जिम्मेदारी दी। नानाजी बाल स्वयंसेवक के रूप में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़ गए थे। उनका बचपन घोर अभावों में बीता। यहां तक कि उनकी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं हो पाती थी। उन्होंने जीवन के प्रारंभिक दिनों में ट्यूशन पढ़ाने और ठेले पर फल-सब्जी बेचकर आजीविका कमाने का कार्य भी किया। मैट्रिक की पढ़ाई उन्होंने वाशिम से पूरी की और वहां भी वे नित्य शाखा से जुड़ गए। यहां संघ कार्य और संगठन बहुत विस्तृत और मजबूत था। वाशिम में ही नानाजी को डॉ. हेडगेवार से मिलने का संयोग मिला। 1934 में डॉ. हेडगेवार ने जिन 17 स्वयंसेवकों को संघ की प्रतिज्ञा दिलाई उनमें नानाजी भी एक थे।

1937 में मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद डॉ. हेडगेवार की सलाह पर अन्य 3 स्वयंसेवकों के साथ नानाजी राजस्थान के पिलानी बिरला कॉलेज में अध्ययन के लिए भेजे गए। 1940 में वे संघ की प्रथम वर्ष शिक्षा के लिए नागपुर गए। अस्वस्थता के वावजूद डॉ. हेडगेवार की संघ कार्य के प्रति लगन, प्रतिबद्धता और चिंता को देखकर नानाजी ने पढ़ाई अधूरी छोड़ संघ का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने का संकल्प ले लिया। डॉ. साहब से प्रेरणा लेकर और उनसे संघकार्य के लिए समर्पित होने का वादा कर नानाजी संघकार्य में जुट गए।

पू.श्रीगुरुजी की योजना और बाबासाहेब आप्टे के निर्देश पर संघकार्य विस्तार के लिए नानाजी को जब आगरा भेजा गया, उस समय उनकी आयु 24 वर्ष थी। 3 जुलाई को संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार की प्रथम पुण्यतिथि पर आगरा में संघ शाखा शुरू हुई। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी यहां एम.ए. की पढ़ाई कर रहे थे। सुखद परिणाम यह रहा कि संघ के दोनों ऊर्जावान युवाओं- नानाजी और दीनदयाल जी को कुछ समय एक साथ रहने का अवसर मिल गया। दोनों एक दूसरे की प्रतिभा व क्षमता से अभिभूत थे। संगठन के प्रति दीनदयाल जी की निष्ठा, बौद्धिक कौशल और सहज-सरल स्वभाव से नानाजी आजीवन प्रभावित रहे। बाद में नानाजी कानपुर भेजे गए।

संगठन विस्तार में लगे नानाजी ने सामाजिक व्यक्तियों, उद्यमियों और अन्य क्षेत्र के प्रबुद्ध लोगों को वैचारिक रूप से एक किया। भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार, कांग्रेसी नेता बाबा राघवदास आदि से संपर्क साधने के साथ निरंतर शाखा विस्तार व विशाल कार्यक्रमों की योजना बनाई। नानाजी के अथक पुरुषार्थ व पराक्रम का ही परिणाम था कि 1942 तक 250 शाखाएं शुरू हो गईं और चार वर्ष के अंदर समूचे क्षेत्र में संघ शाखाएं फ़ैल गयीं। माता-पिता की स्नेहिल छाया से शैशव में ही वंचित और प्रचारक बनकर, घर गृहस्थी के चक्करों से मुक्त रहने वाले नानाजी अपने कुटुम्बीजनों की समस्याओं और संकटों से बेखबर हो समाज व राष्ट्रकार्य में जुटे रहे। 1945 में तृतीय वर्ष शिक्षण पूरा कर वे पुन: गोरखपुर विभाग में संघकार्य में जुट गए।


30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।इस बीच समूचे देश में संघ के हजारों स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। गोरखपुर में नानाजी भी गिरफ्तार हुए। 6 माह बाद जेल से छूटकर नानाजी फिर जुट गए संघकार्य में। ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की व्यवस्था का दायित्व देकर उन्हें लखनऊ भेज दिया गया, जहां दीनदयाल जी उनके सहयात्री रूप में मौजूद थे। बाद में पाञ्चजन्य के मार्गदर्शन का ज़िम्मा दीनदयाल जी को, प्रबन्धन का नानाजी को और संपादन का दायित्व मुखर युवा वक्ता कवि अटल बिहारी वाजपेयी को। इसी कड़ी में स्वदेश समाचार पत्र प्रकाशन की भी योजना बनी। नानाजी ने संगठन के प्रत्येक प्रकल्प-चाहें शाखा हो, शिक्षा हो, ग्राम विकास हो, सब पर तन्मयता के साथ बराबर ध्यान दिया। 1950 में नानाजी ने अपनी कर्मस्थली गोरखपुर में पहले सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना की।

1951 में पू. श्रीगुरुजी की प्रेरणा से डॉ.श्यामा प्रसाद मुख़र्जी की अध्यक्षता में ‘भारतीय जनसंघ’ नामक राजनीतिक दल की स्थापना हुई। डॉ. मुखर्जी के साथ संघ के दोनों ऊर्जावान युवाओं- दीनदयाल जी व नानाजी को विशेष भूमिका मिली। दीनदयाल जी को राष्ट्रीय महामंत्री तो नानाजी को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के प्रभारी महामंत्री की जिम्मेदारी मिली। पूरे एक दशक तक उत्तर प्रदेश नानाजी का कार्यक्षेत्र बना रहा। मार्च, 1952 में पहले आम चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए, राज्य में पंडित जी के विचार दर्शन, नानाजी के संगठन कौशल और अटलजी की वाणी ने जनसंघ की राजनीतिक ज़मीन को निरंतर सशक्त किया और विधानसभा में विधायकों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गयी।


1962 के आम चुनाव में नानाजी के नेतृत्व कौशल और संगठन क्षमता को देखकर भारतीय जनसंघ में उन्हें महामंत्री के रूप में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारी दी गयी। 1967 के चुनाव में प्रभावी विपक्षी दल के रूप में उभरकर जनसंघ की शक्ति निरंतर बढ़ने लगी। 11 फरवरी, 1968 को दुर्भाग्य से मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर रहस्यमय ढंग से दीनदयालजी की हत्या कर दी गयी। अपने एक आत्मीय सहयात्री और कुशल नेता का असामयिक निधन नानाजी के लिए बहुत बड़ा आघात था। दीनदयाल जी के व्यापक जीवन दर्शन, एकात्म मानववाद, अंत्योदय और उनके विराट व्यक्तित्व से प्रभावित नानाजी ने उनकी स्मृति में नई दिल्ली में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ की स्थापना की।


इंडियन एक्सप्रेस के स्वामी रामनाथ गोयनका के माध्यम से सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायणजी से निकटता बनी और समाजवादी वामपंथ व एकात्म मानववादी प्रचारक, विपरीत धारा की दोनों विभूतियों में ऐसी आत्मीयता व सहमति बनी कि देश की राजनीति की धारा ही बदल गयी। दोनों महानुभावों की जन्मतिथि संयोग से 11 अक्टूबर एक ही दिन पड़ती है। बाल्यकाल से पढ़ाई की आयु तक दोनों ने ही संघर्ष किया था। जेपी बिहार के सारण जिले में जन्मे थे। उनकी उच्च शिक्षा विदेश में हुई थी। आचार्य विनोबा भावे के साथ भूदान आन्दोलन के यात्री रहे नानाजी ने संघ व जनसंघ में रहकर भी अन्य विचार वाले लोगों के साथ संवाद व सम्बन्ध में कभी कंजूसी नहीं की।इसी का प्रमाण है कि डॉ. राममनोहर लोहिया, डॉ. संपूर्णानंद, चौ.चरण सिंह और लाल बहादुर शास्त्री जी से भी नानाजी के मधुर संबंध रहे और देशहित में उन्होंने इन संबंधों का यथावसर उचित उपयोग भी किया।


15 अप्रैल, 1973 को पटना में जीवनसंगिनी प्रभावतीजी की मृत्यु के बाद सर्वोदय के योद्धा जेपी टूट चुके थे। तब नानाजी ने उन्हें व्यक्तिगत विषाद विस्मृत कर समाज व राष्ट्र के आन्दोलनों का नेतृत्व करने का आग्रह किया। बहुत प्रयत्न के बाद आखिरकर 30 मार्च, 1974 को नानाजी ने सम्पूर्ण क्रान्ति के नायक जेपी को इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंकने के राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए तैयार किया। जेपी को लोकसंघर्ष समिति के अध्यक्ष की भूमिका दी गयी तो नानाजी देशमुख को इसका महामंत्री बनाया गया।


सर्वप्रथम गुजरात में मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के विरुद्ध नवनिर्माण समिति के तत्वावधान में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सहभागिता से बड़ा छात्र आंदोलन शुरू हुआ। नानाजी के आग्रह पर जेपी 14-15 फरवरी, 1974 को अमदाबाद पहुंचे। उनका भव्य स्वागत किया गया। नानाजी की युक्ति सफल रही और युवा-शक्ति के बल पर व्यवस्था परिवर्तन का जेपी को पूर्णतः विश्वास होने लगा।


आन्दोलन देशभर में चल ही रहे थे आवश्यकता थी उनको धार और दिशा देने की। नानाजी सब देख रहे थे और आन्दोलन के इस ज्वार का नेतृत्वकर्ता उन्हें जेपी में ही दिख रहा था। 4 नवंबर को पटना में विद्यार्थी परिषद, समाजवादी युवजन सभा और एआईएसएफ़ की ओर से  विशाल जुलूस निकला। योजनानुसार नानाजी पटना पहुंचे। सारे आन्दोलन और प्रदर्शन के दौरान नानाजी छाया की तरह जेपी के साथ रहे और जो लाठियां व पानी की तीव्र धार जेपी पर पड़ीं उसे उन्होंने कवच बनकर अपने ऊपर झेल लिया। इसमें नानाजी बुरी तरह घायल हो गए, लेकिन उन्होंने जेपी पर आंच नहीं आने दी। इससे नानाजी पर जेपी का अगाध स्नेह और भरोसा बढ़ता गया।


25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विशाल जनसमूह के बीच “सिंहासन खाली करो जनता आती है” के घोष के साथ जेपी और नानाजी समेत कई विपक्षी नेताओं ने इंदिरा सरकार के खिलाफ बिगुल फूंका। 29 जून से देशव्यापी आंदोलन की घोषणा की गयी। इंदिरा सरकार इस विशाल रैली से हिल गयी। सत्ता बचाने के लिए विवेकहीन सलाहकारों की सलाह पर इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने का कदम उठाया, जिसकी भनक नानाजी को हो चुकी थी। वे भूमिगत हो गए, लेकिन जेपी के साथ कई विपक्षी  नेताओं की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी शुरू हो गई।


नानाजी ने भूमिगत स्थिति में दो महीने बाहर रहकर तानाशाही व भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। नानाजी पर सरकार की कड़ी नजर थी। गुप्तचर एजेंसियों ने प्रयासपूर्वक देर से ही सही उन्हें गिरफ्तार कर लिया। जेल में बंद सभी विपक्षी दलों के नेताओं को एक दल के रूप में विलीनीकरण का प्रयास आरंभ किया। जेपी अपने प्रिय योद्धा नानाजी को जेल से मुक्त करवाकर लोकसभा चुनाव लड़वाने और रणनीति बनवाने के लिए प्रयासरत थे। नानाजी चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं थे, क्योंकि दीनदयाल जी को खोने के बाद उनका मन राजनीति के बजाय उनके एकात्म मानवदर्शन को धरातल पर उतारने को संकल्पित हो चुका था। जिसके लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में दीनदयाल शोध संस्थान के प्रकल्प को विस्तार देने का संकल्प ले लिया था। जेपी की भावनाओं का आदर करते हुए नानाजी ने गोंडा जिले के बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से नामांकन भरा और बलरामपुर की रानी राजलक्ष्मी देवी को भारी मतों से परास्त कर वे लोकसभा में पहुँच गए।


सांसद नानाजी को जेपी और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उद्योग मंत्रालय का ज़िम्मा संभालने का प्रस्ताव दिया, किन्तु राष्ट्रऋषि नानाजी ने इसे ठुकराकर संघ की रीति-नीति के साथ दीनदयालजी के अंतिम व्यक्ति की चिंता करने वाले दर्शन को क्रियान्वित करने का प्रण लिया।


20 अप्रैल, 1978 को उन्होंने 60 वर्ष से अधिक आयु के नेताओं को सत्ता छोड़ समाजसेवा में अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने की सलाह दी। 8 अक्टूबर, 1978 को उन्होंने पटना में अपने सहयात्री लोकनायक जेपी के समक्ष एक ऐतिहासिक भाषण देते हुए राजनीति से संन्यास और अपने लोकसभा क्षेत्र में ही सर्वांगीण विकास उपक्रम शुरू करने की घोषणा कर दी। जेपी यह सुनकर बहुत अचंभित थे। इन्हीं अद्भुत गुणों के चलते नानाजी को देखकर एक बार जेपी ने कहा था कि जिस संगठन ने देश को नानाजी जैसे रत्न दिए हैं, वह संगठन कभी सांप्रदायिक और कट्टरवादी नहीं हो सकता।


वास्तव में स्व का विसर्जन कर केवल राष्ट्र के निमित्त समर्पित पुरुषार्थी और अजातशत्रु नानाजी के चमत्कारी व्यक्तित्व और अद्वितीय कार्यप्रणाली के सब कायल थे। नानाजी से लोकसभा चुनाव में परास्त बलरामपुर की महारानी राजलक्ष्मी ने ही उनके प्रोजेक्ट के लिए सबसे पहले भूमि दान की थी। इसी को केंद्र बनाकर नानाजी ने 54 एकड़ क्षेत्रफल के विस्तृत भूभाग में जयप्रकाश नारायण और उनकी धर्मपत्नी प्रभावती की संयुक्त स्मृति में ‘जयप्रभा’ ग्राम नाम दिया। ‘हर खेत में पानी, हर हाथ को काम’ के नारे को साकार कर नानाजी ने सर्वांगीण विकास के चार सूत्र निर्धारित किए- शिक्षा, स्वावलंबन, स्वास्थ्य एवं समरसता।


नानाजी की इस सफल साधना का ही परिणाम था कि 25 नवंबर, 1978 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. नीलम संजीव रेड्डी ने जयप्रभा ग्राम में ग्रामोदय प्रकल्प का उद्घाटन करते हुए ग्रामीणों के मध्य पंक्ति में भोजन किया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बालासाहब देवरस के साथ बैठने में गौरव का अनुभव किया।


1990 में नानाजी ने पावन स्थल चित्रकूट में ‘ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ की अभिनव योजना को सार्थक किया, जिसमें प्राथमिक से स्नातकोत्तर की स्वावलंबी शिक्षा शामिल थी। जो प्रतिभाओं को शहरों के बजाय गांवों में शिक्षा दूत बनाने वाली सिद्ध हुई। चित्रकूट में नानाजी ने आरोग्यधाम, उद्यमिता विद्यापीठ, गोशाला, वनवासी छात्रावास व गुरुकुल जैसे प्रकल्प खड़े किये। नानाजी के सर्वप्रिय सहयोगी और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नानाजी के इस अनुकरणीय कृत्य का अभिनन्दन किया। 23 मार्च, 1999 को भारत सरकार ने नानाजी को विशेष उपलब्धियों के लिए पद्म विभूषण सम्मान से अलंकृत किया। 22 नवंबर, 1999 को राष्ट्रपति ने नानाजी को  सार्वकालिक समाजसेवी के नाते राज्यसभा के लिए नामांकित किया। 6 अक्तूबर, 2005 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम ने नानाजी के अप्रतिम प्रयोग स्थल चित्रकूट की यात्रा की, उसी तरह भूमि पर ग्रामीणों के साथ पंक्तिबद्ध होकर पत्तल-दोने में भोजन किया।


भीष्म पितामह सा समर्पित, प्रतिबद्ध, प्रतिज्ञाबद्ध और त्यागमय जीवन जीने वाले नानाजी भीष्म के सदृश शरीर शिथिल होने पर भी मन से नहीं थके। “इदं राष्ट्राय, इदं न मम” के परम भाव के साथ जीवन के आख़िरी दिन तक भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक व्रती स्वयंसेवक, माँ भारती के समर्पित लाल और जन-जन के दुलारे नानाजी देशमुख समाज व राष्ट्र के लिए ही जिए। 1997 में उन्होंने दधीचि देहदान समिति को अपना शरीर समर्पित करने की वसीयत लिख दी थी और 27 फरवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख इहलोक की अनुकरणीय लीला पूर्ण कर महाप्रयाण को चल पड़े। माँ भारती की सेवा और समाज के कल्याण के लिए अपना जीवन अर्पित करने वाले नानाजी को सादर नमन।