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सामाजिक न्याय का वास्तविक मार्ग

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सामाजिक न्याय का वास्तविक मार्ग 

प्राचीन वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति का मूल ही समानता है जिसके लिए संघ गत 100 वर्षों से सतत सेवारत है।

हिन्दू समाज में सामाजिक समरसता के लिए काम करने वाले दो महापुरुषों का योगदान अत्यधिक उल्लेखनीय है-डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार और डॉ.भीमराव रामजी अंबेडकर। डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के माध्यम से मौन रहकर इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य प्रारम्भ किया, जिसके लिए अनेक महापुरुष अस्पृश्यता हटाने, जातिभेद मिटाने और समरसता लाने के कार्य में जुटे। डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से हिन्दू धर्म की सभी जातियों पंथों को एकत्रित करने का काम किया। संघ के स्वयंसेवक देश के प्रत्येक प्रान्त और सभी जातियों के साथ समसरता का नया आयाम दिया। संघ शाखा में किसी से उनकी जाति नहीं पूछी जाती, सभी को समान माना जाता है। एक बार पुणे के संघ शिविर में डॉ. अंबेडकर का जाना हुआ तो उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि यहां तो अस्पृश्यता नाम की कोई चीज ही नहीं है! सभी लोग वहां पर समान थे, सभी के साथ समानता का व्यवहार था।

विश्वास समरसता की पहली सीढ़ी है। 1970 के दशक में ‘समरसता’ शब्द का प्रयोग वैचारिक क्षेत्र में एक सिद्धान्त के रूप में शायद पहली बार किया गया। जिसका श्रेय संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी को जाता है। 14 अप्रेल 1973 को जब डॉ. अंबेडकर और संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी की जन्मतिथि एक ही दिन मनाई गई, तो समाज के सामने कालोचित विषय रखने की दृष्टि से यह अच्छा मौका था ऐसा समझकर दत्तोपंत ठेंगड़ी ने पुणे में ‘सामाजिक समरसता मंच’ की स्थापना की, जिसमें उनका भाषण हुआ, यह भाषण बाद में ‘समरसता बिना समता असंभव’ इस शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ।

 संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी का मानना था कि समरसता ही वह मार्ग है जिस पर चलकर देश को बचाया जा सकता है। उन्हीं के प्रयासों से 5 मार्च 1928 को मुंबई के ठाकरसी हाल में ‘समाज समता संघ’ द्वारा आयोजित अंतरजातीय सहभोज और 22 मार्च 1928 को पंडित पालेय शास्त्री की अगुवाई में लगभग 500 महार जाति के अस्पृश्य जनों का यज्ञोपवीत संस्कार किया गया। उस समय बाबा साहब अम्बेडकर के साथ अनेक तथाकथित सवर्ण जातियों के नेता उपस्थित थे। 25 दिसंबर 1927 को महाड़ में हुई परिषद में प्रस्ताव पारित किया कि सभी हिंदुओं को एक ही जाति वर्ण का माना जाए। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जाति वर्ण भेदी शब्दों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगे। ठेंगड़ी जी ने समाज में आश्रित और आश्रयदाता की भूमिका को गलत बताते हुए स्पष्ट किया कि ‘आश्रय और आश्रयदाता’ की भूमिका ही अशास्त्रीय है। उनकी दृष्टि में अस्पृश्यता केवल अस्पृश्य लोगों की ही समस्या नहीं है! तथाकथित सवर्णों के मन में जो संकुचित मनोभाव है, वही इसकी जड़ है। इसलिए जब तक सवर्ण लोगों के मन से अस्पृश्यता का भाव समाप्त नहीं हो जाता तब तक इस समस्या का पूर्णतः हल होने वाला नहीं है। इस समस्या का समाधान भावनात्मक धरातल पर पारिवारिक संबन्धों से विकसित हो सकता है।

संघ के तात्कालीन सर कार्यवाह हो.वी. शेषाद्रि जी का मानना था कि हिंदुत्व ही राष्ट्रीय समरसता लाने में सक्षम है। उनका मानना था कि छोटे-छोटे भावों से ऊपर उठने, सबको समेटकर बड़ा आवाह्न देने तथा भिन्नता की उपेक्षा करने की भूमिका लेकर संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार आगे बढ़े। उनके संघ कार्यों का ही परिणाम है कि संघ की शाखाओं, स्वयंसेवकों के सेवा कार्यों द्वारा हिन्दू समाज में एक प्रकार का व्यापक सकारात्मक परिवर्तन परिलक्षित हो रहा है। हिन्दुत्व के आवाह्न पर लोग जाति, पंथ, संप्रदाय और भेदभाव से ऊपर उठकर एकजुट हो रहे हैं तथा समानता के आधार पर आगे बढ़ रहे हैं।

 संघ का कार्यकर्ता किस जाति का है? किस घर में पैदा हुआ है? यह गौण प्रश्न है। मुख्यधारा इस बात पर निर्भर करती है कि कार्यकर्ताओं की मानसिकता क्या है? उसकी कार्यप्रणाली कैसी है? उनकी निष्ठा क्या है?  इस दृष्टि से देखा जाए तो संघ के कार्यकर्ता किसी भी जाति के हों-चाहें वनवासी हों या गिरिवासी हों सभी का परस्पर व्यवहार, सभी की मानसिकता समरसता, समानता व स्नेहपूर्ण अपनत्व की है। जैसे-जैसे संघ का कार्य वनवासी और समानता के अधिकारों से वंचित पिछड़ी व दलित जातियों में बढ़ रहा है, वहां के लोग संघ की शाखा में आते जा रहे हैं। उनमें प्रत्येक जाति के तरुण आते हैं परंतु वे एक दूसरे की जाति को जानते भी नहीं। कई जगहों पर हजारों की संख्या में कार्यकर्ता आते हैं, सैकड़ों प्रचारक भी बने हैं। हर जाति और समुदाय से कई अच्छे प्रचारक निकले हैं, कई वरिष्ठ अधिकारी भी हैं। इसीलिए मुख्यधारा हिंदुत्व की ही धारा है। जहां-जहां पर संघ के स्वयंसेवक सेवा कार्यों के द्वारा शिशु मंदिरों, शाखाओं, धार्मिक जागरण आदि के माध्यम से पिछड़ी बस्तियों में प्रवेश कर रहे हैं वहां से बहुत अच्छा प्रतिसाद भी मिल रहा है।

 संघ वनवासी क्षेत्र के लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए लगातार प्रयासरत है। वनवासी क्षेत्रों में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के नाम से संघ अपने सेवा कार्य चला रहा है। पिछड़ी बस्तियों में भी कई सेवा कार्य चलाये जा रहे हैं। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य केवल उनकी सहायता करना ही नहीं है, अपितु समग्र हिन्दू समाज के साथ उनका प्रेमपूर्ण नाता जोड़ना तथा उनके प्रति आत्मीयता का भाव जगाना है कि ये भी अपने समाज के बन्धु हैं, इस प्रकार की जागृति पैदा करना ही संघ का उद्देश्य है, जैसे-जैसे हिन्दू समाज में आत्मीयता बढ़ रही है वैसे-वैसे अराष्ट्रीय व अलगाववादी शक्तियों का बोलबाला भी कम हो रहा है।

 संघ का विचार है कि भारतीय समाज की पिछड़ी एवं घुमन्तू जातियों का पिछड़ा रहना सामाजिक न्याय की दृष्टि से बिल्कुल भी उचित नहीं है। समाज के विकसित वर्ग को इन जातियों में शिक्षा के प्रसार, उनके अंधविश्वासों को दूर करने, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने, आपराधिक प्रवृत्ति से उन्हें बाहर निकालने जैसे काम करने चाहिए। घुमन्तू जातियां हिन्दू ही हैं अतः समाज में समरसता निर्माण करने के लिए इस ओर विचार करने और अमल में लाने का कार्य संघ, सेवा भारती के माध्यम से वंचित बस्तियों में विभिन्न प्रकार के सेवा प्रकल्पों को चला कर समरसता का भाव पैदा कर रहा है। चूंकि आधुनिक समाज में लोगों को एकजुट रखना ही देश को संगठित करने का कार्य है। जैसे आक्रमणकारी क्रूर मुगलों के विरोध में हिन्दू समाज को संगठित करने का महत्वपूर्ण कार्य छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, स्वामी श्रद्धानंद जैसे वीरों ने किया। वैसे समाज के मानस को संवेदनशील बनाने का कार्य महान सन्तों जैसे-तुकाराम, गुरुनानक देव, गुरु गोविन्द सिंह जी, नामदेव, एकनाथ, पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद आदि ने किया। हालांकि यह श्रृंखला बहुत लंबी है।

द्वितीय सरसंघचालक परम् पूज्य माधवराव सदाशिव राव ‘गुरुजी’ के मन में सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिए चिंता थी। उनका चिंतन सम्पूर्ण हिन्दू समाज व हिंदू राष्ट्र के लिए है। विविधता से संपन्न भारत में सभी को समान लगने वाली कार्यपद्धति एवं बन्धु भाव निर्माण हो ऐसी समरसता की प्राचीन काल से वैचारिक प्रस्तुति-वयं राष्ट्रांगभूता और समाज पर सच्चा प्रभाव किसका है? धार्मिक नेताओं, मठाधिपतियों, शंकराचार्यों और विभिन्न पंथों के प्रमुखों आचार्यों के माध्यम से गुरुजी ने प्रयास प्रारंभ किये। उन लोगों को एक समान व्यासपीठ पर लाकर उनसे ये घोषणा करवाई, जो उन्हीं को करनी थी-न् हिन्दू पतिता भवेत्। मिशनरियों और वामपंथियों ने वनवासियों के भीतर जो अलगाव की भावना पैदा की थी वहां राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ शुरू हुआ। शैक्षिक क्षेत्र में अराष्ट्रीय भावना को दूर भगा कर आत्मीय राष्ट्रीय भाव जागृत करने के लिए विद्यार्थी परिषद का प्रारंभ हुआ।‘देश के हित में करेंगे काम, काम का लेंगे पूरा दाम’ ऐसा नारा लगाकर राष्ट्रहित में समाज के अंतिम पायदान पर खड़े मजदूरों को संगठित करने वाले ‘मजदूर संघ’ का निर्माण संघ के द्वारा किया गया।

सौभाग्य से आज ‘हिंदुत्व का सामाजिक आशय’ शनैः शनैः ही क्यों न् हो, किंतु सशक्त रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। 1969 में उडुपी में विद्वत परिषद में हुई ‘न् हिन्दू पतितो भवेत्’ की घोषणा, श्री राम जन्मभूमि आंदोलन में पहली शिला रखने का सम्मान अनुसूचित जाति के व्यक्ति को दिया जाना और नागपुर की दीक्षा भूमि जाकर संत महंतों और शंकराचार्य द्वारा डॉ. अंबेडकर का अभिवादन करना ये सारी घटनाएं हिन्दू समाज को संजीवनी प्रदान करने वाली हैं। ऐसे कार्य सर्वत्र हों व समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने का प्रयास हो जिससे अंतःकरण में परिवर्तन हो, इसी तरह से समरसता की भावना परिपुष्ट होगी, तभी हमारा यह चिरंजीवी समाज पुनः एक बार अपने सामर्थ्य एवं तेज को विश्व में प्रकाशित करेगा। समरसता से ही समता की अनुभूति होगी, सामाजिक न्याय का वास्तविक मार्ग भी यही है।