पंच परिवर्तन: भारत के नवोत्थान का मार्गदर्शी सूत्र
भारत का वर्तमान समय केवल नीतिगत परिवर्तनों का दौर नहीं, बल्कि एक गहन वैचारिक पुनर्जागरण का क्षण है, एक ऐसा क्षण जिसमें भारतीय समाज अपनी मूल आत्मा, अपनी सांस्कृतिक स्मृतियों और अपने शाश्वत मूल्यों की ओर पुनः उन्मुख हो रहा है। यह पुनरुत्थान बाहरी आग्रह का परिणाम नहीं, बल्कि उस चेतना का विस्तार है जो सदियों से इस भूमि में प्रवाहित होती आई है और जिसे भारतीय मनीषा ने ”आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः,“ अर्थात् चारों दिशाओं से शुभ विचार आने दें, की भावना से विकसित किया। आज इस चेतना को एक नया रूप मिला है ‘पंच परिवर्तन’ के रूप में। कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, स्व का आत्मबोध, पर्यावरण और नागरिक कर्तव्य, यह पाँचों आयाम मिलकर नवभारत के निर्माण के लिए एक संगठित, समन्वित और सांस्कृतिक रूप से सशक्त प्रतिमान निर्मित करते हैं।
यह पंच परिवर्तन, भारत के नवोत्थान का मार्गदर्शी सूत्र है। यह सूत्र केवल कोई नारा नहीं, बल्कि एक व्यापक मानवीय व राष्ट्रीय परियोजना का आधार है, जिसके अंतर्गत कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, स्व का आत्मबोध, पर्यावरण चेतना तथा नागरिक कर्तव्य समाहित हैं। बदलते सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में आज यह आवश्यक हो गया है कि विकास के विमर्श को केवल आर्थिक संकेतकों तक सीमित न रखकर व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र, इन समस्त स्तरों पर होने वाले समग्र रूपान्तरण से जोड़ा जाए। भारतीय चिंतन परम्परा में भी परिवर्तन का अर्थ केवल बाह्य रूप से नहीं, बल्कि भीतर से उन्नयन और नवजीवन ग्रहण करने की प्रक्रिया माना गया है। जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया है, कि ”स्वभावो नास्ति कश्चन दुर्जयः प्राकृतेः गुणः“ अर्थात् मनुष्य अपने स्वभाव से ऊपर उठकर संस्कार से परिवर्तन सम्भव करता है। अतः पंच परिवर्तन का सूत्र मूलतः राष्ट्र के चरित्र-निर्माण का आधुनिक भारतीय स्वरूप है।
कुटुंब प्रबोधन इसी पंच परिवर्तन की श्रृंखला का प्रथम सोपान है, क्योंकि परिवार ही वह प्रथम संस्था है जहां मूल्य, आचरण और दृष्टिकोण का संस्कार होता है। भारतीय सभ्यता में कुटुंब को लघु समाज माना गया है, जहां प्रेम, सहयोग, अनुशासन और संवाद की नींव पड़ती है। वर्तमान समय में परिवारों में बढ़ती दूरी, परस्पर अविश्वास, समयाभाव और डिजिटल-दूरी ने एक प्रकार का सामाजिक विखण्डन उत्पन्न कर दिया है। ऐसे में कुटुंब प्रबोधन इस तथ्य पर बल देता है कि परिवार केवल जैविक संरचना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक चेतना की संगठित इकाई है। जब घरों में संवाद प्रबल होता है, पीढ़ियों के बीच सम्मान और समानुभूति विकसित होती है, तब समाज में स्थिरता और समरसता स्वाभाविक रूप से बढ़ती है। आधुनिक मनोविज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि सुदृढ़ पारिवारिक संबंध भावनात्मक स्वास्थ्य, नैतिक निर्णय-क्षमता और नागरिक उत्तरदायित्व को सुदृढ़ करते हैं। अतः कुटुंब से प्रारम्भ होने वाला परिवर्तन राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की प्रथम प्रयोगशाला है।
सामाजिक समरसता इस परिवर्तन यात्रा का दूसरा स्तम्भ है। भारत जैसा बहुस्तरीय, विविधतापूर्ण समाज तभी सुचारु रूप से आगे बढ़ सकता है जब उसके भीतर वर्ग, जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र की विविधता के साथ सामंजस्य स्थापित हो। उपनिषद् का मंत्र, ”सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः,“ सामाजिक समरसता के इसी उदार भाव को प्रतिपादित करता है। सामाजिक विभाजनों को पाटने, समतामूलक अवसर देने, संवेदनशील व्यवहार अपनाने और न्यायपूर्ण व्यवस्थाओं को गढ़ने के बिना नवभारत का निर्माण अधूरा है। विश्व इतिहास साक्षी है कि समाजों का उत्थान तब संभव हुआ जब उन्होंने आन्तरिक एकता और परस्पर सहकार को अपना आधार बनाया। समरसता का अर्थ न तो भिन्नताओं का दमन है और न ही कृत्रिम समानता; इसका अर्थ है, विविधता में एकात्मता का दर्शन, ”वसुधैव कुटुम्बकम्“ की भावना में मानवता का विस्तार। जब समाज में प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान, सुरक्षा और अवसर उपलब्ध होते हैं, तब सामाजिक ऊर्जा रचनात्मक दिशा में प्रवाहित होने लगती है और राष्ट्र विकास के उच्च पथ पर अग्रसर होता है।
स्व का आत्मबोध पंच परिवर्तन का तीसरा और अत्यंत सूक्ष्म आयाम है। आधुनिक जीवन की भागदौड़ में व्यक्ति प्रायः स्वयं से दूर होता जाता है। परिणामस्वरूप तनाव, असुरक्षा, दिशाहीनता और मूल्य-संकट बढ़ते हैं। भारतीय दार्शनिक परम्परा आत्मबोध को मानव-जीवन की केन्द्रीय कसौटी मानती है। कठोपनिषद् में नचिकेता से यम का संवाद इस सत्य को उद्घाटित करता है, ”आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः, श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः,“ अर्थात् आत्मा को जानना, समझना और अनुभूत करना ही जीवन की आधारभूत साधना है। जब व्यक्ति अपने दायित्व, सामर्थ्य, सीमाएं और आकांक्षाएं स्पष्ट करता है, तभी उसका जीवन रचनात्मक दिशा ग्रहण करता है। आत्मबोध आधुनिक नेतृत्व-मनोविज्ञान में भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि आत्म-साक्षात्कार से व्यक्ति में आत्म-अनुशासन, सकारात्मकता, नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व विकसित होते हैं। नवभारत की दृष्टि ऐसे नागरिकों पर आधारित है जो न केवल कौशल-सम्पन्न हों, बल्कि आत्मजागरूक भी हों, जो ‘अहं’ को ‘हम’ में परिवर्तित करने की क्षमता रखते हों।
पर्यावरण चेतना पंच परिवर्तन का चौथा स्तम्भ है और आज के समय में इसके महत्व को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। वैश्विक तापवृद्धि, जल-संकट, जैव-विविधता का क्षरण और प्रदूषण की विकराल समस्या मानव-सभ्यता के अस्तित्व को चुनौती दे रही है। भारतीय जीवन-दर्शन प्रकृति को माता, देवता और जीवन-दाता के रूप में देखता आया है, ”माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः“ ऋग्वेद का यह भाव मानव और प्रकृति के अखण्ड संबंध का सनातन सन्देश है। पर्यावरण संरक्षण केवल तकनीकी या सरकारी नीति का विषय नहीं, बल्कि सामाजिक -सांस्कृतिक चेतना से जुड़ा दायित्व है। व्यक्ति यदि जल, वन, भूमि, वायु और जीव-जगत के प्रति संवेदनशील बनता है, उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों पर संयम रखता है और सतत विकास के सिद्धान्तों को अपनाता है, तब पर्यावरणीय संकटों का समाधान संभव हो सकता है। नवभारत का स्वप्न उसी धरती पर साकार हो सकता है जहां प्रकृति और विकास में संतुलन हो, शोषण नहीं। अतः पर्यावरण चेतना को जनता के जन-आन्दोलन के रूप में विकसित करना समय की अनिवार्यता है।
पंच परिवर्तन का पाँचवाँ और अंतिम आयाम नागरिक कर्तव्य है, जो लोकतांत्रिक राष्ट्र-निर्माण का मूल आधार है। अधिकारों पर आधारित राजनीति अक्सर कर्तव्यों की उपेक्षा कर देती है, जबकि सतत विकास और सुशासन के लिए नागरिकों का कर्तव्य-परायण होना अत्यंत आवश्यक है। महात्मा गांधी ने कहा था, ”सच्चा स्वराज्य तभी संभव है जब प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्य को समझे और उदारता व अनुशासन से समाज की सेवा करे।“ भारत के संविधान में भी मूल कर्तव्यों को नागरिक-चेतना के निर्माण हेतु महत्वपूर्ण माना गया है, राष्ट्र की एकता की रक्षा से लेकर पर्यावरण संरक्षण, सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवता के आदर्शों के पालन तक। जब नागरिक समाज ईमानदारी, पारदर्शिता, कानून का सम्मान और सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना से संचालित होता है, तब शासन-व्यवस्था में पारदर्शिता, न्याय और जन-कल्याण स्वतः सुनिश्चित होते हैं। नागरिक कर्तव्य वह आधार है जिस पर लोकतंत्र की गुणवत्ता निर्भर करती है।
इन पाँचों परिवर्तनों का सम्मिलित प्रभाव नवभारत के निर्माण के लिए अनिवार्य है। ये परिवर्तन अलग-अलग खण्डों में नहीं, बल्कि एक समेकित तंत्र के रूप में कार्य करते हैं। कुटुंब प्रबोधन व्यक्ति के मूल संस्कारों को परिष्कृत करता है; सामाजिक समरसता उसे विस्तृत मानवीय समुदाय से जोड़ती है; आत्मबोध उसकी नैतिक-मानसिक शक्ति को उन्नत करता है; पर्यावरण चेतना उसे धरती-केन्द्रित उत्तरदायित्व प्रदान करती है; और नागरिक कर्तव्य उसे राष्ट्र-निर्माण का सक्रिय सहभागी बनाता है। इस प्रकार पंच परिवर्तन का मार्गदर्शी सूत्र व्यक्ति से राष्ट्र तक, और आत्मा से समाज तक निरंतर उन्नयन का सेतु बन जाता है।
आधुनिक भारत ऐसे संक्रमण-काल से गुजर रहा है जहाँ तकनीकी परिवर्तन, आर्थिक प्रतिस्पर्धा और सामाजिक विविधता नई चुनौतियां उत्पन्न कर रही हैं। परन्तु यदि राष्ट्र अपने मानवीय मूल्यों, सांस्कृतिक चेतना और आधुनिक दृष्टि के समन्वय से आगे बढ़े तो ये ही चुनौतियां अवसर भी हैं। पंच परिवर्तन इसी समन्वय की वैज्ञानिक, सामाजिक और नैतिक रुपरेखा प्रस्तुत करता है। यह न तो केवल परम्परा पर आधारित है, न ही केवल आधुनिकता पर; बल्कि यह भारतीय जीवन-दर्शन और वैश्विक विकास की आवश्यकताओं के संग्रहीत सार का रूप है। यह उस मनुष्य को केंद्र में रखकर विकास की नयी परिभाषा गढ़ने का प्रयास है, जो परिवार में संवेदनशील, समाज में समरस, आत्मा में जागरूक, प्रकृति के प्रति विनम्र और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायी हो।
अंततः नवभारत का उत्थान किसी एक नीति, परियोजना या कार्यक्रम का परिणाम नहीं, बल्कि करोड़ों नागरिकों के चरित्र, चेतना और व्यवहार में होने वाले सतत परिवर्तन का फल है। परिवर्तन तभी स्थायी होता है जब वह ऊपर से थोपा न जाए, बल्कि भीतर से प्रस्फुटित हो। पंच परिवर्तन का सूत्र यही बताता है कि राष्ट्र-निर्माण का पथ आत्म-निर्माण, समाज-निर्माण और प्रकृति-निर्माण से होकर गुजरता है। जैसा कि भगवद्गीता में भी कहा गया है, ”उद्धरेदात्मनाऽत्मानं,“ अर्थात् मनुष्य स्वयं को उठाए; यही उसका धर्म है, यही उसका समाज है और यही उसका राष्ट्र है। जब व्यक्ति उठता है, परिवार उठता है; जब परिवार उठता है, समाज उठता है; और जब समाज उठता है, तब राष्ट्र विश्व-पटल पर अपनी गौरवपूर्ण पहचान स्थापित करता है। अतः पंच परिवर्तन नवभारत के उत्थान का केवल मार्गदर्शी सूत्र नहीं, बल्कि एक समग्र राष्ट्रीय पुनर्जागरण का आह्वान है, जो हमें अन्दर से भी दृढ व शक्तिशाली बनाता है और विश्व के कल्याण हेतु भी प्रेरित करता है।
पंच परिवर्तन के आयाम अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि एक गहरे परस्पर संबंध से जुड़े हैं। कुटुंब प्रबोधन जहां व्यक्ति को मूल्य देता है, वहीं सामाजिक समरसता उसे समाज से जोड़ती है; आत्मबोध उसे दिशा देता है; पर्यावरण उसे संतुलन सिखाता है; और नागरिक कर्तव्य उसे राष्ट्र निर्माण का सक्रिय भागीदार बनाता है। जब ये पाँच तत्व समन्वय के साथ कार्य करते हैं, तब राष्ट्र के भीतर केवल विकास नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक उत्कर्ष की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। यही वह मार्ग है जहां विकास केवल भवनों, सड़कों या नीतियों में नहीं, बल्कि मनुष्य के चरित्र, समाज के व्यवहार और राष्ट्र की चेतना में दिखाई देता है।
पंच परिवर्तन का यह प्रतिमान आधुनिक भारत के लिए केवल नीतिगत ढांचा नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन दृष्टि है, एक ऐसा दृष्टिकोण है जो मनुष्य, समाज, प्रकृति और राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोता है। यह वह मार्गदर्शन है जो भारत को न केवल आत्मनिर्भर और सशक्त बनाएगा, बल्कि 21वीं सदी में वैश्विक नेतृत्व की भूमिका निभाने योग्य भी बनाएगा। इस प्रकार पंच परिवर्तन नवभारत के उत्थान का जीवंत सूत्र है, एक ऐसा सूत्र जो भारतीयता की जड़ों से जुड़ा हुआ है, और भविष्य की संभावनाओं को विस्तार देता है।
इस प्रकार पंच परिवर्तन केवल राष्ट्रीय विकास का ढाँचा नहीं, बल्कि एक स्वाभाविक, समन्वित और जीवनदायिनी भारतीय जीवन दृष्टि है, जो इक्कीसवीं सदी के वैश्विक नेतृत्व की आधारशिला बनने की क्षमता रखती है।
लेखक ख्यातिप्राप्त शिक्षाविद, शैक्षिक प्रशासक, प्रोफेसर एवं राष्ट्रवादी चिन्तक और सरकार द्वारा ‘शिक्षक श्री’ पुरस्कार से विभूषित है।




