अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना द्वारा 05 से 07 दिसंबर 2025 तक माधव सेवा न्यास, पट्टी कल्याण, समालखा (पानीपत) में ‘भारतीय इतिहास, संस्कृति और संविधान’ विषय पर सेमिनार का आयोजन किया जा रहा है। सरसंघचालक जी भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद द्वारा ‘जम्मू-काश्मीर-लद्दाख’ पर आधारित चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन एवं अवलोकन किया।
उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक, डॉ. मोहन भागवत जी; विशिष्ट अतिथि केन्द्रीय संस्कृति मंत्री, भारत सरकार गजेन्द्र सिंह शेखावत जी; प्रो. रघुवेन्द्र तंवर जी (पद्यश्री) अध्यक्ष आई.सी.एच.आर., शिक्षा मंत्रालय; अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के मुख्य संरक्षक गोपाल नारायण सिंह जी, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. देवी प्रसाद सिंह जी, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. ईश्वरशरण विश्वकर्मा जी, राष्ट्रीय संगठन सचिव डॉ. बालमुकुंद पाण्डेय जी उपस्थित रहे।
उद्घाटन समारोह में सरसंघचालक जी ने कहा कि संविधान एक लिखित साक्ष्य है। देश समाज को इसी के अनुरूप चलना पड़ता है। लेकिन क्या समाज पहले ऐसे ही चलता था, जब संविधान नहीं था तब समाज कैसे चलता था, क्या तब हमारा देश नहीं था, यह राष्ट्र नहीं था। हम सब जानते हैं कि ऐसा नहीं है। युगों-युगों की सुदीर्घ परम्परा में शासन की कोई व्यवस्था ही नहीं थी क्योंकि उसकी आवश्यकता नहीं थी। कोई संविधान भी नहीं था, फिर भी जीवन चल रहा था। तो यह कैसे चला? एक धर्म तत्त्व है, धर्म का अर्थ रिलिजन बिल्कुल नहीं है। भारतीय भाषाओं में धर्म शब्द का अर्थ सभी को धारण करने वाला, सभी को सुख देने वाला, सभी को जोड़ कर चलने वाला, सबके अपने-अपने स्वभाव के अनुसार सबको सुख मिले यह निर्धारित करने वाला, परस्पर व्यवहार में संतुलन लाकर सबको एक साथ ऊपर उठाने वाला जो प्राकृतिक नियम है, उसे धर्म कहते हैं। उस धर्म का बोध सभी मानव में तीव्रतर था। इसलिए किसी राजा की आवश्यकता नहीं थी और संविधान की आवश्यता भी नहीं थी। परस्पर रक्षा धर्म तत्त्व के आधार पर करते हुए प्रजा सुख से जीवन निर्वहन करती थी। मनुष्य के बल बुद्धि चिन्तन में गिरावट आई। सतयुग समाप्त हुआ, त्रेतायुग फिर द्वापर और अब कलियुग आया। उस गिरावट के कारण राजा की आवश्यकता उत्पन्न हुई। लेकिन राजा की भूमिका क्या है? तब से लेकर अब तक प्रजा का और धर्म का संरक्षण करना। लेकिन समय बदलने के साथ नियंत्रण के लिए और राजा को शक्ति देने वाली एक संस्था की आवश्यकता हुई, यही संविधान है। जो चलेगा धर्म के आधार पर ही, लेकिन मनुष्य के चित्त में आई विकृति के कारण अधर्म न हो, इसलिए संविधान लागू करने की आवश्यकता हुई। संविधान पालन करने वाले लोग भी चाहिए, इसलिए एक तरह राजा का नियम है, उसको शक्ति संविधान ने दी है। उस संविधान का मान-सम्मान रखते हुए लोग गलती ना करें, किसी के मन में इसके उल्लंघन करने का विचार ना आए। धर्म के आधार पर आचरण करने की परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही। इसी संस्कार को चलते रहने के लिए संविधान की आवश्यकता है जो संस्कृति के आधार पर जिस संविदा का पालन करते हैं और पथ भ्रमित होने पर दण्ड भी देता है, वही संविधान है।
संविधान में सभी को साथ लेकर चलने की भावना निहित है क्योंकि इसकी प्रस्तावना का पहला शब्द ही ‘हम’ से प्रारंभ होता है। अंग्रेजों के काल में हम शब्द की कोई मान्यता नहीं थी क्योंकि वह इस देश को राष्ट्र मानते ही नहीं थे, बल्कि राष्ट्रों का जमावड़ा मानते थे। जबकि संविधान ‘हम भारत के लोग’ पर विश्वास करता है। यह हम की भावना, एक राष्ट्र की भावना आजादी के तुरन्त बाद से नहीं आई, बल्कि संविधान के पृष्ठों पर जो चित्र लगाए गए हैं, उनसे हम की भावना अनादि काल से मानते हैं। अर्थात् हम उस दौर से एक साथ चले आ रहे हैं। यह इसलिए हुआ क्योंकि भारत का संविधान बनाने वाले लोग भारत के संस्कारों और संस्कृति से सराबोर लोग थे। इसीलिए संविधान की प्रस्तावना में हम की भावना देखने को मिलती है। हमें अपनी परम्परा के सही तथ्य को, सत्यपरक बातों को निकालकर सबके सामने प्रस्तुत करना होगा और हमारी परम्परा और संस्कृति से हमारा किस प्रकार जुड़ाव है, इस तथ्य से संविधान के साथ जोड़कर समझदारी के साथ समाज के सामने प्रस्तुत करना पड़ेगा। क्योंकि समझदारी से ही देश चलता है। समझदारी हम सबके अंदर है, लेकिन सुप्त अवस्था में पड़ी हुई है। यदि हम उसे सही तथ्य, सही इतिहास का आधार देते हैं तो धर्म और संस्कृति की ठीक समझ उसमें से उत्पन्न होती है। परस्पर भावना के साथ उसका संबल लेते हुए अपना समाज ठीक चलेगा, आगे बढ़ेगा और देश को बड़ा बनाएगा। साथ ही विश्व को इसी संस्कृति, संस्कार और इतिहास के आधार पर नया मार्ग दिखाएगा। इसके लिए हम सभी को एक जुट होकर उद्यम का संकल्प लेना होगा। आप सभी इसी विचार के साथ यहाँ उपस्थित हुए हैं।
गजेन्द्र सिंह शेखावत जी ने कहा कि इतिहास का पुर्नलेखन आवश्यक है। आज से 50 वर्ष पूर्व इस बात की कल्पना करना भी नामुमकिन था कि आज भारत राष्ट्रीय पुर्नजागरण के एक ऐसे दौर से गुजरेगा, जब इतिहास भारतीय संस्कृति पर आधारित होगा। हम कौन हैं? इस प्रश्न से भारतीय इतिहास को जाना जा सकता है। भारतीय इतिहास चेतना का महासागर है और यह जीता जागता प्रवाह है। दो हजार वर्षों तक लगातार आक्रमण के पश्चात भी इसकी निरंतरता बनी रही। एआई का सही प्रयोग भारतीय इतिहास की जरूरत है और पांडुलिपियों का डिजिटलाइजेशन भी महत्वपूर्ण है। प्रो. राघुवेंद्र तंवर ने कहा कि संविधान को समझने के लिए भारत एवं उसकी संस्कृति को समझना आवश्यक है। विभाजन ने भारतीय समाज को तोड़ दिया।
गोपाल नारायण सिंह ने कहा कि हजारों वर्षों के आक्रमण से इतिहास तितर-बितर हो गया है। किंतु इतिहास संकलन के प्रयास से इसे पुर्नलेखन के माध्यम से इकट्ठा करने का प्रयास किया जा रहा है, यह प्रयास सराहनीय है। देवी प्रसाद सिंह जी ने ‘यदि संविधान की वाणी होती’ विषय पर लिखित अपनी कविता से भाव को स्पष्ट करते हुए बताया कि संविधान को भारतीय संस्कृति से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इस अवसर पर मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य सुरेश सोनी जी, उत्तर क्षेत्र संघचालक पवन जिंदल जी, सहित अन्य उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन प्रो. ईश्वरशरण विश्वकर्मा ने किया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ रमेश धारीवाल ने किया। सभागार में देशभर से 1500 के आसपास इतिहासकार जमा हुए, जिसमें प्रथम दिन 120 पत्रों का वाचन किया गया। आगामी दो दिनों में करीब 230 शोध-पत्रों का वाचन किया जाएगा।



