संघ जैसा मैंने देखा
‘संघ जैसा मैंने देखा’ विषय की इस कड़ी में हमारे मध्य श्रीमान कलराज मिश्र जी हैं जो पूर्व में केंद्रीय मंत्री, हिमाचल और राजस्थान के पूर्व राज्यपाल तथा जनसंघ से लेकर संघ तक सक्रिय कार्यकर्ता रहें। बाल्यकाल से संघ से जुड़े मिश्र जी ने प्रचारक के रूप में संगठन को नई दिशा दी। संघ के शताब्दी वर्ष पर प्रस्तुत है श्याम किशोर सहाय द्वारा लिए गये साक्षात्कार के मुख्य अंश-
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी 100 वर्षों की यात्रा पूरी कर ली है। इस लम्बी यात्रा में आपका भी गहरा जुड़ाव रहा है। इस ऐतिहासिक अवसर पर आप क्या अनुभव कर रहे हैं?
मैं उत्तर प्रदेश के गाजीपु जिले के सैदपुर तहसील के छोटे से गाँव मलिकपुर का रहने वाला हूं। मेरा बचपन सादगी, संस्कार और देशभक्ति के वातावरण में बीता। मेरे बड़े भाई संघ से जुड़े, और तभी हमारे घर में प्रचारकों का आना-जाना शुरू हुआ। माँ स्वयं उनके लिए भोजन बनातीं। गाँव में संघ के कार्यकर्ताओं के प्रति गहरी श्रद्धा थी। लोग कहते, ‘ये कार्यकर्ता तो भूख-प्यास की परवाह किए बिना भारत माता की सेवा में लगे रहते हैं।’ बचपन में जब भी शाखा लगती, मैं भी पहुँच जाता। ‘आओ हम सब मिलकर गाएँ, जग जननी के गान...’ जैसे गीतों और संघ की प्रार्थना ने मन पर अमिट छाप छोड़ी। तभी ‘भारत माता हमारी माता है’ का भाव भीतर गहराई से बस गया। आजादी के बाद जब 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगा, तब हमारे घर में कई दिनों तक दो वरिष्ठ प्रचारक माननीय भेड़ी जी और उनके सहयोगी रहे। वह हमारे परिवार के लिए गौरव का समय था और तभी मेरे मन ने संघ के प्रति सम्मान और बढ़ गया। आठवीं के बाद जब मैं वाराणसी के सेंट्रल हिंदू स्कूल पहुँचा, तो संघ से मेरा जुड़ाव और गहरा हुआ। वहाँ देखा कि इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र साइकिल से लंबा रास्ता तय कर शाखा में पहुंचते हैं। यह समर्पण देखकर मैं प्रभावित हुआ। तभी से मेरा नियमित रूप से शाखा जाना शुरू हुआ। संघ ने मुझे न केवल प्रेरणा दी, बल्कि भारत माता की सेवा का सच्चा अर्थ भी समझाया।
जब देश आजादी की दहलीज पर था और संघ चुनौतियों से जूझ रहा था, उस समय आपने प्रचारक जीवन अपनाने का निर्णय कैसे लिया?
जब मैं संघ की शाखा में नियमित रूप से जाने लगा, तब मेरे मन में एक अद्भुत जोश और देशभक्ति का जुनून जागा कि ‘भारत माता की सेवा सर्वाेच्च है, देश सबसे प्रथम है।’ कक्षा 10-11 में ही मेरे मन में यह निश्चय हुआ कि मेरा संपूर्ण जीवन संघ कार्य को समर्पित होगा। शुरुआत में मेरे बड़े भाई संघ के कार्यों में सक्रिय थे, लेकिन जब वे नौकरी में चले गए, तब मैं अकेले ही संघ के विभिन्न कार्यक्रमों और विस्तार कार्यों में सक्रिय रहने लगा। संघ की आईटीसी ट्रेनिंग में शामिल हुआ, छुट्टियों में घर कम जाता और पढ़ाई और कार्य के बीच अनेक संघर्षों का सामना किया। वाराणसी में रहते हुए मुझे कई प्रेरणादायक व्यक्तित्वों से मिलने का अवसर मिला, शंकरराव तत्ववादी जी और वासुदेव खेर जी जैसे लोग, जिन्होंने स्वयं विद्यार्थी जीवन से ही प्रचारक जीवन अपनाया, मेरे लिए अत्यंत प्रेरणादायक रहे। धीरे-धीरे मैं संघ की योजना के अनुसार कार्य करने लगा। संघालय हमारे लिए केवल कार्यालय नहीं, बल्कि पवित्र केंद्र-बिंदु था। वहां सफाई, भोजन की व्यवस्था, बर्तन धोना सब काम स्वयं करना हमारी जिम्मेदारी थी। प्रचारकों का समर्पण, अनुशासन और पारिवारिक भाव ने मेरे मन में उनके प्रति गहरा स्नेह और लगाव पैदा किया। सबसे बड़ी परीक्षा तब आई जब इंटरमीडिएट पूरा करने के बाद मुझे ओटीसी (ऑफिसर ट्रेनिंग कैंप) के लिए भेजा गया। घरवालों ने विरोध किया, पर मेरा निश्चय अडिग था। प्रशिक्षण पूरा करके लौटने के बाद भी मैंने अपने मार्ग से विमुख नहीं होने का संकल्प रखा। यही अटूट निष्ठा और संघर्ष मेरे जीवन की सबसे बड़ी शक्ति बनी।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गुरुजी गोलवलकर जी का प्रभाव गहरा था। क्या उनके विचारों ने आपके जीवन को भी प्रभावित किया?
मेरा सौभाग्य रहा कि मैं वाराणसी में था, जहां परम पूज्य गुरुजी गोलवलकर जी वर्ष में दो-तीन बार अवश्य आते थे। मुझे संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के माध्यम से उनकी सेवा में रहने का अवसर मिला। उनका व्यक्तित्व अत्यंत आध्यात्मिक, तेजस्वी और प्रभावशाली था। एक घटना आज भी याद है। मैं काशी विद्यापीठ में पढ़ता था, जहां के कुलपति प्रो. राजाराम शास्त्री जी अकसर संघ की आलोचना करते थे। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा कि इतने छात्र शाखा में क्यों जाते हैं। मैंने उत्तर दिया, ‘गुरुजी का व्यक्तित्व ही लोगों को आकर्षित करता है, यही संघ की शक्ति है।’ बाद में मैंने उन्हें गुरुजी से मिलने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने प्रारंभ में मना किया, लेकिन डॉ. के.एल. शर्मा जी ने गुरुजी से भेंट की और प्रभावित होकर संघ कार्य में सहयोग देने लगे। एक मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। जब मेरी पढ़ाई पूरी हुई, विश्वविद्यालय के प्राध्यापक चाहते थे कि मैं अध्यापक बन जाऊँ। लेकिन मैंने निर्णय लिया कि मेरा मार्ग प्रचारक जीवन है। माता से अनुमति लेकर मैं संघ कार्य के लिए वाराणसी लौट आया। उसी वर्ष मेरी शादी तय हुई और तुरंत बाद ओटीसी वर्ग में मुझे अतिथि विभाग में कार्य करने का अवसर मिला। 1963 में जब गुरुजी उसी वर्ग में आए, तो उन्होंने मुझे तुरंत पहचान लिया। भाऊराव जी ने बताया कि मैं प्रचारक बन चुका हूँ और गोरखपुर नियुक्ति के लिए तैयार हूँ। गुरुजी ने पीठ थपथपाई और कहा, बहुत अच्छा, पूरे मन से कार्य करो। आज भी उस क्षण को याद कर रोमांच हो उठता है। गुरुजी का वह आशीर्वाद मेरे जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है।
आपने अभी डॉ. के.एल. शर्मा जी का एक संस्मरण बताया जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति उनकी धारणा बदलने में आपकी भूमिका रही। क्या आगे के जीवन में भी ऐसे और प्रसंग आए, जब आपके प्रयासों से लोगों की सोच या दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ?
प्रचारक बनकर जब मैं गोरखपुर पहुंचा, तब वहां की स्थिति कुछ चुनौतीपूर्ण थी। समाज में और विश्वविद्यालय में संघ को लेकर कई तरह की गलतफहमियां थीं। लेकिन मेरे मन में एक ही भावना थी जैसे वाराणसी में देखा था, वैसे ही संघ का कार्यकर्ता निष्कपट, निःस्वार्थ और पवित्र आचरण वाला होता है। उसी भावना से मैंने काम शुरू किया। मैंने तय किया कि गोरखपुर विश्वविद्यालय का कोई भी प्रोफेसर या छात्र ऐसा न हो जिससे मेरा व्यक्तिगत परिचय न बने। धीरे-धीरे संवाद शुरू किया, कई प्रोफेसर जो पहले संघ के प्रति आलोचनात्मक थे जैसे डॉ. रामचल सिंह और डॉ. गोरखनाथ त्रिपाठी बाद में स्वयं संघ से जुड़े और नेतृत्व करने लगे। फिर मैंने रेलवे अधिकारियों और उनके परिवारों से संबंध बनाना शुरू किया। एक बार एक कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित अधिकारी से मिलने गया खुलकर चर्चा हुई, विचारों का आदान-प्रदान हुआ और अंततः वही व्यक्ति संघ के प्रति सकारात्मक हो गए। मैंने गोरखपुर में हर सप्ताह ‘हरि कीर्तन’ जैसे कार्यक्रम शुरू किए, जिनमें सरकारी अधिकारी और उनके परिवार शामिल होने लगे। धीरे-धीरे पूरा वातावरण बदल गया। जो पहले दूरी रखते थे, वही संघ की विचारधारा से प्रेरित होकर जुड़े। यह मेरे प्रचारक जीवन के सबसे संतोषजनक अनुभवों में से एक रहा।
आपने द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी के साथ अपने अनुभव साझा किए। तृतीय सरसंघचालक बालासाहेब देवरस जी और बाद में रज्जू भैया जी, दोनों से भी आपका निकट संबंध रहा। इन दोनों महान व्यक्तित्वों से जुड़े कुछ प्रेरक संस्मरण आप साझा करेंगे?
पूजनीय बालासाहेब देवरस जी मुझे वैसा ही स्नेह देते थे जैसा गुरुजी देते थे। उनमें अद्भुत ह्यूमर था और कार्यकर्ताओं के व्यवहारिक जीवन को लेकर बहुत सजग रहते थे। किसे कहां लगाना है, कैसे मार्गदर्शन देना है, ये वे भली-भांति जानते थे। 1978 में जब मैं राज्यसभा में था, उन्होंने मुझे नॉर्थ ईस्ट, विशेषकर मणिपुर की जिम्मेदारी दी और कहा ‘घबराना मत, काम करोगे तो सफलता मिलेगी।’ उनके मार्गदर्शन में मैंने वहां काम किया। बालासाहेब जी हमेशा अस्पृश्यता के विरुद्ध खुलकर बोलते थे... कहते थे, ‘छुआछूत यदि पाप नहीं तो फिर दुनिया में कोई पाप नहीं।’ उनके समय में संघ के अनेक अनुसांगिक संगठनों का तेजी से विस्तार हुआ। रज्जू भैया जी से मेरा जुड़ाव विद्यार्थी जीवन से रहा। प्रयाग विश्वविद्यालय में वे प्रोफेसर थे और प्रत्येक स्वयंसेवक की व्यक्तिगत चिंता करते थे। उनके व्यवहार, सादगी और सहजता ने मेरे जीवन को गढ़ा। उनका जीवन स्वयं एक आदर्श था... जैसे जीते थे, वैसा ही संघ के संस्कारों का उदाहरण प्रस्तुत करते थे। तीनों सरसंघचालकों गुरुजी, बालासाहेब देवरस जी और रज्जू भैया जी का स्नेह, मार्गदर्शन और व्यक्तित्व मेरे जीवन की दिशा तय करने वाले रहे।
संघ के प्रचारक के रूप में आपका जीवन तो अत्यंत सक्रिय और संतोषप्रद रहा। फिर आपने राजनीति में कदम कैसे रखा? वह यात्रा कैसे प्रारंभ हुई?
देखिए, राजनीतिक मानसिकता मेरी कभी नहीं रही। सन् 1966 में कानपुर में ओटीसी का संबोधन देने गया था, तभी पूज्य रज्जू भैया ने मुझे बुलाया और कहा कि जनसंघ में लोगों की आवश्यकता है। मैंने साफ कहा, ‘भैया, मैं नहीं जाऊंगा, राजनीति हमारी मानसिकता नहीं है।’ रज्जू भैया मुस्कराए और कहा विचार करो। वरिष्ठ प्रचारकों से सलाह लेने के बाद, भाऊराव जी ने बताया कि मेरी योजना जनसंघ में बन गई है। मैंने कहा, ‘योजना बन गई तो जाना ही होगा।’ इस तरह बेमन से सही, मेरी पहली नियुक्ति आजमगढ़ में हुई वह क्षेत्र कम्युनिस्टों और समाजवादियों का गढ़ था। जनसंघ कार्यालय की छोटी कोठरी में ठहरकर मैंने गांव-गांव जाकर सदस्यता अभियान चलाया। प्रारंभ में कठिनाई थी, पर धीरे-धीरे लोग जुड़ने लगे। नगर पालिका के चुनाव में जब जनसंघ ने जोरदार जीत हासिल की, तो लोगों का आत्मविश्वास भी बढ़ा। मैंने यह प्रयास किया कि समाज के हर वर्ग से नेतृत्व उभरे दलित, पिछड़े, किसान, व्यापारी और संघ की सामाजिक समरसता का भाव राजनीति में भी साकार हो। इसी अभियान में कई कार्यकर्ता सामने आए, जैसे राजनाथ सिंह जी, महेंद्रनाथ पांडे जी, मनोज सिन्हा जी, जिन्होंने जनसंघ से भाजपा तक संगठन को मजबूत किया। मेरी कोशिश हमेशा यही रही कि हर वर्ग की बराबर भागीदारी सुनिश्चित हो और संघ का समरसता का डीएनए राजनीति में भी कायम रहे।
आप भले ही अनमने मन से जनसंघ में गए हों, लेकिन वहां जो कीर्तिमान आपने स्थापित किए, वह अद्भुत हैं। उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष के रूप में, केंद्रीय मंत्री के रूप में हर भूमिका में आपका कार्य उल्लेखनीय रहा। इस पूरे राजनीतिक जीवन में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मिले अनुभवों, अनुशासन और कार्यपद्धति का आप पर कितना प्रभाव रहा?
मैं तो हमेशा कहता हूं कि मेरे जीवन में जो भी कुछ हुआ, उसकी जड़ संघ में ही है। जब मैं जनसंघ का संगठन मंत्री था, तब पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी मेरे पास थी- गोरखपुर, वाराणसी, आजमगढ़, सब जगह लगातार प्रवास करके काम किया। फिर जब जयप्रकाश नारायण जी का संपूर्ण क्रांति आंदोलन शुरू हुआ, तो संघ और नानाजी देशमुख जी के मार्गदर्शन में मुझे पूर्वी उत्तर प्रदेश का संयोजक बनाया गया। मैंने कई माह तक गुजरात के मेहसाणा में शंकर सिंह वाघेला के साथ काम किया। उसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी से भी पहली बार वहीं मुलाकात हुई थी... वो अक्सर कहते हैं कि कलराज जी ने मुझसे पर्चे बंटवाए थे! लेकिन असली परीक्षा तो आपातकाल में आई। इंदिरा जी ने लोकतंत्र पर जो प्रहार किया, उसके खिलाफ हम सब भूमिगत होकर काम करने लगे। अलग-अलग भेष बदलकर गोरखपुर, देवरिया, वाराणसी में संगठन को जीवित रखा। एक बार देवरिया में एक कार्यकर्ता के परिवार पर अत्याचार हुआ, मैं रात को पैदल गांव पहुंचा, कार्यकर्ताओं से बैठक की लेकिन किसी ने खबर दे दी और मैं पकड़ा गया। उस समय मेरे ऊपर ₹10,000 का इनाम घोषित था। मैं 19 महीने जेल में रहा। लेकिन सच कहूँ तो उन 19 महीनों ने मेरे भीतर संघ का संस्कार और दृढ़ता और गहरी कर दी। आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी बनी, तो संघ ने ही तय किया कि लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए हमें राजनीति में उतरना है। हम लोगों ने वही किया। राजनीति में कभी निजी स्वार्थ नहीं था यह राष्ट्र सेवा का विस्तार मात्र था। आज मैं कह सकता हूँ मेरा तन, मन, चिंतन सब संघ से निर्मित है। संघ ने मुझे राष्ट्रवाद दिया, अनुशासन दिया और यह विश्वास दिया कि व्यक्ति नहीं, विचार ही सर्वाेपरि है।
1925 से 2025 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वर्षीय यात्रा संघर्ष, समर्पण और विस्तार की गाथा रही है। आपने संघ के प्रारंभिक कठिन दौर से लेकर आज की प्रतिष्ठित स्थिति तक सब कुछ निकट से देखा है। आप इस शताब्दी यात्रा को किस रूप में देखते हैं और किन कारणों से आज संघ इतनी व्यापक स्वीकृति और प्रभाव प्राप्त कर सका है?
संघ का चिंतन अत्यंत व्यापक है। वह सबको साथ लेकर चलने की प्रेरणा देता है। भारतीयता को जीवन का आधार मानते हुए, हमने जन-जन तक यही संदेश पहुंचाने का प्रयास किया कि कौन किस दल का है, यह नहीं, बल्कि सबका उद्देश्य राष्ट्र हो। मेरे राजनीतिक जीवन में विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं से आत्मीय संबंध रहे चाहे इंदिरा गांधी हों, चंद्रशेखर जी, सुरेंद्र मोहन जी या भूपेश गुप्ता जैसे नेता। मतभेद हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं होने चाहिए यह संघ के संस्कारों की ही देन है। संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जी ने प्रारंभ से ही स्पष्ट किया था हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है। अर्थात् भारतीय जीवन पद्धति को आत्मसात कर ही सच्चे अर्थों में राष्ट्र निर्माण संभव है। संघ ने शाखाओं, गीतों, खेलों और संस्कारों के माध्यम से यही भावना समाज में जगाई ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ जैसे शब्द केवल प्रार्थना नहीं, बल्कि जीवन दृष्टि हैं। आज संघ ने सौ वर्षों की यात्रा पूरी की है। प्रारंभिक संघर्षों से आगे बढ़कर वह अब विश्व स्तर पर भारतीयता का प्रतिनिधि बन चुका है। विश्व आज भारत की ओर उम्मीद से देख रहा है, क्योंकि यहां का नेतृत्व संघ के संस्कारों से पोषित है जैसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के जीवन में हम देखते हैं। उन्होंने संसद को ‘लोकतंत्र का मंदिर’ मानकर उसे प्रणाम किया, संविधान को अपने सिर पर रखकर सम्मान दिया यही संघ की शिक्षाओं का मूर्त रूप है। संघ ने प्रचार से अधिक संस्कार पर ध्यान दिया और आज वही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। इन सौ वर्षों में संघ ने यह सिद्ध किया है कि भारतीयता ही वह पथ है जो विश्व को दिशा दे सकता है। आने वाले समय में भारत अपने वैदिक, पुराण और आधुनिक मूल्यों का समन्वय कर विश्व का मार्गदर्शन करेगा यही मेरा दृढ़ विश्वास है।




