हिन्दी की दशा और भविष्य की हिन्दी - संन्तोष कुमार राय, स्तंभकार एवं विचारक
लेखक- - संन्तोष कुमार राय, स्तंभकार एवं विचारक
दशा शब्द किसी भी वाक्य या शीर्षक में जुड़ता है तो उसे पढ़कर सबसे पहला विचार नकारात्मक ही आता है। हिन्दी भाषा की आज जैसी स्थिति है उसे नकारात्मक तो नहीं ही कहा जा सकता लेकिन बहुत प्रसन्न होने के लिए भी ऐसा कुछ विशेष नहीं है जिसे लेकर हिन्दी के विकास पर किसी ठोस निर्णय पर पहुंचा जा सके। किसी भी भाषा के लंबे समय तक जीवित रहने के लिए दो बातें बहुत आवश्यक हैं, पहली कि उस भाषा को सत्ता का साथ मिले और दूसरी कि उसमें साहित्य सृजन निरंतर होता रहे। सौभाग्य से हिंदी को वर्तमान समय में यह दोनों ही प्राप्त है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि एक भाषा के रूप में हिंदी के सामने अब किसी भी तरह की चुनौती नहीं है। भारतीय संविधान में हिंदी को कार्यालयी भाषा का दर्जा दिया गया है। अभी भी हिन्दी राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर पायी है और निकट भविष्य में ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। हिन्दी भारत की भाषा है और इसका प्रचार-प्रसार विश्व स्तर पर हो रहा है लेकिन भारत के भीतर हिन्दी को जिस तरह की राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है वह साधारण नहीं है। यदि हिन्दी की तुलना संख्या के आधार पर की जाय तो इसे जानने समझने वालों की संख्या विश्व में तीसरी सर्वाधिक है। भारत में करोड़ों लोग हिन्दी जानते-समझते हैं और बोलते भी हैं। वहीं कई करोड़ लोगों की यह दूसरी भाषा है, कुछ की तीसरी भी है। भारत ही नहीं इसके बाहर भी हिन्दी बोलने-समझने वालों की संख्या बहुत अधिक है, फिर भी भारत के भीतर हिन्दी का संघर्ष समाप्त क्यों नहीं हो रहा है यह पड़ताल का विषय है । यदि इस प्रश्न की तह में जाएंगे तो हमें पता चलेगा कि यह विवाद आज का नहीं है, बल्कि इसके बीज को बहुत सतर्क होकर बोया गया है जिसकी फसल भारत में आंतरिक तौर पर हमेशा तैयार रहती है। हिन्दी की स्थिति के संदर्भ में हिन्दी के श्रेष्ठ रचनाकार रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है, ”जिस पराधीनता की जंजीर हमने सन् 1947 ई. के अगस्त में काट गिराया, वह हमारी शारीरिक गुलामी की जंजीर थी। मानसिक गुलामी की कड़ियां तो अब भी अंग्रेजी के साथ बंधी हुई हैं और जब तक अंग्रेजी इस देश में प्रभुता के पद पर आसीन है, तब तक हम मानसिक और आध्यात्मिक स्वराज से वंचित रहेंगे।“ यह कोई साधारण बात नहीं है। जिस विवाद की शुरुआत 1947 में हुई उसका समाधान आज तक नहीं मिला। इसके लिए आज किसी को जिम्मेदार ठहराना शायद ठीक नहीं होगा। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस कारण हिन्दी का विकास बिल्कुल रुका हुआ है। आज हिन्दी अपनी सभी चुनौतियों के साथ अपनी गति से आगे बढ़ रही है।
”निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल“ भारतेन्दु हरिश्चंद्र की यह पंक्ति उस दौर के लिए जितनी सत्य थी आज के लिए भी उतनी ही सत्य है। लेकिन भारतीय समाज भारतेन्दु हरिश्चंद्र जैसे बड़े रचनाकार के संकेत को आज तक आत्मसात नहीं कर पाया। आज हिन्दी के उत्थान के लिए अनेक तरह के सरकारी प्रयास हो रहे हैं लेकिन जब हिन्दी अपनी जगह बना रही थी तब उसे सरकारी प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा था। आज हिन्दी की पहचान वैश्विक है और न सिर्फ भारत में हिन्दी दिवस का कार्यक्रम होता है बल्कि विश्व हिन्दी दिवस जैसी अवधारणा भी आगे बढ़ी है। इसका मतलब यह है कि हिन्दी की अच्छी पहचान विश्व स्तर पर हुई है। आज भारत के बाहर यह नेपाल, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, यमन, अमेरिका, इंग्लैंड, युगांडा, जर्मनी, न्यूजीलैंड, सिंगापुर, कनाडा और खाड़ी आदि के देशों में प्रयोग में लायी जा रही है। दुनिया के दस से अधिक विश्वविद्यालयों में इसके पठन-पाठन की भी व्यवस्था हो गई है। इसमें सरकार की भी भूमिका है और हिन्दी साहित्य की भी है। साथ ही विश्व हिन्दी सचिवालय जैसी संस्थाएं भी इसमें अपनी भूमिका निभा रही हैं और सर्वाधिक योगदान हिन्दी से जुड़ी उन तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं का भी है जिन्होंने हिन्दी के विकास के लिए अपना योगदान दिया है। आज हिन्दी जानने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। हिन्दी लिंक भाषा के रूप में लोगों के बीच भावात्मक संबंध स्थापित करती दिखाई दे रही है।
आज जो हिन्दी बोली जा रही है यानि खड़ी बोली हिन्दी इसका कुल विकास काल डेढ़ सौ वर्षों का है। इन डेढ़ सौ वर्षों में हिन्दी एक क्षेत्रीय बोली से वैश्विक पहचान तक पहुंची है। इस वैश्विक पहुंच के अनेक कारण हैं। मुझे आज जो कारण दिखाई दे रहा है उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्यकारों और हिन्दी सेवियों का निःस्वार्थ योगदान है। अब यह प्रश्न हो सकता है कि भारत में शिक्षा और प्रशासन की भाषा अंग्रेजी है ऐसी स्थिति में हिन्दी का भविष्य किस रूप में देखा जा सकता है? ऐसा नहीं है कि यह सवाल आज का है या आज उठाया जा रहा है बल्कि यह सवाल भी उतना ही पुराना है जितनी पुरानी हिन्दी है ।
हिन्दी के विस्तार में तकनीक की महत्वपूर्ण भूमिका है। अब मोबाइल, कम्प्यूटर पर हिन्दी लिखना-पढ़ना सुलभ है। आज हिन्दी की पुस्तकों के लिए किसी की निर्भरता की आवश्यकता नहीं है बल्कि आज हिन्दी साहित्य का बहुत बड़ा भंडार ऑनलाइन पोर्टल्स पर उपलब्ध है जिसका लाभ भारत से बाहर रहने वाले लोग लगातार उठा रहे हैं। हिन्दी के विकास में जो भूमिका हिन्दी फिल्मों और धारावाहिक आदि ने निभाया है उसे कैसे नकारा जा सकता है। भारत के अहिन्दी भाषियों तथा विदेश में हिन्दी की लोकप्रियता का एक सशक्त माध्यम हिन्दी फिल्में हैं। हिन्दी के प्रभाव का नतीजा है अन्य भाषाओं तथा विदेशी फ़िल्में अब सबटाइटिल्स तथा डबिंग में उपलब्ध हैं, जिनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। टीवी ने भी इसमें सहयोग किया है, रामानंद सागर के ‘रामायण’ तथा बी. आर. चोपड़ा के ‘महाभारत’ की लोकप्रियता जगजाहिर है। एक समय में ऐसी धारणा बनाई जा रही थी कि तकनीक के साथ हिन्दी शायद नहीं चल पाएगी लेकिन यह धारणा आधार विहीन निकली और आज तकनीक के साथ हिन्दी और सबल हुई है।
आज हिन्दी की जैसी स्थिति है उसमें कुछ न कुछ बढ़ोतरी होने की संभावना है। आज के बाजार की भाषा पर भी हिन्दी की अच्छी उपस्थिति है। हिन्दी भाषी लोगों का बाहर जाना किसी न किसी रूप में हिन्दी के विस्तार को प्रोत्साहित करना ही है। इसलिए भारत के आंतरिक मामले भले ही न सुलझ पाए हों लेकिन हिन्दी ने विश्व मंच पर अपनी क्षमता और सुविधा के अनुरूप स्थान बना लिया जो आने वाले समय में और मजबूत होगी, ऐसी संभावना है।