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हमारी हिन्दी

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हमारी हिन्दी


 लेखक- - डॉ. उर्विजा शर्मा 


”मानस भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती

भगवान भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती।“ -   (मंगलाचरण भारत भारती मैथिलीशरण गुप्त)

हिन्दी वर्तमान में ‘भारतीयता’ का प्रतिबिंब बन चुकी है। प्रत्येक राष्ट्र की पहचान उसकी सभ्यता, संस्कृति, जीवन पद्धति, नागरिकों के जुड़ाव के साथ-साथ भाषा से होती है। इस मानक पर भारत की यदि कोई भाषा खरी उतरती है तो वह ‘हिन्दी’ ही है। सातवीं शताब्दी में शौरसैनी अपभ्रंश से निसृत हिन्दी अपना लम्बा इतिहास समेटे हुए है। कहना ना होगा हिन्दी देवभाषा संस्कृत की परम्परा की वाहक रही है। यद्यपि सातवीं सदी से 21 वीं सदी की यात्रा में कई उतार-चढ़ाव हिन्दी भाषा के रहे। हिन्दी का जो मानक रूप संविधान में ‘राजभाषा’ के रूप में स्वीकृत हुआ, उसके अलावा भी हिन्दी की वंशावली में अनेक बोलियों का योगदान रहा जिनमें खड़ी बोली, ब्रजभाषा, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मैथिली, मगही, कुमांउनी, बांगरू, मेवाती, मालवी, आदि प्रमुख है। यद्यपि कुछ विद्वानों का मत है कि हिन्दी भाषा का विकास दसवीं शताब्दी में हुआ, तथापि दिल्ली सल्तनत, मुगलकाल के त्याघातों एवं अत्याचारों के होते हुए भी अनेक कालजयी साहित्कार यथा-कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, बिहारी, घनानंद, रसखान, केशव हिन्दी की परम्परा को समृद्ध करते रहे। तत्पश्चात स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी तथा हिन्दी के महान साहित्यकारों ने आजादी की लौ को निरंतर प्रज्ज्वलित किया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, मैथलीशरण गुप्त, निराला, दिनकर, नागार्जुन जैसे स्वनाम धन्य साहित्यकारों ने अपनी लेखनी से अंगेजी हुकूमत की चूलें हिला दीं। उक्त साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जनता में राष्ट्रप्रेम, देशभक्ति के साथ-साथ स्वाभिमान का भाव भी जगा दिया। निराश-हताश जनता जो शासन से त्रस्त हो चुकी थी पुनः स्वतंत्र होने की लालसा में निरन्तर अपने आत्मबल को बनाये रही। केसरी, सरस्वती, जागरण, प्रताप आदि पत्रिकाओं ने भी स्वतंत्रता की भावना को बनाये रखा। दृष्टव्य है कि पराजय न स्वीकार करना ही विजय प्राप्त करने का सबसे बड़ा साधन है। यह भाव तत्कालीन भारतीयों के हृदय में यदि जीवित रहा तो इसका कारण हिन्दी ही थी। 

स्वाधीनता प्राप्ति के उपरांत भी निरंतर यह विमर्श चलता रहा कि ‘राष्ट्रभाषा’ किसे घोषित किया जाये। हिन्दी जो बहुसंख्यक भारतीयों के द्वारा बोली व समझी जाने वाली भाषा थी, स्वाभाविक रूप से उसे ‘राष्ट्रभाषा’ होने का गौरव मिलना चाहिए था, किन्तु कतिपय निहित राजनीतिक स्वार्थ के कारण हिन्दी को ‘राजभाषा’ घोषित किया गया, ‘राष्ट्रभाषा’ नहीं। विडंबना यह भी रही कि यह भी प्रावधान किया गया कि हिन्दी के साथ ‘अंग्रेजी’ भी लगभग 15 वर्षों तक राजभाषा बनी रहेगी। किन्तु 14 सितम्बर 1950 को की गयी घोषणा ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में तो मनाई गयी पर अंग्रेजी के मोहपाश में आज भी हम जकड़े रह गये। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण से हिन्दी विरोध के स्वर को निरंतर हवा दी गयी जिसका कारण राजनीतिक अधिक था। वर्तमान में विश्व के अधिकांश राष्ट्र में कोई एक भाषा ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में स्वीकृत है, फिर भारत में हिन्दी को क्यों नहीं राष्ट्रभाषा घोषित किया जाता? यह विचारणीय प्रश्न है। यदि आंकड़ों की दृष्टि से भी देखें तो अकेले भारत में ही लगभग 80 करोड़ लोग हिन्दी बोल सकते हैं, समझने वालों की संख्या तो और भी अधिक है। इसके अतिरिक्त मारीशम, फिजी, गयाना, फिनलैंड, सूरीनाम, ब्रिटेन, अमेरिका, पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं चीन जैसे देशों में हिन्दी पढ़ी, बोली व समझी जाती है। वर्तमान में हिन्दी ‘विश्वभाषा’ के रूप में विकसित हो रही है। इसका प्रमाण यह है कि यह अंग्रेजी, मदारिन के साथ विश्व की 3 प्रमुख भाषाओं में एक है। विश्व के अनेक देशों में रामलीला का मंचन किया जाता है। नई शिक्षा नीति 2020 में भी मातृभाषा में शिक्षा देने का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार बहुसंख्यक भारतीयों की मातृभाषा हिन्दी ही है जो हिन्दी को ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने हेतु पर्याप्त कारण है। विज्ञान, तकनीकी के साथ-साथ कम्प्यूटर में भी हिन्दी सॉफ्टवेयर की उपलब्धता ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है। मीडिया में हिन्दी समाचार चैनलों की लोकप्रियता, फिल्मों, धारावाहिकों को मिली अपार सफलता इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी निरंतर आगे बढ़ रही है। तथापि अनुवाद के क्षेत्र में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के क्षेत्र में, लिव्यंतरण के क्षेत्र में अभी अधिक प्रयासों की आवश्यकता है। हिन्दी ब्लॉग तथा सोशल मीडिया के क्षेत्र में हिन्दी का कोई सानी नहीं है। साथ ही वर्तमान सरकार का हिन्दी को लेकर प्रयास भी उत्साहजनक है। तथापि कुछ समस्याओं का निराकरण आवश्यक है। यथा पाठ्यक्रम को रोजगारपरक बनाने की आवश्यकता है। भाषा के साथ सभ्यता, संस्कृति को जोड़ना आवश्यक है। हिन्दी टाइपिंग व कम्प्यूटर में कार्य करना शेष है। वर्तनी पर भी मेहनत की आवश्यकता है। 

हिन्दी न केवल भारतीयता की प्रतीक है वरन् ज्ञान-विज्ञान की संवाहक भी है। संस्कृत बाड़मय के वैभव को समेटे, बोलियों की वाचिक परम्परा को लेकर निरंतर विकासोन्मुख है। हिन्दी भारत के अंतस् की आवाज है। अतः दुराग्रहों को त्यागकर राजनीतिक प्रपंचों को दरकिनार कर, भाषायी-विरोध से इतर समय की मांग है कि विश्वभाषा हिन्दी को ‘राष्ट्रभाषा’ घोषित किया जाये। कोई भी राष्ट्र जब तक एक संविधान, एक ध्वज के साथ-साथ एक भाषा को अंगीकृत नहीं करता उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक समरसता उत्पन्न नहीं होती। ‘राष्ट्र’ के रूप में विकसित होने के लिए बहुसंख्यक नागरिकों की भाषा ‘हिन्दी’ के गौरव को आत्मसात करना ही होगा। 

(लेखिका एस. डी. पी. जी. कॉलेज, गाजियाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर है)  \