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वामपंथी कथा ध्वस्त: भारतीय चेतना का पुनर्जागरण

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वामपंथी कथा ध्वस्त : भारतीय चेतना का पुनर्जागरण  

भारत के वैचारिक परिदृश्य में एक लंबा कालखंड ऐसा रहा है, जब वामपंथी विचारधारा ने अपने संगठन, नेटवर्क और संस्थागत वर्चस्व के आधार पर पूरे बौद्धिक तंत्र पर लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया था। यह प्रभाव किसी स्वाभाविक बौद्धिक विकास का परिणाम नहीं था; यह योजनाबद्ध तरीके से रचा गया एक ऐसा वैचारिक ढाँचा था, जिसमें स्वयं को प्रगतिशील और वैज्ञानिक घोषित करते हुए शेष सभी विचारों को प्रतिगामी, सामंती, दकियानूसी या सांप्रदायिक करार दिया गया। वामपंथ का चरित्र विखंडनवादी रहा, इसलिए वह जितनी जल्दी फैलता है, उतनी ही जल्दी अप्रासंगिक भी हो जाता है। भारत में भी वह विविधता को प्रोत्साहित नहीं कर पाया; बल्कि एक विशेष विमर्श को ही ‘बुद्धिजीवी होने’ का प्रमाणपत्र बना दिया। इस सोच के भीतर राष्ट्रवाद संदेह का विषय था तो भारतीय संस्कृति पिछड़ेपन का प्रतीक, धर्म अंधविश्वास का पर्याय और हिंदू परंपराएँ सामाजिक बुराइयों की जड़। विडंबना यह कि स्वयं को लोकतांत्रिक और उदारवादी कहने वाली इस विचारधारा ने सबसे अधिक असहिष्णुता दिखाई। जब उसे शैक्षणिक-सांस्कृतिक संस्थानों में निर्णायक वर्चस्व प्राप्त था, उसने मनमानी स्थापनाएँ दीं और मिथ्या विमर्श खड़े किए।

वामपंथी हस्तक्षेप का प्रभाव केवल अकादमिक आंदोलनों तक सीमित नहीं रहा। इतिहास-लेखन, साहित्य, विश्वविद्यालय, मीडिया और फिल्में सभी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे। इतिहास इस प्रकार लिखा गया कि भारत का प्राचीन गौरव ”मिथक“ जैसा लगे और मध्यकालीन संघर्ष ”गंगा-जमुनी तहजीब“ की एकतंत्री कथा। विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा किए गए विध्वंस, हिंदू मंदिरों पर हुए हमले, जनसंहार, दमनकारी नीतियाँ, इन सभी तथ्यों को या तो गौण कर दिया गया या संदर्भों के बोझ तले दबा दिया गया। भारतीय नायकों को जानबूझकर नेपथ्य में धकेल दिया गया या उपेक्षित रखा गया। छत्रपति शिवाजी, संभाजी, राणा सांगा, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, लाचित बोड़फूंकन, ललितादित्य मुक्तापीड, राजराज चोल, राजेंद्र चोल, सूरजमल, रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेनम्मा, देवी अहिल्याबाई होलकर, महारानी दुर्गावती जैसे तमाम नाम हाशिये पर रहे, क्योंकि इनसे भारतीय आत्मसम्मान, संघर्ष और प्रतिरोध की चेतना प्रस्फुटित होती थी। इतिहास की यह विकृति महज अकादमिक भूल नहीं थी; यह भारत की सांस्कृतिक चेतना को शिथिल करने की योजनाबद्ध रणनीति थी।

सेक्युलरिज्म के नाम पर भी वामपंथ ने एक ऐसी मानसिकता गढ़ी, जिसमें बहुसंख्यक समाज स्वतः दोषी और अल्पसंख्यक स्वतः पीड़ित माने गए। किसी भी मुद्दे में आरोपों की दिशा तय थी- विचारधारा तय करती थी कि न्याय किसे मिले और किसे कटघरे में खड़ा किया जाए। यह वही दौर था जब शाहबानो के अधिकारों को राजनीतिक तुष्टीकरण के लिए कुचल दिया गया, तसलीमा नसरीन को भारत से निकाले जाने पर बौद्धिक जगत ने चुप्पी साध ली, सलमान रुश्दी की पुस्तक द सैटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उन्हें जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आने से रोक दिया गया। परंतु वामपंथी सेक्युलरिज्म की नैतिकता पर कोई पुनर्विचार नहीं हुआ। हिंदू देवी-देवताओं का उपहास प्रगतिशीलता माना गया, किंतु इस्लामी कट्टरता या ईसाई मिशनरियों की धूर्त्तता पर प्रश्न उठाना ‘असहिष्णुता’ कहलायी। यह दोहरे मानदंडों का ऐसा खेल था, जिसमें न्याय विचार से नहीं, विचारधारा से तय होता था।

शिक्षा में वामपंथी प्रभुत्व सबसे गहरा था। विश्वविद्यालय, जो विविधता और मुक्त चिंतन के केंद्र होने चाहिए थे, लंबे समय तक वैचारिक खेमेबाजी के अड्डे बने रहे। छात्रों के मन को विचारधारा के अनुसार ढाला गया- राष्ट्रवाद को पिछड़ा बताया गया, भारतीय ज्ञान-परंपरा को अवैज्ञानिक, भारतीय सेनाओं को साम्राज्यवादी उपकरण और हिंदू विश्वासों को अंधविश्वास। असहमति रखने वाले छात्रों-अध्यापकों को ”फासीवादी“, ”दक्षिणपंथी“, ”सांप्रदायिक“ कहकर दमन किया जाता था, लांछित व कलंकित किया जाता था। यह विडंबना थी कि लोकतंत्र के स्वयंभू रक्षक विश्वविद्यालयों में बौद्धिक निरंकुशता के संरक्षक बन गए थे। कला, साहित्य और मीडिया पर भी वामपंथी व्यूहतंत्र की गहरी छाप थी। फिल्मों में हिंदू परंपराएं पिछड़ेपन और पितृसत्ता का प्रतीक, मंदिर अंधविश्वास का केंद्र और परिवार एक बोझ की तरह दिखाया गया; वहीं पश्चिमी जीवनशैली आधुनिकता का एकमात्र मापदंड बना दी गई। यह सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का नया रूप था-विचार पश्चिमी हों, प्रतीक पश्चिमी हों, मूल्य पश्चिमी हों, यही ”प्रगतिशीलता“ की परिभाषा बना दी गई। परंतु समय बदला है, और यह परिवर्तन केवल राजनीतिक नहीं है; यह सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक स्तर पर आया एक गहरा बदलाव है। पिछले एक दशक में वामपंथियों द्वारा खड़े किए गए क्षद्म विमर्श की दीवारें दरकनी शुरू हुई हैं। लंबे समय से दबाया गया सत्य नए स्रोतों, नई तकनीक, पुरातात्विक प्रमाणों और सोशल मीडिया की व्यापक पहुँच के कारण सामान्य नागरिकों तक पहुँच रहा है। यह नया भारत किसी एकतरफा कथानक को यूँ ही स्वीकार नहीं करता; उसे प्रमाण चाहिए, तर्क चाहिए और प्रामाणिकता चाहिए।

इस परिवर्तन को समझने के लिए कुछ बुनियादी बदलाव पर्याप्त प्रमाण हैं। एक समय था जब ”राम“ और ”कृष्ण“ जैसे नामों पर वामपंथी बुद्धिजीवी उन्हें काल्पनिक बताकर पूरे धार्मिक-सांस्कृतिक विश्वास को ही हास्यास्पद बनाने का अभियान चलाते थे। आज वही लोग चुप हैं, क्योंकि भारत का समाज न केवल अपने आराध्यों के अस्तित्व और ऐतिहासिक आधार को बेहतर समझ रहा है, बल्कि राम मंदिर के उद्घाटन में वामपंथी दलों, उनके प्रभाव वाले समूहों व बुद्धिजीवियों की मौन स्वीकृति इस बात का प्रमाण है कि पुराना विमर्श टूट चुका है। हिंदू आस्थाओं, प्रतीकों और परंपराओं का अपमान अब सामाजिक प्रतिरोध का विषय बन चुका है। लोग अपने परिधान, भाषा, त्योहार, खान-पान, योग, आयुर्वेद और भारतीय जीवन-शैली पर गर्व महसूस कर रहे हैं। आज हिंदू होना हीनता नहीं, गौरव की विषयवस्तु है। अपनी संस्कृति, अपने इतिहास, अपने अतीत के प्रति यह नया भाव जागृत हुआ है, जिसे कोई वामपंथी स्थापित विमर्श दबा नहीं पा रहा।

यही परिवर्तन भारत की वैज्ञानिक परंपरा को लेकर बने मिथकों में भी दिखाई देता है। दशकों तक योग, पंचकोश सिद्धांत, नाड़ी विज्ञान, आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, धातुशास्त्र और प्राचीन भारतीय गणित को अवैज्ञानिक कहकर उपहास उड़ाया गया। परंतु आज योग दिवस की वैश्विक सफलता से लेकर आयुर्वेद व भारतीय गणित पर हो रहे अंतरराष्ट्रीय शोधों तक, ये सभी प्रमाणित करते हैं कि भारत की वैज्ञानिक विरासत मिथक नहीं, बल्कि सुविकसित ज्ञान-परंपरा थी। जिन सिद्धांतों को कभी ‘अंधविश्वास’ कहकर नकारा गया, वही आज दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में शोध का विषय हैं। यह परिवर्तन बताए बिना नहीं रहता कि वामपंथी अस्वीकार्यता का आधार तथ्य नहीं, पूर्वाग्रह था और नया भारत इस पूर्वाग्रह को अस्वीकार कर चुका है। 

एक समय राम मंदिर, राम-सेतु, श्रीकृष्ण मंदिर या हिंदू पहचान से जुड़े मुद्दों पर वामपंथी बुद्धिजीवी अनर्गल टिप्पणी करते थे; कई तो मर्यादा लांघते हुए कहते थे कि ”मंदिर से क्या होगा, वहाँ स्कूल-हॉस्पिटल बना दो, कई तो यहाँ तक कहने की नीचता पर उतर आते थे कि ष्वहाँ शौचालय बन दो।“ पर आज हिंदू समाज की सांस्कृतिक चेतना इतनी उन्नत हो चुकी है कि उन्हें अनमने ढंग से ही सही, जन-भावना की दिशा में खड़ा होना पड़ रहा है और स्वीकार करना पड़ रहा है कि श्रीराम भारतीय अस्मिता के प्रतीक-पुरुष हैं, और मंदिर निर्माण राष्ट्रीय सम्मान एवं सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।

इसी प्रकार धारा 370 की समाप्ति ने वामपंथी विमर्श को निर्णायक झटका दिया। जो लोग कश्मीर को पाकिस्तान को दे देने की वकालत करते थे, विभाजनकारी राजनीति को ‘यथार्थवादी समाधान’ बताते थे, उन्हें समझ आ चुका है कि भारत-विरोधी राजनीति उन्हें तेजी से अप्रासंगिक बना रही है। भारत का समाज अब यह पहचानने लगा है कि उसका इतिहास पराजय का नहीं, बल्कि संघर्षों, त्याग और पुनर्जागरण का इतिहास है। ”आर्य-अनार्य“, ”उत्तर-दक्षिण“, ”शोषक-शोषित“, ”फेमिनिज्म-वोकिज्म“ जैसे वैचारिक विभाजनों को समाज अब सतही मानकर खारिज कर रहा है। 

काशी-तमिल संगम में उमड़ती भीड़, कुंभ और महाकुंभ में करोड़ों की भागीदारी, तीर्थस्थलों पर जनसैलाब, ये सभी प्रमाण हैं कि वामपंथियों की लाख कोशिशों के बावजूद भारतीय समाज टूट नहीं रहा, बल्कि पहले से अधिक जुड़ रहा है। मजहबी कट्टरता और अंधे तुष्टिकरण से लेकर आक्रांताओं के महिमामंडन तक, भारतीय समाज इन सभी विभाजनकारी तत्त्वों की परख-पहचान करने लगा है। सम्यक इतिहासबोध और समग्र भारतबोध की यह नई चेतना वामपंथी तर्कों को प्रतिदिन चुनौती दे रही है। भारतीय ज्ञान-परंपरा-योग, प्राणायाम, आयुर्वेद, ज्योतिष, दर्शन, इन सबके प्रति आकर्षण वैश्विक स्तर पर बढ़ रहा है। यह सामान्य नहीं है; यह एक गहरे सांस्कृतिक पुनर्जागरण का संकेत है। सभ्यता-स्मृति की यह पुनर्प्राप्ति वामपंथियों के लिए इसलिए असहज है क्योंकि उनका संकट विचार का नहीं, वर्चस्व का है। दशकों तक जिन व्याख्याओं को अंतिम सत्य की तरह स्थापित किया गया था, वे आज प्रश्नों के कटघरे में हैं। और सत्य का यह उद्भव ही उनकी बेचैनी का मूल है। भारत आज एक ऐतिहासिक अवसर के द्वार पर खड़ा है, जब वह अपने विमर्श को स्वयं गढ़ रहा है, भारतीय दृष्टि, भारतीय मूल्य और भारतीय प्रमाणों के आधार पर। उद्देश्य वामपंथ या किसी विचारधारा को समाप्त करना नहीं, बल्कि उसकी एकाधिकारवादी, पक्षपाती और आधी-अधूरी व्याख्याओं को अस्वीकार करना है, ताकि विचारों की वास्तविक विविधता पुनः स्थापित हो सके।

सत्य अंततः स्वयं को स्थापित करता ही है। वामपंथ का वैचारिक साम्राज्य इसलिए ढह रहा है क्योंकि वह सत्य के विरुद्ध खड़ा था। समाज जब जड़ों से कटता है तो भ्रमित होता है; और जब जड़ों की ओर लौटता है तो आत्मविश्वासी हो उठता है। आज का भारत इसी आत्मबोध का अनुभव कर रहा है। वामपंथियों द्वारा खड़े किए गए क्षद्म विमर्श इसलिए ध्वस्त हो रहे हैं क्योंकि नया भारत संदेह नहीं, सत्य से निर्णय लेता है; हीनता नहीं, गौरव से सोचता है; और सबसे महत्वपूर्ण, अपनी सभ्यता-परंपरा को किसी वैचारिक अदालत में प्रमाणित करने का दायित्व नहीं मानता। यही वह नया नैरेटिव है, जिसने वामपंथ के प्रायोजित मिथकों को चुनौती दी है और जो बचा-खुचा वामपंथी प्रभाव है, वह भी भारत की सत्यान्वेषी, सहयोग-सामंजस्य-समन्वय-समरसता पर आधारित संस्कृति के आगे एक-न-एक दिन स्वयंमेव विलीन हो जाएगा।


लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार है।