भारतीय चिंतन में नारी सशक्तिकरण
भारतीय चिंतन में नारी का स्थान सदैव केंद्रीय, आदरणीय और सृजन की मूल-शक्ति के रूप में रहा है। वैदिक साहित्य से लेकर उपनिषदों, महाकाव्यों और स्मृति-ग्रंथों तक, जहां कहीं भी मानव सभ्यता के आरंभिक बौद्धिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चिन्तन का स्वरूप उभरता है, वहाँ नारी को सृजन, पोषण, संतुलन और परिवर्तन की आधार-शक्ति माना गया। मनुस्मृति का प्रसिद्ध वचन ”यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः“, यह स्पष्ट करता है कि जहाँ नारी का सम्मान और सुरक्षा सुनिश्चित होती है, वहीं समाज में समृद्धि, शांति और नैतिकता का वास होता है। यह कथन किसी संस्कार-विधान का आग्रह मात्र नहीं, बल्कि उस भारतीय दृष्टिकोण का प्रत्यक्ष संकेत है जिसके अनुसार नारी केवल सामाजिक संरचना की इकाई भर नहीं, बल्कि समाज-निर्माण की प्राण-शक्ति है।
वैदिक काल का भारतीय समाज अनेक दृष्टियों से प्रगतिशील और संतुलित था, जिसमें नारी को उसकी समस्त क्षमताओं बौद्धिक, आध्यात्मिक, आर्थिक और सामाजिक के साथ विकसित होने के अवसर उपलब्ध थे। ”शक्ति“ की अवधारणा, जो भारतीय जीवन-दर्शन का आधार स्तंभ है, नारी के इसी रूप को देवत्व प्रदान करती है। देवी-माहात्म्य में वर्णित ‘आदिशक्ति’ का स्वरूप यह बताता है कि नारी केवल जैविक सृजन का माध्यम ही नहीं, बल्कि समस्त ऊर्जा और चेतना की प्रतीक है। यही कारण है कि वैदिक संस्कृति में नारी के प्रति सम्मान केवल सामाजिक नियम नहीं, बल्कि आध्यात्मिक विश्वास था। नारी में स्थित सृजन शक्ति को ब्रह्मांडीय ऊर्जा के रूप में देखा गया, एक ऐसी शक्ति जिसके बिना सृष्टि की कल्पना ही अधूरी है।
वैदिक साहित्य में अनेक विदुषी, ऋषिकाएँ, दार्शनिक और आध्यात्मिक साधिकाएँ मिलती हैं, जिनकी उपस्थिति प्राचीन भारत में नारी की उच्च बौद्धिक प्रतिष्ठा का प्रमाण है। गार्गी वाचक्नवी का राजा जनक के सभामंडल में गम्भीर दार्शनिक प्रश्नों के माध्यम से संपूर्ण विद्वत्सभा को चुनौती देना, मैत्रेयी का ब्रह्मविद्या के गहन रहस्यों पर संवाद के माध्यम से आत्मज्ञान की साधना, लोपामुद्रा और घोषा जैसी ऋषिकाओं द्वारा ऋग्वेद के सूक्तों की रचना, ये सभी उदाहरण बताते हैं कि नारी केवल घर-परिवार तक सीमित नहीं थी, बल्कि ज्ञान-परंपरा को आगे बढ़ाने में अग्रणी थी। इन स्त्री ऋषियों ने यह स्थापित किया कि भारतीय चिंतन में नारी बुद्धि, तर्क, ज्ञान और अध्यात्म की पूर्ण आधिकारी रही है।
प्राचीन भारतीय समाज में नारी की शैक्षिक स्थिति भी उल्लेखनीय रूप से समृद्ध थी। गुरुकुलों में उन्हें शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त था और वे वेद अध्ययन, व्याकरण, दर्शन, गणित, संगीत और आयुर्वेद जैसे विषयों में दक्षता प्राप्त करती थीं। यह तथ्य कि वैदिक ऋषिकाओं ने वैदिक सूक्तों की रचना की, इस बात का प्रमाण है कि नारी वैदिक ज्ञान परंपरा का अभिन्न अंग थी। शिक्षा ने उन्हें न केवल बौद्धिक रूप से सबल बनाया, बल्कि सामाजिक और आर्थिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भी सक्रिय सहभागिता के लिए सक्षम किया।
आर्थिक क्षेत्र में भी प्राचीन भारतीय नारी की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। वे कृषि, पशुपालन, व्यापार और अन्य आर्थिक गतिविधियों में हिस्सा लेती थीं। परिवार और समाज की आर्थिक संरचना में उनका योगदान इतना महत्त्वपूर्ण था कि उन्हें संपत्ति के अधिकार भी प्राप्त थे, यद्यपि समय के साथ इन अधिकारों का स्वरूप परिवर्तित होता गया। चिकित्सा विज्ञान में भी नारी की भूमिका सराहनीय थी। वैदिक काल में महिला वैद्यों का उल्लेख मिलता है। रुसा जैसी चिकित्सक, जिनके आयुर्वेद संबंधी कार्यों का अनुवाद बाद में अरबी में हुआ, यह प्रमाणित करती हैं कि नारी चिकित्सा-विज्ञान में भी अग्रणी रही है।
नारी की नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक योग्यता का विवरण भी भारतीय इतिहास में व्यापक रूप से मिलता है। मृगावती, प्रभावतीगुप्त, नयनिका, अनुला और रुद्रमादेवी जैसी शासकाओं ने न केवल शासन-प्रशासन को सुचारु रूप से चलाया, बल्कि युद्ध नीति, कूटनीति और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किए। यह बताता है कि भारतीय चिंतन में नारी को सत्ता संचालन और राष्ट्र निर्माण का भी सक्षम वाहक माना गया।
संगम-साहित्य में अव्वैयार और वेन्नि कुयाथियार जैसी महिलाओं का उल्लेख कूटनीति और सार्वजनिक नेतृत्व में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है। वे राज्य नीति, शांति वार्ता और राजनीतिक संवाद में अपनी बुद्धिमत्ता और निर्णायकता के लिए जानी जाती थीं। यह तथ्य यह स्थापित करता है कि नारी समाज का केवल भावनात्मक आधार नहीं, बल्कि राजनीतिक सामरिक शक्ति भी थी।
निश्चित ही, समय आगे बढ़ने के साथ सामाजिक संरचनाओं में परिवर्तन हुए। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रभाव से नारी को कई स्तरों पर प्रतिबंधों, असमानताओं और सीमाओं का सामना करना पड़ा। बाल-विवाह, शिक्षा में असमानता, संपत्ति के अधिकारों की कमी, सामाजिक रूढ़ियाँ और धार्मिक व्याख्याओं के संकुचित रूपों ने धीरे-धीरे नारी की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया। यद्यपि यह विकृति भारतीय मूल-चिंतन का हिस्सा नहीं थी, बल्कि सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न हुई, फिर भी इसका प्रभाव नारी-स्थिति पर पड़ा। परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि भारतीय समाज ने हर परिवर्तनशील काल में सुधार और आत्मपरिष्कार की क्षमता दिखाई।
भारतीय चिंतन की शक्ति यह है कि वह अपने मूल् तत्वों को समयानुकूल ढंग से पुनर्परिभाषित कर सकता है। इसलिए जब भारतीय समाज सामाजिक विकृतियों के कारण नारी-अधिकारों से विमुख होने लगा, तो उसी परंपरा से प्रेरित सुधारकों और आंदोलनकारियों, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि ने नारी शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, सती प्रथा उन्मूलन और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष किया। स्वतंत्रता आंदोलन में नारी ने जिस सक्रियता, साहस और नेतृत्व का परिचय दिया, वह बताता है कि भारतीय नारी ने अपनी मूल शक्ति को पुनः प्राप्त किया और समाज को नई दिशा दी। सरोजिनी नायडू, एनी बेसेन्ट, कस्तूरबा गांधी, अरुणा आसफ़ अली, लक्ष्मी सहगल जैसी अनगिनत महिलाओं ने यह सिद्ध किया कि भारतीय चिंतन में नारी की शक्ति कभी समाप्त नहीं हुई; वह केवल पुनः जागरण की प्रतीक्षा कर रही थी।
इक्कीसवीं सदी का भारत नारी सशक्तिकरण की नई परिकल्पना का साक्षी है। आज की भारतीय नारी विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, न्यायपालिका, सेना, साहित्य, उद्यमिता, खेल और राजनीति के सभी क्षेत्रों में असाधारण स्थान बना रही है। यह उपलब्धियाँ केवल आधुनिकता का परिणाम नहीं, बल्कि उस वैदिक दृष्टि का पुनरुत्थान हैं जो नारी को ‘शक्ति’, ‘प्रेरणा’ और ‘समाज निर्माण की निर्माता’ के रूप में देखती है। आधुनिक नारी सशक्तिकरण की संकल्पना, शिक्षा, स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता, निर्णय-सत्ता, समान अवसर, सुरक्षा और सम्मान,भारतीय सांस्कृतिक चेतना का ही स्वाभाविक विस्तार है।
भारतीय चिंतन का सार यह है कि समाज तभी संतुलित, प्रगतिशील और सामंजस्यपूर्ण बन सकता है जब नारी को समान अधिकार, सम्मान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त हो। नारी को केवल परिवार की संरक्षक या समाज की सहायक शक्ति मानना भारतीय दृष्टि नहीं है; वह सामाजिक संरचना की धुरी, नैतिक संरचना की प्रेरक और आध्यात्मिक संरचना की ऊर्जा है। भारतीय संस्कृति में नारी का यह स्थान स्थायी और कालातीत है, चाहे वह वैदिक काल की ऋषिकाएँ हों, मध्यकाल की वीरांगनाएँ, स्वतंत्रता संग्राम की सेनानायिकाएँ या आधुनिक भारत की वैज्ञानिक और नेता, नारी सदैव भारतीय चिंतन की शक्ति लहर रही है।
निस्संदेह, आधुनिक युग में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता इसलिए नहीं है कि नारी कमजोर थी, बल्कि इसलिए है कि समाज समय-समय पर अपनी मूल चेतना से दूर चला जाता है। भारतीय दृष्टि नारी को पूज्य, समर्थ और स्वायत्त मानती है; अतः आज आवश्यक है कि हम उसी मूल चिंतन को पुनः प्रतिष्ठित करें। नारी में निहित सृजन शक्ति, नैतिक शक्ति और ज्ञान शक्ति को सम्मानित कर ही समाज एक समतामूलक, संतुलित और उज्ज्वल भविष्य की ओर आगे बढ़ सकता है। भारतीय चिंतन का यह संदेश आज पहले से अधिक प्रासंगिक है कि नारी केवल जीवन-धारा का स्रोत नहीं, बल्कि समाज-परिवर्तन की क्रांतिकारी शक्ति है, जिसे सम्मान, सुरक्षा और स्वतंत्र विकास का अधिकार स्वाभाविक रूप से प्राप्त है।
लेखक सौराष्ट्र विश्वविद्यालय, राजकोट, गुजरात की पूर्व प्रभारी कुलपति है।




