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गतिशीलता ही संस्कृति
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भारतीय संस्कृति ‘नित नूतन-चिर पुरातन’
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जगतगुरु होना इसकी नियति
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यह भारतीय संस्कृति के पुनरोदय का काल
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम प्रधान संस्कृति है।
सम्पूर्ण भारत खण्ड की सांस्कृतिक प्रथाओं, भाषाओं, रीति-रिवाजों आदि में
विविधता में भी एकता का दर्शन एक महान विशेषता मानी जाती है। ‘सर्व खल्वमिदं
ब्रह्म’ अलग-अलग वस्तुओं में निरन्तरता और परस्पर अवलम्बिता देखना, सम्बद्धता देखना और
तद्नुरूप विश्वास रख कर आचरण करना भारत का अनूठा विश्वास है। देश काल में रहते
हुये देशकाल का अतिक्रमण करते रहने का सामर्थ्य भी हमारी सांस्कृतिक विशेषता है।
जहां रहे, जब
रहें, उनके
साथ संगति बिठा कर रहें, उसकी
अपेक्षाओं को पूरा करें, पर
उस देश काल के आगे की सम्भावनाओं का भी ध्यान रखे और जहां कहीं असंगति या कुछ
असंतुलन आ रहा है, वहां
देशकाल से आगे चले जाने का साहस करें, यह बोधिसत्व दिखाना भारतीय
संस्कृति है। चित्तवृत्ति की गम्भीर- से-गम्भीरतर साधना के बिना संस्कृति का
उच्चतर प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। भारतीय संस्कृति किसी न किसी उच्चतर जीवन
उद्देश्य या मूल्य से प्रेरित है। अपने लिये जीना सार्थक जीना नहीं है। गतिशीलता
ही संस्कृति है। ठहराव इसी संस्कृति के अनुसार चलने पर बनी हुई कुछ राहें हैं, आचरण के बने हुये कुछ
सांचे हैं। संस्कृति मानव चित्त की खेती है। खेत की उर्वरता को बार-बार सुनिश्चित
करने के लिये जोता जाता है, नीचे
की मिट्टी ऊपर कर बीज रोपित किये जाते हैं। इस प्रक्रिया में नये किसलय निकलते है।
यही कारण है कि भारतीय संस्कृति को ‘नित नूतन-चिर पुरातन’ कहा जाता है।
भारत
की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल, प्राचीनतम, सुविकसित सभ्यता, वैदिक युग की
प्राचीनतम विरासत, एवं
विश्व को मनवता का शिक्षा व संदेश देने की क्षमता विद्यमान है। भारत कई धार्मिक
प्रणालियों और पंथों का जनक है, जिससे पूरा विश्व प्रभावित हुआ है। यहां कर्म की
प्रधानता है। संस्कृति की प्राचीनता के साथ अमरता है जो कई क्रूर थपेड़ो को खाती
हुई आज भी जीवित है। जगतगुरु होना इसकी नियति है। सर्वांगीणता, विशालता, उदारता, प्रेम और सहिष्णुता
इसकी संगठित शक्ति है।
समय
की गति तथा विश्व की समयानुकूल बदलती संरचना साम्राज्यवाद, साम्यवाद, समाजवाद, भौतिक क्रान्ति तथा 1200 वर्षों की क्रूर, गुलामी ने इस देश की
संस्कृति, सभ्यता, मानवबिन्दुओं और
मनोबल को क्रूरतापूर्वक दबाया, कुचला और नष्ट करने का बहुविध प्रयास किया। इसमें भारतीय
संस्कृति धूमिल अवश्य हुई परन्तु काल उसे मिटा नही सका। भारतीय दर्शन, धर्म, समाज, परिवार, परम्परा एवं रीति, वस्त्र विन्यास, साहित्य, इतिहास, महाकाव्य, संगीत, नृत्य, नाटक, रंगमंच, चित्रकारी मूर्तिकला, वास्तुकला, मनोरंजन, खेल, सिनेमा, रेडियो और मीडिया सब
स्मृति श्रुति, स्मृति
आचरण व विचार में अक्षुण रहे। वर्तमान युग को हम भारतीय संस्कृति के पुनरोदय काल
के अन्तर्गत विभाजित कर सकते हैं। स्वतन्त्रता के बाद भारत ने बहुआयामी सामाजिक और
आर्थिक प्रगति की है। कृषि में भारत आत्मनिर्भर बना है और औद्योगिक क्षेत्र में
इसकी महान उपलब्धियों ने दुनिया का एक अग्रणी देश बना दिया है। भारत में
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा बलवती होने लगी है तथा भारत की छवि विश्व में
तेजी से बदली है। सिन्धुघाटी सभ्यता, वैदिक सभ्यता, स्वर्णयुग, बौद्धयुग, सिकन्दर का आक्रमण, गुप्त साम्राज्य, हर्षवर्द्धन, विक्रमादित्य, मौर्य साम्राज्य आदि
के बाद भारतीय संस्कृति के पुनरोदय का वर्तमान काल मील के पत्थर सिद्ध हो रहे हैं।
आज भी भारत राम-कृष्ण का देश कहा जाता है। हिन्दू शब्द पूरे विश्व में भारत का
पर्याय माना जाता है। आर्यावर्त, भारत खण्डे, जम्बू द्वीपे यह हमारा संकल्पीय
पहचान है। धीरे-धीरे हम जिसे विस्मृत करते जा रहे थे अब पुनः उसका पुनरोदय होने
लगा है। अपनी भाषा, अपनी
पहचान तथा अपनी संस्कृति पर गर्व का भाव उदय होने लगा है।
भारतीय
मेधाशक्ति ने सम्पूर्ण विश्व में चमत्कार कर विज्ञान प्रौद्योगिकी, धर्म, संस्कृति और सभ्यता
में भारत का मस्तक ऊंचा किया है। स्वामी विवेकानन्द ने जो विश्व का ध्यान इस
प्राचीनतम संस्कृति की ओर खींचा था, अब उस ताप को विश्व अनुभव करने
लगा है। यहां के साधू, संतों, योगियों ऋषियों, संन्यासियों सहित
यायावर सांस्कृतिक महापुरुषों ने विश्व के समस्त देशों में भ्रमण कर भारतीय
ज्ञान-विज्ञान, आध्यात्म
योग और विश्व बन्धुत्व का संदेश दिया और दे रहे है जिसे अब विश्व स्वीकार करने लगा
है।
विश्व
के 171 देशों
ने संयुक्त राष्ट संघ में विश्व योग दिवस के पक्ष में मत दे कर योग की महता
स्वीकार की। पूरा विश्व अब योग विज्ञान को मानवता के लिये लाभकारी मानने लगा है
जिसमें कई इस्लामिक राष्ट्र भी सम्मिलित थे। यह भारतीय संस्कृति का पुनरोदय है।
”सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया” का भारतीय उदघोष अब भारत के बाहर
सम्पूर्ण विश्व में फैल रहा है। अब एकजुट सांस्कृतिक भारत की गरिमा का प्रमाण
भारतीय नागरिकों को एयरपोर्ट पर दिखाई देता है जब उनको सम्मानपूर्वक दूसरे देशों
में प्रवेश मिलता है। यहां के राजनैतिक नेतृत्व का लोहा पूरा विश्व मान रहा है।
सम्पूर्ण विश्व में कोरोना महामारी के समय वैक्सीन की जब महती आवश्यकता थी तो भारत
संकटमोचन बन कर सबसे पहले टीका विकसित कर पूरे विश्व में भेजने का सम्मान प्राप्त
कर चुका है। जीवन रक्षक क्लोरोहाइड्रोक्वीन दवा को भारत ने ही सर्वत्र मांग के
अनुसार भेजा जिससे भारत के ”सर्वे संतु निरामया“ के उदघोष की सार्थकता सिद्ध हुई।
विगत
490 वर्षों
से अटका रामजन्म भूमि का विवाद अन्ततः सम्पूर्ण विश्व के समक्ष शान्तिपूर्ण ढंग से
सुलझा लिया गया। मन्दिर निर्माण प्रारम्भ हुआ और जिस हनक और गरिमा से भारत के
प्रधानमंत्री तथा राष्ट्र स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा 5 अगस्त 2020 को उसका भूमि पूजन
हुआ, वह
राम राज्य के शंखनाद के रूप में दुनिया ने देखा। भारतीय संस्कृति के पुनरोदय का यह
काल है। 21वीं
सदी भारतीय संस्कृति की सदी के रूप में स्थापित हो रही है। विश्व को यदि शान्ति और
सुख चाहिये तो उसे भारत की संस्कृति की ओर ही वापस लौटना होगा।
भारत
ने दुनिया के हृदय में स्थान बनाया है। साम्राज्यवादियों और जिहादियों की भांति
किसी की भी भूमि नही हड़पी है। परमाणु शक्ति सम्पन्न देश होते हुये भी अपनी
संस्कृति की गरिमा पर भारत आज भी दृढ़ है। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 व 35ए को समाप्त कर विश्व
को बता दिया गया है कि भारत किसी के आगे झुकने वाला नही है। खीर भवानी मन्दिर हो
या शंकराचार्य मन्दिर, कश्मीर
भारत का अभिन्न अंग है। यह ऋषि कश्यप का बसाया क्षेत्र है। भारत आतंकवाद का समूल
नाश करने पर लगा हुआ है। भारतीय संस्कृति शान्ति और सुरक्षा के साथ रहने और जीवन
यापन करने का संदेश देती है।
‘शस्त्रेण
रक्षिताम् राष्ट्र’ राष्ट्र की रक्षा शस्त्र से होती है- इस क्षेत्र में भारतीय
सैन्य बल को मजबूत कर भारत अस्त्र-शस्त्रों के मामले में तेजी से आत्मनिर्भरता की
ओर बढ़ रहा है। चीन और पाकिस्तान जैसे विश्व के अन्य देश भी अब भारत को और भारतीय
सांस्कृतिक पहचान को समझने लगे है। इतिहास का पुर्नलेखन हो रहा है। भारत का गौरव
पूर्ण इतिहास विश्व के समक्ष रखा जा रहा है। वामपंथियों के द्वारा शिक्षा और
इतिहास के साथ जो क्षद्म खेल विगत 70 वर्षों में खेला गया था, अब भारत नई शिक्षा
नीति और इतिहास संकलन व पुर्नलेखन के माध्यम से उसे ठीक करने में लगा है।
मथुरा-काशी के मन्दिरों के पुनरुद्धार की मांग जोर पकड़ रही है। राष्ट्र विरोधी
शक्तियाँ हतोत्साहित हो रही है। भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में सबल बन कर
विश्व को अपना विराट रूप दिखाने की ओर अग्रसर है। राष्ट्रीय शक्तियां जाति, पंथ, मजहब की सीमा तोड़ कर
एक होने का प्रयास कर रही है। रामसेतु और राम को काल्पनिक मानने वालों का मनोबल
टूट रहा है और वे सांस्कृतिक राष्ट्र की शक्ति के आगे नतमस्तक हो रही हैं।
राष्ट्र
रामन्दिर के रूप में राममन्दिर का अयोध्या में जब निर्माण प्रारम्भ हुआ तो पूरे
विश्व से धनसंग्रह अभियान में गरीब-पिछड़े-अगड़े सभी ने योगदान दिया। काकोरी और
सुहेलदेव के इतिहास प्रकाशित होने लगे। लॉकडाउन काल में स्वच्छता-सफाई और एक दूसरे
की परस्पर सहायता का जो भाव जगा उसने जाति-वर्ण को बहुत पीछे छोड़ दिया। भारत एक है
और वह किसी संकट का सामना करने में सक्षम है, यह स्वाभिमान जगा है। स्वाभिमानी
राष्ट्र के रूप में भारत की पहचान बनी है। यही भारत का सांस्कृतिक पुनरोदय है।
(नोट: ये लेखक के निजी विचार है)