वेदों में पंच परिवर्तन
कल विश्व प्रकम्पित हो रहा है, कहीं युद्ध-विभीषिका, तो कहीं प्राकृतिक मानवीय आपदाएं, सर्वत्र अनन्त कण्ठों से एक ही आर्तनाद (करुण पुकार) झंकृत हो रहा है-‘‘जीवन संरक्षेत’’ यानी जीवन सुरक्षित रहना चाहिए एवं त्राहि माम-त्राहिमाम। धरती से ब्रह्माण्ड तक का जीवन सुरक्षित एवं संतुलित रहने का मात्र एक ही उपाय है, ‘‘वेदों में पञ्च-परिवर्तन’’। ‘वेद सभी धर्मों का मूल है, क्योंकि - ‘‘धरति विश्वं यः स धर्मः’’ - अर्थात् जो विश्व को धारण करे वह धर्म है, जो वेदों में है। वेदों में ज्ञान-विज्ञान का उज्ज्वल भण्डार है। वेदों में मानवता, राष्ट्र की अखण्डता, एकता एवं समानता के अभ्युदय की पराकाष्ठा है। ज्ञान के महासागरों में से वेद सभी विद्याओं का आदिस्रोत है।
पंच परिवर्तन वेदों में ही क्यों?
जब पिता तुल्य परम आदरणीय श्री कृपाशंकर बाबू जी ने मुझे ‘‘वेदों में पंच - परिवर्तन’’ का गुरुतम विषय प्रदान किया, तो मैंने विश्व नियंता परमपिता प्रभुवर का हृदय से आभार प्रकट करने लगी। क्योंकि वेद परमात्मा के निःश्वास हैं और वेदों के पंच - परिवर्तन की जिस आध्यात्मिक, सामाजिक एवं बौद्धिक गतिशीलता के साथ वैचारिक क्रांति लाई जा सकती है, उस प्रकार किसी अन्य ग्रन्थ द्वारा नहीं। क्यों? इसे मैं निम्न बिन्दुओं के साथ स्पष्ट करूँगी -
♦ वेद परमात्मा द्वारा प्रदत्त दिव्य ज्ञान हैं।
♦ दिव्य ज्ञान अर्थात् यह लौकिक एवं परलौकिक उन्नति का मार्ग हैं।
♦ वेदों में तृण से लेकर ब्रह्मपर्यन्त सारा ज्ञान और विज्ञान भरा हुआ है।
♦ वेद अखिल विद्याओं और विधाओं के आदि स्रोत है।
♦ सारा साहित्य वेदों का उच्छिष्ठ है।
♦ ”नहि वेदात्पंर शास्त्रम्“ अर्थात् संसार में वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं इति।
♦ पंच - परिवर्तन इसी ज्ञान एवं विज्ञान का सार हैं।
अब हम पंच परिवर्तन को आगे बढ़ाते हैं।
स्वबोधः ‘‘स्वबोध’’ वैदिक सनातन संस्कृति का प्राणतत्त्व है, आत्मा है। क्योंकि स्वबोध ही स्वराज्य (स्वदेश, स्वभाषा, स्वसंस्कृति, स्वसंस्कार, स्वसभ्यता, स्वसाधना एवं स्वावलम्बन) का आधार है। महाराजा भर्तृहरि ने स्वबोध (आत्मबोध) पर नीतिशतक में एक श्लोक दिया है -
‘‘स्वबोधेन विनान्ययाडप्युपायैः
प्रयत्नैविनयैरन्यदपि।
न सिध्यत्युपदेशो हि जन्तोः
स्वयमेव हि यत्नो हि कारणम्।।’’
अर्थात् मनुष्य को स्वयं का बोध नहीं है, तो हजारों उपदेश नियम और बाह्य उपाय भी उसे सही दिशा नहीं दे सकते। अतः स्वबोध ही मानव उन्नयन का कारण है। स्वबोध के सन्दर्भ में ऋग्वेद का आदेश है- ‘‘अग्ने तन्वं जुषस्व’’ (ऋ0 ३/१/१) अर्थात् हे ज्ञान मानव तुम अपनी आत्मा को जानो, स्वदर्शन करो, स्वमूल्यांकन करो, स्वनिरीक्षण करो, ताकि तुम्हारा जन्म-प्रयोजन सार्थक हो सके।
कुटुम्ब-प्रबोधन: परिवार ही व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र की आधारशिला है। क्योंकि दया, करुणा, सौह्यर्द्र, संस्कार एवं नैतिक मूल्यों का साँचा माता-पिता हैं और माता-पिता कुटुम्ब के स्तम्भ।
वर्तमान समय में उपर्युक्त पारिवारिक मूल्य तेजी से टूट रहे हैं, बिखर रहे हैं। पारिवारिक मूल्यों को समझना, सीखना एवं राष्ट्र की एकता-अखण्डता के लिए संरक्षित करना ही कुटुम्ब-प्रबोधन है। महाराजा भर्तृहरि के शब्दों में ‘‘न कुलं तु भवेत् कुलीनतायां।’’ अर्थात् परिवार का धर्म (नीति, संस्कार, संयम आदि) ही धरती का आधार है।
यदि हमारे राष्ट्र को समृद्ध एवं उन्नत करना है तथा बच्चों को, युवाओं को गलत मार्ग से बचाना है, तो कुटुम्ब-प्रबोधन की भावना को जीवन में उतारना होगा।
अथर्ववेद का उपदेश है- ‘‘अनुव्रतः पितुः पुत्रः।’’ (अथर्व0 ३/३0/२)
अर्थात् पुत्र पिता का अनुवर्तन करने वाला हो, यानी पिता के शुभ, गुणों, सदाचार एवं आदर्श विचारों को बढ़ाने वाला हो। यजुर्वेद में गृहस्थ आश्रम की महिमा बड़े ही सुन्दर शब्दों में की है।
सामाजिक समरसता: सामाजिक समररसता के सन्दर्भ में ऋग्वेद का संगठन सूक्त तथा अथर्ववेद का सांमनस्य सूत्र अप्रतिम व अद्भुत उदाहरण हैं।
‘‘सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।
अर्थात् सभी राष्ट्रवासी विद्वेष को हटाकर सहृदयता और सांमनस्यता को धारण करें। इसे इस प्रकार धारण करें जैसे गौ माता अपने बछ़डे से प्रीति करती है। यही राष्ट्र के ऐश्वर्य एवं अभ्युदय का मूलमंत्र है।
नागरिक कर्तव्य: नागरिक कर्तव्य के सन्दर्भ में मुझे मनु महाराज का एक अत्यंत प्रेरक श्लोक स्मरण हो रहा है-
स्वधर्मे निधनं श्रेयः
पर धर्मो भयावहः।।
मनुस्मृति में कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक को अपने समाज, अपने राष्ट्र और अपने कर्मक्षेत्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठ रहना चाहिए, क्योंकि यही सच्चा धर्म है।
ऋग्वेद का आदेश है-
‘‘त्वं सोम क्रतुभिः सुक्रतुर्भूः।’’
अर्थात् हे मानव राष्ट्र में स्थिरता लाने के लिए एवं इसे समृद्ध बनाने के लिए तू अपने सद्गुणों एवं शुभ विचारों से उत्तम कर्मों से सुकर्मा बन जा । पर्यावरण संरक्षण: वेदों में पर्यावरण - संरक्षण का वर्णन अनेक प्रकार है, यथा-वायु, जल, ध्वनि, वर्षा, खाद्य, मृदा, वनस्पति, वन सम्पदा, पशु-पक्षी आदि।
‘‘वात आ वातु भेषजं शुभ मयोभुनो हृदो।’’ इसका अर्थ है कि स्वच्छ वायु सेवन औषध है, जो हमारे हृदय के लिए, फेफड़ों के लिए आरोग्य एवं आयु प्रदान करे।
अब पर्यावरण संरक्षण की बात यदि हम महर्षि वाल्मीकि के दृष्टिकोण से करें तो वे मनुष्य को उसकी प्रत्येक अवस्था में प्रकृति की ही पृष्ठभूमि में दिखाते हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि रामायणकालीन समाज पर्यावरण मित्र भी था। उदाहरण के लिए महर्षि वाल्मीकि ने भगवान श्री राम वन गमन प्रसंग में एक दिव्य वृक्ष का वर्णन है, जिसका नाम ‘सत्योपयाचन’ है।
हम अंततः कह सकते है कि पंच परिवर्तन राष्ट्रोन्नति के पाँच-तत्व हैं।




