राष्ट्र-निर्माण के लिए समरस समाज आवश्यक
कृष्णानंद सागर जी राष्ट्रवादी चिन्तन के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनकी चार खंडों में प्रकाशित पुस्तक ‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और विभाजन के कारणों को देखने की एक नयी दृष्टि प्रदान करती है। उन्होंने सन् 1958 से लेकर सन् 1978 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक का दायित्व भी निर्वहन किया। इसके साथ ही वो जागृति प्रकाशन के संस्थापक भी रहे हैं। इसके अलावा पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेखन का कार्य भी करते रहते हैं। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष और विभाजन के समय की परिस्थितियों और कारणों पर उनसे विस्तृत बातचीत की वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद् अमित शर्मा ने। प्रस्तुत है संपादित अंश-
आपकी पुस्तक ‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’ स्वतंत्राकालीन इतिहास को देखने की एक नयी दृष्टि देती है। इस पुस्तक की परिकल्पना कैसे उत्पन्न हुई और कितना समय लगा आपको?
पुस्तक की वृहत पृष्ठभूमि के कारण इसे लिखने में 20 साल लग गए। इसमें भारत के स्वतंत्रता प्राप्त करने से पहले और उसके बाद के वातावरण का विस्तार से वर्णन है। पुस्तक का कालखंड 1940 से 1950 तक का है। हम ये नहीं भूल सकते हैं कि हमें स्वतंत्रता विभाजन का दंश झेलने के बाद मिली थी। लाखों लोगों की जान गयी थी। स्वतंत्रता प्राप्त करने से ज्यादा ये सत्ता हस्तांतरण की घटना होकर रह गयी थी। ये समझने की जरूरत है कि कि सत्ता परिवर्तन और स्वतंत्रता प्राप्ति दो अलग-अलग विचार हैं। पुस्तक में विभाजन का दंश झेलने वाले 350 लोगों के साक्षात्कार हैं। इसके लिए 700 से भी ज्यादा लोगों से मैंने बात की थी। पुस्तक पूरी तरह तथ्यों पर आधारित है। इसमें उन्हीं लोगों के साक्षात्कार शामिल किए गए हैं जो तथ्यों पर आधारित थे। मैं खुद भी विभाजन के समय की घटनाओं का साक्षी रहा हूं। इसलिए तथ्यों की सही पहचान करने में मुझे ज्यादा कठिनाई नहीं हुई। इस पुस्तक को लिखने की प्रेरणा मुझे ठाकुर रामसिंह ने दी थी। वो भारतीय इतिहास संकलन योजना के अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा कि अगर ये कार्य नहीं हुआ तो विभाजनकाल का सत्य इतिहास पूरी तरह लुप्त हो जाएगा।
आपको क्या लगता है, विभाजन क्यों हुआ और क्या आम जनता की इसमें सहमति थी?
देखिए, आपको ये सोचना होगा कि क्या विभाजन ही आखिरी विकल्प था? किन परिस्थितियों में अंग्रेज अपनी सत्ता छोड़ने को तैयार हुए? क्या कांग्रेस के नेताओं ने जनता की सुनी या वो अंग्रेजों की चाल में फंस गए? आखिर कांग्रेस ने जो चुनाव लड़ा था वो अखंड भारत के लिए लड़ा था। जनता ने उन्हें अखंड भारत के निर्माण के लिए वोट दिया था। लेकिन कांग्रेस ने जनता को आखिरकार क्या दिया? ये सब जानते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद इंग्लैंड के हालात क्या थे। वो इतने दुर्बल हो चुके थे कि साम्राज्य चलाना उनके लिए संभव नहीं रह गया था। इंग्लैंड पुनर्निर्माण के दौर में था। लेकिन फिर भी वो भारत को दुर्बल करके यहां से जाना चाहते थे। वो चाहते थे कि उनके जाने के बाद भी भारत की जनता किसी तरह से उनकी श्रेष्ठता के तले दबी रहे। ऐसे में वो भारत के विभाजन का फॉर्मूला लेकर आए। मुस्लिम लीग तो पहले से तैयार बैठी थी। कांग्रेस के नेताओं ने भी इसका विरोध करने की बजाय इसे स्वीकार कर लिया। अगर कांग्रेस के नेताओं ने विभाजन स्वीकार नहीं किया होता तो परिस्थितियां दूसरी होती।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वतंत्रता संघर्ष के बारे में भ्रांतियों के बारे में सच क्या है?
यह इतिहास को गलत तरीके से पेश करने का नतीजा है। हमने सिर्फ एक नजरिए का इतिहास देखा और पढ़ा है। सत्य को भ्रमित कर पेश किया गया है। संघ हमेशा से पूर्ण स्वराज्य के पक्ष में रहा है। देखिए, मैंने पहले ही कहा कि संघ और कांग्रेस के उद्देश्य सर्वथा भिन्न थे। कांग्रेस का उद्देश्य था ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत रहते हुए सत्ता प्राप्त करना। जबकि संघ का बिल्कुल स्पष्ट लक्ष्य था कि ब्रिटिश सत्ता को पूरी तरह से उखाड़ फेंकना। संघ ने कभी अंग्रेजों के साम्राज्यवाद को स्वीकार ही नहीं किया। संघ अपने तरीके से चुपचाप अपना कार्य करने में निरंतर लगा हुआ था। संघ में प्रवेश लेने वाले स्वयंसेवक ये प्रतिज्ञा लेते थे कि हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए ही मैं इसका सदस्य बना हूं। पूर्ण स्वतंत्रता संघ का मूल उद्देश्य था। लेकिन संघ भीड़तंत्र पर नहीं चलता था। संघ का कार्य आंदोलनात्मक नहीं था। संघ का तरीका अलग था। संघ एक-एक स्वयंसेवक के मानस को तैयार कर रहा था। ऐसा नहीं कि संघ जनजागृति को सहयोग नहीं करता। जब-जब हमें एहसास हुआ हमने सहयोग किया। इसलिए डॉ. हेडगेवार 1931 के आंदोलन में जेल भी गए। कांग्रेस को सहयोग किया।
रासबिहारी बोस जैसे लोग स्वतंत्रता संघर्ष में लगे थे। लेकिन ब्रिटिश गुप्तचरों को इस योजना की भनक लग गयी। कई गिरफ्तारियां हुई। कई लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। रासबिहारी बोस को देश छोड़कर जापान जाना पड़ा। इसी दौरान डॉ. हेडगेवार ने भी महाराष्ट्र में क्रांतिकारी दस्ते तैयार किए थे। जर्मनी से शस्त्र भी मंगाए गए थे। लेकिन फिर युद्ध समाप्त हो गया और बात आगे नहीं बढ़ पायी। डॉ. हेडगेवार कहते थे अगले 20 सालों में जर्मनी अपना बदला जरूर लेगा। जब वो ऐसा करेगा तब वो सही वक्त होगा अंग्रेजों के खिलाफ देश के अंदर विद्रोह करने का। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उन्होंने 1925 में संघ की स्थापना की। लेकिन इन योजनाओं को जाहिर नहीं किया गया था। उद्देश्य प्राप्ति तक लक्ष्य को छिपा कर रखना भी योजना का ही हिस्सा था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक की भागीदारी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ भी रही। डॉ. हेडगेवार से मिलने नेताजी नागपुर भी आए थे। उस वक्त डॉ. साहब की तबियत अस्वस्थ चल रही थी। डॉक्टर साहब के निधन के बाद गुरुजी ने भी उनके ही कार्यों को आगे बढ़ाया। आप गुरुजी के उस वक्त के भाषणों को गौर से सुनिए। उन्होंने कहा था कि उनको पूर्णकालिक प्रचारक चाहिए। ऐसे लोग जो अपना घर-बार, निजी स्वार्थ छोड़कर राष्ट्रहित में अपने जीवन की आहुति दे सकें। बड़ी संख्या में लोग इस कार्य के लिए अपने घरों से निकले। गुरुजी ने स्वयंसेवकों को स्पष्ट दृष्टि दी। उन्होंने स्पष्ट लक्ष्य दिया हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र कराने का। आप संघ के गीतों को सुनिए -
‘‘स्वतंत्रता का मूल्य प्राण है,
देखें कौन चुकाता है।
देखें कौन सुमन-शय्या तज,
कंटक पथ अपनाता है’’।।
आपने कहा कि संघ की योजना हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए थी। आखिर हिन्दू राष्ट्र से आपका क्या तात्पर्य है? क्या ये परिकल्पना सिर्फ धर्म आधारित है? सामाजिक समरसता का इसमें क्या स्थान है?
पहले हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात होती थी। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की बात नहीं होती थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है। हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना सदैव एक रही है। यह एक शाश्वत सत्य है। हमें इसे हिन्दू राष्ट्र बनाना नहीं है। हमें इसकी पुनर्प्रतिष्ठा करनी है। इस अंतर को समझना आवश्यक है। अगर कोई कहे कि हिन्दू राष्ट्र बनाना है, तो ये मतभेद का विषय है। लेकिन इसकी पुनर्प्रतिष्ठा मतभेद का नहीं समरसता का ही विषय है।
विष्णु पुराण में भारत भूमि के स्वरुप का वर्णन किया गया है -
”उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चौव दक्षिणम्।
वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संततिः।।
यहां की विविधता, यहां के मूल स्वरूप और सोच में अंतर नहीं पैदा करती है। इसी भूमि पर जन्म लेने वाले सभी समान हैं। ईश्वर ने सबको समान मनुष्य बनाया है। यही भाव समरसता पैदा करता है। स्वयं के स्वार्थ से परे हटकर दूसरे के हित की चिन्ता के चलते इस भूमि ने वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश दिया। हमारा समाज एक श्रेष्ठ समाज था। परंतु ऐतिहासिक कारणों से हमारी शिक्षा और संस्कारों में ह्ा्रस हुआ है। दृष्ट प्रवृत्ति की सोच का दायरा छोटा होता है। राष्ट्र से प्रांत पर हम आ जाते हैं। वर्ण व्यवस्था, वर्ण-भेद में बदल जाती है। जातिवाद, प्रांतवाद, क्षेत्रवाद जैसी तुच्छ प्रवृत्तियां लोगों पर हावी हो जाती हैं। समाज से समरसता लुप्त होने लगती है। इसलिए हमारी भारत भूमि के मूल संदेश को मन में उतारने की आवश्यकता है। जब हम इसे वापस लाएंगे तभी समरस समाज की स्थापना होगी। इसलिए हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना कोई जाति या धर्म से जुड़ी दृष्टि नहीं है। यह एक श्रेष्ठ, समर्थ, समृद्ध समाज बनाने की मूलभूत आवश्यकता है। हमे इसी हिन्दू राष्ट्र को पुनर्स्थापित करना है और पूरे समाज में समरसता का निर्माण करना है।




