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नागा साधुओं का इतिहास: पराक्रम, आध्यात्म और धर्म रक्षा की गाथा

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- नागा साधुओं की वीरता और आध्यात्मिकता का संगम

- जूनागढ़ के निजाम ने साधुओं को जहर देकर मारा था

- लड़ते -लड़ते जो बच गए उन्होंने बना दिया जूना अखाड़ा 

प्रयागराज। प्रयागराज महाकुंभ-2025 की तैयारियाँ जोरों पर हैं। इस महाकुंभ में विश्व के सबसे बड़े धार्मिक समागम में हिस्सा लेने के लिए विभिन्न अखाड़ों के साधु-संत पहुँच रहे हैं। इन्हीं अखाड़ों में सबसे बड़ा है पंचदशनाम जूना अखाड़ा, जिसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। नागा साधुओं का यह अखाड़ा न केवल आध्यात्मिकता बल्कि पराक्रम के लिए भी प्रसिद्ध है।

जूना अखाड़े की स्थापना और उद्देश्य

जूना अखाड़े का इतिहास 1145 ईस्वी से शुरू होता है, जब इसकी स्थापना उत्तराखंड के कर्णप्रयाग में हुई। इसका पहला मठ भी वहीं बनाया गया। हालांकि, कुछ मान्यताओं के अनुसार, इसकी स्थापना का उल्लेख 1259 ईस्वी में मिलता है और 1860 में इसे सरकारी पंजीकरण प्राप्त हुआ।

जूना अखाड़े के अराध्य भगवान शिव और उनके रुद्रावतार भगवान दत्तात्रेय हैं। इसका मुख्यालय वाराणसी के हनुमान घाट पर है, और इसके आश्रम हरिद्वार, उज्जैन समेत कई प्रमुख स्थानों पर हैं।

इस अखाड़े का उद्देश्य हिंदू धर्म की रक्षा और प्रचार-प्रसार था। बौद्ध एवं जैन धर्म के वर्चस्व को तोड़ने के लिए शंकराचार्य के निर्देशन में नागा साधुओं को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी गई। इन साधुओं ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए मुगलों, निजामों और अंग्रेजों से युद्ध किए।

अब्दाली और मुगलों के खिलाफ नागा साधुओं का पराक्रम

इतिहास में दर्ज है कि नागा साधुओं ने अहमद शाह अब्दाली को गोकुल लूटने से रोका। मथुरा और वृंदावन लूटने के बाद अब्दाली ने गोकुल पर हमला करने का प्रयास किया, लेकिन नागा साधुओं के प्रतिरोध के कारण उसे पीछे हटना पड़ा।

गुजरात के जूनागढ़ के निजाम के खिलाफ भी नागा साधुओं ने भीषण युद्ध लड़ा। इस युद्ध में निजाम को हार का सामना करना पड़ा। हालांकि, धोखे से निजाम ने नागा साधुओं को भोजन में जहर देकर मारने का प्रयास किया, जिसमें सैकड़ों साधु शहीद हुए। जो साधु बच गए, उन्होंने जूना अखाड़े की नींव रखी।

नागा साधु बनने की प्रक्रिया

नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन और अनुशासन से भरी होती है। इच्छुक व्यक्ति को 12 वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इस दौरान उसे अखाड़े की परंपराएँ और नियम सिखाए जाते हैं। गुरु की सेवा करना आवश्यक होता है।

12 वर्षों का संकल्प पूरा होने के बाद कुंभ मेले में नागा साधु के रूप में दीक्षा दी जाती है। दीक्षा के दौरान पिंडदान और सांसारिक मोह-माया से मुक्त करने के लिए विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं। इसके बाद विजय संस्कार संपन्न होता है, जिसमें व्यक्ति को धर्म रक्षा के लिए तैयार किया जाता है।

अस्त्र-शस्त्र के प्रति श्रद्धा

नागा साधु अस्त्र-शस्त्र को अपनी रक्षा और धर्म की स्थापना का साधन मानते हैं। उनके पास तलवार, त्रिशूल, भाला, फरसा जैसे हथियार होते हैं। जूना अखाड़े के शस्त्रागार में 400 वर्ष पुराने हथियार संरक्षित हैं, जिन्हें कुंभ मेले के दौरान नागा साधु प्रदर्शित करते हैं।

संन्यासी विद्रोह और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

मुगलों और निजामों से संघर्ष के बाद नागा साधुओं ने अंग्रेजों के खिलाफ भी विद्रोह किया। संन्यासी विद्रोह के रूप में प्रसिद्ध यह आंदोलन धर्म और स्वतंत्रता के प्रति उनकी निष्ठा को दर्शाता है। नागा साधुओं का इतिहास उनकी वीरता, धर्म रक्षा और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। जूना अखाड़ा न केवल आध्यात्मिक संगठन है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और परंपरा की रक्षा का एक मजबूत स्तंभ भी है।