पर्यावरण की भारतीय दृष्टि
वेद इस संसार के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ हैं, जिनकी रचना भारत की भूमि पर हुई है। वेद पृथ्वी पर एक सुंदर प्राकृतिक वातावरण की परिकल्पना करते हैं और मनुष्य को प्रदूषित न करने का आदेश देते हैं। ऋग्वेद में उल्लेख है कि ब्रह्मांड में पांच मूल तत्व अर्थात् पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और अंतरिक्ष (ईथर) शामिल हैं। हजारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों, मनीषियों मुनियों आदि ने मानव जीवन के कल्याण के लिए प्रकृति एवं पर्यावरण के महत्व को समझा था। पर्यावरण शब्द का अर्थ है चारों ओर से आच्छादित या ढका हुआ माना जाता है। विश्व का प्रत्येक प्राणी अपने चारों ओर के वातावरण पर आश्रित रहता है। पर्यावरण की इस परिधि में वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा समस्त दिशाएं, पर्वत, मेघ, वनस्पति, पशु आदि समाहित है। यजुर्वेद में भी पर्यावरण की परिभाषा दी गई हैं-‘परितः आवृणोतित पर्यावरणम्’ अर्थात् जो चारों ओर से आवृत करता है वही पर्यावरण है। प्राचीन काल से ही भारत में पर्यावरण के विविध स्वरूपों को ”देवताओं“ के समकक्ष मानकर उनकी पूजा अर्चना की जाती है। पृथ्वी को तो ”माता“ का दर्जा दिया गया है। अथर्वेद के भूमिसूक्त में कहा है, ”माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या“ अर्थात् पृथ्वी हमारी माता है एवं हम सभी देशवासी इस धरा की संतान हैं, प्रत्येक प्राणी, वनस्पति एवं प्रत्येक चैतन्ययुक्त वस्तु पर प्रकृति का बराबर स्नेह है। इसी प्रकार पर्यावरण के अनेक अन्य घटकों यथा पीपल, तुलसी, वट के वृक्षों को पवित्र मानकर पूजा जाता है। अग्नि, जल एवं वायु को भी देवता मानकर उन्हें पूजा जाता है। समुद्र, नदी को भी पूजन करने योग्य माना गया है। गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, सिंधु एवं सरस्वती आदि नदियों को पवित्र मानकर पूजा जाता है। हमें, हमारे पूर्वजों द्वारा पशु एवं पक्षियों का भी आदर करना सिखाया जाता है। इसी क्रम में गाय को भी माता कहा जाता है। प्रकृति की ओर देखने की हमारी दृष्टि कैसी हो? यजुर्वेद में कहा गया है- मित्रस्यमा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।। अर्थात्, सब मेरी ओर मित्रभाव से देखें। मैं भी प्रकृति को मित्र होकर देखूं। हम दोनों आपस में एक-दूसरे को मित्रवत देखें। पर्यावरण व प्रकृति के प्रति यह भारतीय दृष्टि यजुर्वेद में अभिव्यत हुर्ह है। भारतीय चिंतन और संस्कृति में पर्यावरण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना की मानव का अस्तित्व। ऋषि-मुनियों ने प्राकृत सत्ता में सभी प्राणियों को स्वीकार किया है और वैदिक काल से ही स्वस्थ्य रहने के लिए मानव देवों से प्रार्थना करता आया है। यथा -
वाऽम् असन् नसोः प्रायः चश्रुरक्षणोः श्रोतं कर्णयोः।
अपलिता केशा अशोणा दन्ता बहु बाहवोर्बलत्।।
अर्थात् देवों ने हमारी जो आयु निर्धारित की है उसे हम सब पूर्ण कर सकते हैं। जब मुख में वाणी हों, नासिक्य में प्राण हो, आँखों में देखने के लिए सामर्थ्य हो, कर्णेन्द्रियों में सुनने की क्षमता हो, बालों में पकने का दोष न हो, दन्त स्वच्छ और बाहुओं में बल बना रहे।
प्रकृति और पर्यावरण की यह भारतीय दृष्टि ही सबको सुखी रखने का मार्ग है। सृष्टि के विकासक्रम की वैज्ञानिक व्याख्या इस तथ्य को स्थापित करती हैं। सृष्टि में केवल जन ही नहीं हैं, उसमें जल, जंगल, जमीन और जानवर भी हैं। भारतीय चिंतकों ने इस सबकी अस्तित्व-रक्षा की भी चिंता की है, यह उपरोत वैदिक प्रार्थनाओं से ध्यान में आता है। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण को दैवतुल्य स्थान प्राप्त है। भारतीय संस्कृति में वेदों, पुराणों, धार्मिक ग्रन्थों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आदिम सभ्यता से ही प्रकृति के विविध रूपों यथा - सूर्य, चन्द्रमा, धरती, नदी, पर्वत, पीपल, गाय, बैल आदि की पूजा का विधान भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। पर्यावरण मनुष्य की जीवनदायिनी सत्ता है। भारतीय संस्कृति में भौगोलिक, खगोलीय एवं प्राकृतिक पर्यावरण की चिंता के साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के प्रति भी विशेष ध्यान दिया गया है। हमारे मूलभूत संस्कारों में, धर्म में ऐसे पवित्र विचारों को शामिल कर दिया गया है कि हम स्वतः मानसिक, वाचिक एवं कायिक सुचिता का व्यवहार करें। प्रकृति तत्वों के साथ हमने रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करके उन्हें अपने व्यक्तित्व के साथ पूरी तरह जोड़ लिया है। पर्यावरण का अर्थ है - जीवन को संरक्षण प्रदान करने वाला कवच अर्थात् हमारे चारों ओर का आवरण। पर्यावरण संरक्षण से अभिप्राय है कि हम अपने चारों ओर के आवरण को संरक्षित करें तथा उसे अनुकूल बनाए। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित है। यही कारण है कि भारतीय चिन्तन परंपरा में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है, जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है। आदिवासियों के संदर्भ में जल, जंगल, जमीन का महत्व आज भी नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। सृष्टि में प्राणी-मात्र का जीवन प्रकृति के बिना असम्भव प्रायः है। प्राकृतिक असन्तुलन के कारण बढ़ते तापमान से हिमखण्ड पिघल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग की भयावह स्थिति से पूरा विश्व आंतकित है, जिसका निवारण आज एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया है। ऋग्वेद में प्रार्थना की गई है कि वृक्ष, जल, आकाश एवं पर्यावरण की वेणीयाँ तथा वनस्पतियों से भरे पूरे वन और पर्व हमारा संरक्षण करें। ऋग्वेद में उल्लेखित है, ‘वनं आस्थाप्यध्वम्’ अर्थात् वन में वनस्पतियाँ उगाओ, वृक्षारोपण करो। वानस्पतिक संपदा के भंडार में वृद्धि करो, उसे घटाओ नहीं। यजुर्वेद के एक सूत्र में कहा गया है कि हे वनस्पति! इस धारदार कुल्हाड़े से अपने महान सौभाग्य के लिए मैंने तुम्हें काटा अवश्य है, परंतु तेरा उपयोग हम सहस्र अंकुर होते हुए करेंगे। प्राचीन ऋषि-मुनियों व महापुरुषों ने पर्यावरणीय चेतना को जन-जीवन से जोड़ दिया था। उनकी सूझ-बूझ गहन एवं व्यापक थी। संस्कृति संस्कारों का ही समुच्चय है। प्रकृति के साहचर्य में ही हमारी संस्कृति फली-फूली। हमारी संस्कृति अरण्य प्रधान रहीं है। वनों में ही उपनिषदों की रचना हुई। हिमालय योगी, मुनियों की तपोस्थली रही है। तीन प्रसिद्ध अरण्य नेमिषारण्य, दण्डकारण्य एवं पुष्करारण्य इस बात के प्रतीक हैं। गीता का यह श्लोकांश ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्...वृक्षों की पर्यावरण को संतुलित रखने की महती भूमिका को रेखांकित करने का सजीव उदाहरण है कि वृक्षों में भी जीवन है।
हमारी भारतीय संस्कृति का मूल उद्घोष एवं आदर्शवाक्य में भी हम सभी के कल्याण की बात करते है -सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दुःखभाग भवेत।। अर्थात् यहाँ सभी सुखी एवं स्वस्थ्य हों, यही कामना की गई है। समान्यतः पर्यावरण के अन्तर्गत प्रकृतिजन्य सभी तत्व- आकाश, जल, वायु, अग्नि, ऋतुएँ, पर्वत, नदियाँ, सरोवर, वृक्ष, वनस्पति, जीव-जन्तु, ग्रह, नक्षत्र, दिशाएँ एक तरह से अखिल ब्रह्माण्ड ही सम्मिलित हो जाता है। पर्यावरण की भारतीय दृष्टि में पर्यावरण संचेतना के विषय में मैंने विभिन्न प्रदूषण एवं निवारण की चर्चा की है, जिसमें वर्तमान की अपेक्षा वैदिक कालीन ऋषि-मुनियों की विचारधारा मानव हित में रहा है जो भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। वैदिक मंत्रों में उल्लेख है -ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। अर्थात् मनुष्य अपनी इच्छाओं को वश में रखकर प्रकृति से उतना ही ग्रहण करें कि उसकी पूर्णता को क्षति न पहुँचे। आज सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण तथा उसके क्षरण व प्रदूषण की चर्चा चारांे ओर है, इसके संरक्षण का उपाय भी हमारे भारतीय चिंतन में मिलता है, ऋग्वेद में कहा गया है कि -
‘स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्या चन्द्र मसाविव। पुनर्ददतोध्नता जानता संगमेमदि।।’ तथा पृथ्वीः पूः च उर्वी भव।’ अर्थात्, समग्र पृथ्वी, सम्पूर्ण परिवेश परिशुद्ध रहे, नदी, पर्वत, वन, उपवन सब स्वच्छ रहें, गाँव, नगर सबको विस्तृत और उत्तम परिसर प्राप्त हो, तभी जीवन का सम्यक् विकास हो सकेगा।
आज की आवश्यकता है कि हम अपनी परम्पराओं के प्रति निष्ठावान हों। उसको आज के संदर्भ के साथ रहकर जब हम लोगों को बतायेंगे तब जो लोकचेतना जागृत होंगी वह अंधविश्वास की कथित दीवार को ही गिराकर मनुष्य के मन में जगी हुई भौतिकता की कामना पर भी अंकुश लगायेगी। संयम, संतुलन एवं सामंजस्य के सहारे पर्यावरण की रक्षा में प्रगति सार्थक तथा स्थायी होगी। यह ध्यान रखना होगा कि सामने वाले व्यक्ति की प्रवृत्ति तथा तथ्य को समझने की क्षमता के अनुरूप ही बात को रखा जाय। हमारी बात उसे बोझिल या परिहासपूर्ण एवं उपेक्षणीय न लगे। चूँकि हमारी भारतीय संस्कृति सदैव ही ”वसुधैव कुटुम्बकम्“ का भाव लिए ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।’ की भावना से ओतप्रोत रही है अतः हमें इसी भावना के साथ पर्यावरण प्रदूषण रोकने के लिए अनवरत कार्य करते रहना चाहिए।
 
                                
                                
                                
                             
                             
                             
                             
                                



