भारतवर्ष की संत परम्परा में अनेक संतों द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक और नवजागरण का महान कार्य हर काल और परिस्थिति में स्वाभाविक परिणति रही है। मनुष्य-मनुष्य में भेद करने वाली मिथ्या दीवारों को संतों ने ही तोड़ा है। संत ही हैं जो समता, बन्धुत्व, प्रेम तथा ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन करते हैं। ये साधक हैं, सुधारक हैं और स्वभाव से संत हैं। किन्तु समझौतावादी और पलायनवादी नहीं हैं। वह सदैव हिन्दुत्व के मूलस्वर को ही बार-बार मुखरित करते रहे हैं तथा अभ्युदय के साथ सर्व कल्याण ही उनकी कामना रही है। यह लेख श्री कृष्ण गोपाल जी, सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुस्तक भारत की संत परम्परा और सामाजिक समरसता से लिया गया है।
रामानुजाचार्य: आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व, तमिलनाडु के पेरुम्बदूर नामक कस्बे में ‘श्री सम्प्रदाय’ के प्रणेता रामानुजाचार्य का जन्म हुआ था। उन्होंने उस समय की प्रचलित सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठान पद्धतियों में यथा सम्भव सुधार किया जब समय की मांग थी। सभी जाति-वर्गों के लिए सर्वाेच्च आध्यात्मिक उपासना के द्वार, लोगों की आलोचना के बावजूद उन्होंने खोल दिये। श्री रामानुजाचार्य, सामाजिक दृष्टि से वर्णव्यवस्था के अन्दर किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं करते थे। वह वृद्धावस्था में स्नान करने जाते समय दो ब्राह्मणों के कन्धों पर हाथ रखकर जाते थे और वापस आते समय दो चर्मकारों के कन्धा का सहारा लेकर आते थे। उनका मानना था कि-
न जातिः कारणं लोके गुणाः कल्याणहेतवः
अर्थात् ‘जाति नहीं, वरन् गुण ही कल्याण का कारण है। जाति के अहंकार से बड़ा मनुष्य का कोई शत्रु नहीं।’ अतः जाति का सारा अभिमान त्याग कर गुणवान् होने का प्रयास करो। मनुष्य-मनुष्य को समान मानने के उनके इस मानवीय गुण की स्वामी विवेकानन्द ने हृदय से प्रशंसा की है।
स्वामी रामानंदाचार्य: उत्तर भारत में चौदहवीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा तलवार के बल पर बलात धर्म परिवर्तन चरम पर था। अपनी रक्षा के लिए हिन्दुओं को जजिया देना पड़ता था। हिन्दुओं के धार्मिक उत्सव बन्द थे। मुस्लिम बादशाहों ने नये मन्दिरों का निर्माण तथा पुराने की मरम्मत पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया था। सिकन्दर लोदी के समय तो हिन्दुओं पर अत्याचार करने का आन्दोलन सा चल पड़ा था। लोदी ने समस्त मन्दिरों को तुड़वा देने की आज्ञा दे रखी थी। ऐसी परिस्थितियों में स्वामी रामानन्दजी का प्रादुर्भाव हुआ और यह घटना भारतीय इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। उन्होंने सम्पूर्ण मानवता, देश तथा हिन्दू समाज की रक्षा करने के लिए जीवन पर्यन्त विरक्त रहना ही स्वीकार किया। सैकड़ों साधु-महात्माओं तथा काशी के विद्वानों को साथ लेकर भक्ति जागरण, लोक संस्कार तथा सामाजिक एकता के महत्कार्य में जुट गए। स्वामी रामानन्द ने जातिगत ऊंच-नीच की भावना को धर्म के विरुद्ध घोषित कर दिया। उन्होंने सभी जातियों के अन्दर पच्चीस हजार शिष्यों की व्यापक शिष्य परम्परा भी खड़ी की। सभी जातियों के लोगों को एक ही ‘राम मन्त्र’ देकर दीक्षा दी तथा भक्ति के द्वारा समाज परिवर्तन का नया युग प्रारम्भ कर दिया। उनके शिष्यों में संत पीपा (क्षत्रिय), संत कबीर (जुलाहा), संत सेन (नाई), संत धन्ना (जाट), भक्त रैदास (चर्मकार) तथा पद्मावती और सुरसरि नामक स्त्रियाँ भी थीं। गंगा नाम की एक वेश्या को भी उन्होंने शिष्या बनाया। उनका यह मत था कि ईश्वरभक्ति में सभी मनुष्य समान हैं। इसके बाद समूचे राष्ट्र में अध्यात्म के जरिए समरसता और एकजुटता की लहर चल पड़ी। हर प्रांत, क्षेत्र में और हर जाति वर्ग में समरसता के अनेक संतों ने अपना जीवन राष्ट्र की समरसता को समर्पति कर दिया। इसी क्रम में पिछड़ी जातियों में नवजागरण का धार्मिक स्वरूप दक्षिण के बारह आलवार वैष्णव भक्तों में अनेक तथाकथित निम्नवर्ग के थे। महाराष्ट्र के संतों में संत गोरा और संत राका (कुम्हार), संत नामदेव (दर्जी), संत सावता (माली), संत नरहरि (सुनार), संत जोगा (तेली), संत श्यामा (चूड़ीवाला), संत बंका और संत चोखा (महार) तथा संत कान्होंपात्रा (वेश्या पुत्री) थीं। कश्मीर की संत लल्ला मेहतर जाति की थीं। हिन्दी के निर्गुणी संतों में संत सिंगाजी (ग्वाला), संत दादू (धुनियां), संत वषना (मीरासी), संत बुल्लासाहब (कुर्मी), संत दीन (दरवेश), संत रज्जब (लोहार), संत दरिया साहब (मारवाड़वाले धुनियाँ), संत दरिया साहब (बिहार वाले दर्जी), संत लालगिरि (चर्मकार), गुजरात के संत अखा (सुनार) थे। आन्ध्र की मोल्ला (कुम्हारिन) तथा वीरब्रह्मेन्द्र स्वामी (बढ़ई) आदि इन्हीं वर्गों के प्रतिनिधि थे। इन सभी ने डंके की चोट पर कहा कि मनुष्य की जाति एक होती है, सभी मनुष्य ईश्वर की संतान हैं और यह भेदभाव मनुष्यजन्य एवं कृत्रिम है। इन संतों को वैदिक जीवन-मूल्यों में पूरा विश्वास था।
उत्तर प्रदेश: उत्तर प्रदेश में ‘संत एवं भक्त परम्परा का प्रवाह’ तेरहवीं शताब्दी में स्वामी रामानन्द से माना जाता है। यह ऋंखला लंबी रही है। इस्लाम के व्यापक आतंक के बावजूद भक्ति के द्वारा समाज जागरण के प्रयास जारी रहे। संतों ने सभी जातियों को साथ लेकर घूम-घूम कर व्यापक समाज जागरण किया तथा प्रेम और मानवीय समानता का शाश्वत सन्देश भी दिया।
संत रैदास: संत रैदास का जन्म वाराणसी के एक चर्मकार परिवार में हुआ था। अपनी आध्यात्मिक-साधना, चरित्रबल तथा विनयशील स्वभाव के कारण लाखों लोग, उनके जीवनकाल में ही शिष्य हो गए। उन्होंने ईश्वरभक्ति का व्यापक साहित्य लिखा, किन्तु अपने पारिवारिक कार्य (जूता बनाने) को लेकर उनको कोई ग्लानि नहीं थी। भक्त रैदास कहते हैं कि सभी का प्रभु एक है तो यह जातिभेद जन्म से क्यों आ गया? यह मिथ्या है। भेदभाव की व्यवस्था को अपनी वाणियों में बहुत ही सहज ढंग से व्यक्त किया और लोगों को समझाया कि जन्मना कोई श्रेष्ठ या छोटा नहीं होता।
संत मलूकदास: मलूकदास जी का जन्म कड़ा (प्रयागराज) में हुआ था। जब प्लेग की महामारी फैली तो मलूक दास ने बिना किसी भेदभाव के हर जाति के बीमार व्यक्ति की सेवा की। हिन्दुओं पर अपने जीवन की रक्षा के लिए लगे जजिया तथा मथुरा, गोकुल, काशी, द्वारिका, रणछोर, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, नगरकोट तथा अन्य मन्दिरों में ध्वंस का मार्मिक वर्णन भी संत मलूकदास ने किया है। संत मलूकदास का कहना था कि गरीबों की सेवा सबसे पुनीत कार्य है।
मधुसूदन सरस्वती: काशी में प्रसिद्ध संन्यासी मधुसूदन सरस्वती की आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रचण्ड प्रतिष्ठा थी। भक्तिभाव से परिपूर्ण ‘अद्वैत सिद्ध’ नामक ग्रन्थ की रचना की। उस समय शासन में हिन्दू साधु-संन्यासियों की हत्या कर दी जाती थी। काशी जैसे धार्मिक क्षेत्र में सैकड़ों संन्यासियों की हत्या कर दी गई। ऐसे में हिन्दुओं की रक्षा के लिए मधुसूदन सरस्वती ने हिन्दू संन्यासियों को शस्त्र शिक्षा देने का निर्णय लिया तथा हजारों नागा संन्यासियों की शस्त्र-सज्जित टोलियां खड़ी कर दीं। स्थान-स्थान पर यह नागा संन्यासी अखाड़ों में शस्त्र संचालन सीख कर हिन्दू समाज की रक्षा के लिए खड़े हो गए। उनके सशस्त्र आह्वान के कारण अयोध्या, मथुरा, काशी जैसे तीर्थस्थलों पर अखाड़े, गढ़ी, छावनी आदि बनाकर सशस्त्र नागा संन्यासियों तथा वैष्णव वैरागियों की टुकड़ियां रहने लगीं। मधुसूदन सरस्वती ने हजारों युद्ध कुशल क्षत्रियों को संन्यास दीक्षा लेकर बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी की रक्षा के लिए सन्नद्ध थे।
संत आपा साहब: संत आपा साहब का जन्म सीतापुर जिले की बिसवां तहसील में एक स्वर्णकार परिवार में हुआ था। ऐतिहासिक दृष्टि से उस समय जहांगीर तथा शाहजहां का शासन चल रहा था। ऐसी कठिन परिस्थितियों में संत आपा साहब ने अपनी निर्द्वन्द्व-निर्भीक वाणी से सामाजिक-धार्मिक, कुरीतियों, जातिगत विषमताओं एवं विद्रूपताओं पर आघात कर सबको एकसाथ रहने के लिए प्रेरित किया।
पंजाब में समरसता के अग्रदूत: पंजाब की धरती ने इस्लाम के इन अत्याचारों को और अधिक सहन न करने का संकल्प किया। इसमें अनके महान संतों का अप्रतिम योगदान है।
संत शादाराम साहेब: भारत का सिन्ध क्षेत्र सबसे पहले मुसलमानों के नियन्त्रण में आ गया था। मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से अस्सी प्रतिशत से भी अधिक हिन्दू मुसलमान बना दिए गए थे। जो शेष बचे थे उन पर भी आतंक बना रहता था। इसी विपदाकाल में संत शादाराम साहेब तारणहार बनकर उभरे। उन्होंने कहा कि गृहस्थ आश्रम में रहकर भी गरीबों की सहायता की जा सकती है। वे कहते थे कि हम सभी एक ईश्वर के पुत्र हैं सो सब भाई-भाई हैं। कोई भी उत्तम या कम नहीं।
संत लल्लेश्वरी: संत लल्लेश्वरी कश्मीर की रहने वाली ढेढ़वा जाति की मेहतर महिला थीं। वे शैवमत में दीक्षित थीं। संत लल्ला अपनी रचनाओं में लिखा कि परमेश्वर निराकार है और उसे अपने अन्दर खोजें। धर्म का बाह्याडम्बर व्यर्थ है। इसिलए सभा मनुष्य बराबर हैं।
संत मौलाराम: मध्यकाल में हिमालय क्षेत्र के संत मौलाराम प्रसिद्ध कवि एवं चित्रकार भी थे। मौलाराम ने ‘मनमथ पंथ’ चलाया। उन्होंने गृहस्थ धर्म का पालन किया तथा नैतिक जीवन की श्रेष्ठता पर बल दिया। अपने अनुयायियों में उन्होंने जातिगत भेदभाव को कोई स्थान नहीं दिया।
संत शशिधर: संत शशिधर गढ़वाल के एक प्रमुख संत रहे हैं। उन्होंने भगवान् कृष्ण को अपना उपास्य माना। इनकी साधना में प्रेम तथा योग का अद्भुत समन्वय था तथा मन पर नियंत्रण करना सभी के लिए आवश्यक है। सामाजिक समरसता के लिए आजीवन समर्पित रहे।
हरियाणा के संतों की भूमिका: प्राचीन काल से ही हरियाणा, धर्म-दर्शन तथा आध्यात्मिक साधना की स्थली रहा है। वर्तमान में विलुप्त भूगर्भा महान् सरस्वती नदी का प्रवाह इसी क्षेत्र में होकर जाता था। इस कारण वैदिक अध्ययन का क्षेत्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, अरण्यक तथा उपनिषदों की रचना इसी पुण्यभूमि पर हुई है। गीता का उपदेश भी श्रीकृष्ण ने इसी भूमि पर दिया था। सिद्धों तथा नाथों की कर्मभूमि रही है। स्वामी रामानन्द के प्रसिद्ध शिष्य संत धन्ना जाट यहीं के थे। संत दादू के शिष्य ऊदादास, गरीबदास तथा सिक्खों के अनेक सम्प्रदायों के साथ-साथ राधास्वामी सम्प्रदाय, नितानन्दी परम्परा, घीसापंथ, बेनामी संतों की परम्परा, समतापंथ, परमानन्दी परम्परा आदि के रूप में अनेक निर्गुणमार्गी संत इस क्षेत्र से जुड़े थे।
संत चरणदास: संत चरणदास निर्गुण साधना पद्धति में एक ख्यातिनाम संत हैं। उन्नीस वर्ष की आयु में दिल्ली आकर एक गुफा बनाकर चौदह वर्षों तक योग साधना करते रहे। साधना पूर्ण होने के पश्चात् उन्होंने सामाजिक तथा आध्यात्मिक एकता के लिए लोगों को प्रेरित किया। दीन-दुखियों की सेवा तथा समाज की बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास भी उन्होंने जीवन भर किया।
राजस्थान के संतों की साधना राजस्थान की भूमि निर्गुण तथा सगुणमार्गी संतों की प्रमुख साधना-स्थली रही है। मेड़ता में जन्मी कालजयी भक्तिन मीरा, मेवाड़ की ही थीं। वहीं संत दादू दयाल (आमेर, जयपुर), संत रज्जब (साँगानेर), संत दरिया साहब (मारवाड़), पीपाजी (गागरौन), बाबा रामदेव (मारवाड़), संत सुन्दर दास छोटे (जयपुर) तथा संत हरिराम दास बीकानेर के थे। ऐसे ही अनेक संतों तथा भक्तों ने राजस्थान की इस वीरभूमि को भगवद्भक्ति से सराबोर कर भक्ति-साधना के सहारे सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध सतत संघर्ष जारी रखा। इसी तरह राजस्थानी संत महिलाओं की सामाजिक चेतना मीराबाई की भक्ति एवं साहित्य साधना राजस्थान की सीमाओं को लांधकर सम्पूर्ण देश में व्याप्त हो गयी। जातिगत भेदभाव तथा छुआछूत आदि को भुलाकर ईश्वर - भक्ति एवं सच्चे मानव धर्म का पाठ पढ़ाने में ये संत कवयित्रियां संत पुरुषों से कहीं भी पीछे नहीं थीं। इनमें सहजोबाई, दयाबाई, सोढ़ीनाथी, फूलीबाई, समानबाई, गवरीबाई, रानाबाई, आंभाबाई, स्वरूपाबाई तथा सुखीदेवी आदि का योगदान अद्वित्तीय है।
संत धन्ना: काशी के विख्यात स्वामी रामानन्द की शिष्य परम्परा में धन्ना का जन्म राजस्थान की जाट बिरादरी में हुआ था। संत धन्ना द्वारा रचित चार शब्द ‘श्री गुरु ग्रन्थसाहिब’ में हैं तथा इनका ‘आरता’ बहुत प्रसिद्ध रचना है। उन्होंने समाज के सभी वर्गों में उपजे भेदभाव को मिटाने के लिए अपने आचरणों, उपदेशों और ग्रंथों का अनुपम उपहार दिया है।
संत रामदास: संत रामदास का जन्म जोधपुर राज्य में हुआ। कुल परम्परा से वे मेघवाल जाति के थे और परिवार में मोची का काम होता था। शुरू में ‘राममन्त्र’ की दीक्षा लेने के कारण उनका नाम रामदास पड़ा। इनके द्वारा लिखित अट्ठाईस ग्रन्थ उपलब्ध हैं। वे वर्णव्यवस्था, छुआछूत, ऊंच-नीच की भावना का जमकर विरोध करते थे। उन्होंने धर्म के नाम पर सभी प्रकार के अन्धविश्वास और पाखण्डों की भर्त्सना की। साथ ही धर्म के नाम पर चल रहे सभी प्रकार के अन्धविश्वास और पाखण्डों पर प्रहार किया।
महर्षि नवल महाराज: राजस्थान के नागौर जिले में वाल्मीकि कुल में जन्में नवल महाराज ने कुछ वर्षों तक आध्यात्मिक साधना करने के पश्चात् अपने समाज के उत्थान का संकल्प उनके मन में जगा। एक लम्बे समय तक समाजोत्थान तथा धार्मिक-भाव को जगाते हुए, सामाजिक रूढ़ियों को ध्वस्त करते रहे।
गुजरात में समरसता का प्रकाश गुजरात में जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर भक्ति-भाव जगाने वालों में सिद्ध, नाथ, भक्त तथा संत चारों की ही प्रभावी भूमिका रही है। इसमें नरसी मेहता, संत मूलदास, संत अखा, संत मेकण, गुजराती में रामायण लिखने वाले भक्त गिरधर, स्वामी सहजानन्द, स्वामी मुक्तानन्द, स्वामी दयानन्द, समरसता की गंगा प्रवाहित करने वाली गंगाबाई और पानबाई आदि ने भी समाज को योगदान दिया।
भक्तिनिधि लीरलबाई: भक्तिनिधि लीरलबाई का जन्म चौदहवीं शताब्दी में एक लुहार परिवार में हुआ था। लीरलबाई ने अनेक ग्रन्थों की रचना की। वे कहती हैं कि मनुष्य का देह ब्रह्माण्ड की छोटी-सी आवृत्ति है। अतः उसे पिण्ड कहते हैं। इसलिए सभी मनुष्य समान हैं और उनमें कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
भगत नरसी मेहता: गुजरात के जूनागढ़ में नरसी भगत का जन्म हुआ था। नरसी भगत ने कृष्णभक्ति का गुजरात में व्यापक प्रचार किया। गुजराती भाषा में साहित्य रचना करके भक्ति गीतों द्वारा सामान्य जन को भक्ति के प्रवाह में जोड़ा। भक्त नरसी मेहता की गणना गुजरात क्षेत्र के आदि भक्त कवियों में की जाती है।
संत जनाबाई: महिला संतों में जनाबाई का नाम प्रमुख है। संत जनाबाई का जन्म महाराष्ट्र में गोदावरी के किनारे बसे गांव ‘गंगाखेड़’ में हुआ था। वर्तमान में संत जनाबाई के लगभग तीन सौ पचास अभंग प्राप्त हैं। वनवासी क्षेत्र के श्री गहिरा गुरु ने वनवासियों में धार्मिक जागरण कर पिछड़े हुए लोगों को समाज में सभी के साथ खड़ा करने के लिए भक्ति-जागरण एवं समाज सुधार के कार्यक्रम में ऐतिहासिक योगदान दिया।
संत घासीदास: इनका जन्म रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ था। सतनामी सम्प्रदाय की छत्तीसगढ़ शाखा (बिलासपुर) के प्रमुख संत माने जाते हैं। संत घासीदास जाति के चर्मकार थे। आज देश भर में सतनामियों के लगभग अस्सी लाख अनुयायी हैं। इनके चार भाइयों ने ईसाई मत स्वीकार कर लिया था, इस कारण संत घासीदास बहुत दुःखी हो गए। संत घासीदास को यह बात ध्यान में थी कि सामाजिक भेदभाव समाप्त होना चाहिए अन्यथा हिन्दू समाज गंभीर संकट में पड़ जाएगा। संत घासीदास के नेतृत्व में वंचित जातियों के लाखों लोगों ने खोई हुई अस्मिता को पुनः प्राप्त किया।
स्वामी स्वरूपानन्द परमहंस देव त्रिपुरा में स्वामी स्वरूपानन्द का जन्म कोमिल्ला जिला (आज बांग्लादेश) के चन्दपुर नामक ग्राम में हुआ था। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन गरीब, पिछड़े, अशिक्षित लोगों के उत्थान हेतु लगा दिया। मानव-मानव में भेद करने वाली सभी मान्यताओं को नकार कर प्राचीन भारत की श्रेष्ठ बातों के प्रचार- प्रसार में वह लगे रहे। उनकी रचनाओं में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के आह्वान के साथ-साथ गौरक्षा, उन्नत कृषि, जीवन में अनुशासन, जीवनमूल्य, देशभक्ति, संस्कृत अध्ययन, सामाजिक संगठन तथा श्रम के महत्व जैसे विषयों पर आग्रह रहता था।
श्री तालोम रुकबो: अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट जिले में जन्मे तालोम रुकबो ने वहां की जन-जातियों में धार्मिक रूप से एक अनोखी जागृति लायी। अरुणाचल की जन-जातियां सैकड़ों वर्षों से हिन्दू धर्मावलम्बियों की तरह ही सूर्य, चन्द्र की उपासना करती थीं, किन्तु मन्दिर, पूजा पद्धति आदि का कोई व्यवस्थित स्वरूप वहां नहीं था। इस कारण ईसाई लोग उनको बहला-फुसलाकर ईसाई बनाने के कार्य में लगे थे। उन्होंने इस खतरे को भली प्रकार भांप लिया। उन्होंने अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को महत्व देते हुए सबको मिलकर अपने सांस्कृतिक त्यौहार मनाने का आह्वान किया और कहा कि इसी से एकता और संगठन को बल मिलेगा। अरुणाचल प्रदेश के प्रसिद्ध सोलुंग त्यौहार को सरकारी गजट में लाने तथा सार्वजनिक अवकाश घोषित कराने का श्रेय भी रुकबो जी को ही जाता है। उन्होंने हमेशा अपने धर्म को महत्व दिया एवं पुराने लोकगीतों, कथाओं आदि का परम्परागत रूप से पालन करवाया।
महान् कवयित्री मोल्ला: लोकभाषा तेलुगु में रामकाव्य की रचना करने वाली आतुकूरी मोल्ला तेलुगु साहित्य की प्रथम कवयित्री कही जाती हैं। वे आजीवन ब्रह्मचारिणी रहीं तथा जाति से कुम्हारिन थीं। उनका कहना है कि ‘बड़े विद्वान् एवं पण्डित ही नहीं अपितु विद्या-विहीन व्यक्ति भी भगवान् का गुणगान कर सकता है’।
संत वेमना-आन्ध्र के कबीर: संत वेमना के काल के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विचार हैं, किन्तु उनकी विलक्षण प्रतिभा के बारे में सभी एक मत हैं। उन्होंने अपना सारा धन परोपकार के कार्यों में ही लगा दिया और वे स्वयं निर्धन हो गए तथा निर्वस्त्र होकर जंगल में रहने लगे।
कन्दकूरि वीरेश लिंगम पन्तुलु कन्दकूरि वीरेश लिंगम पन्तुलु का जन्म राजमुन्दरी में हुआ था। वे प्रसिद्ध साहित्यकार थे। उनका सारा जीवन समाज में नवजागरण के लिए समर्पित था। तेलुगु साहित्य में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विषयों पर पन्तुलु ने पर्याप्त लिखा है। समाज परिवर्तन की दृष्टि से उन्होंने ‘राजशेखर चरित्रम्’ नामक श्रेष्ठ उपन्यास लिखा है। साहित्य रचना के द्वारा उन्होंने सामाजिक भेदभाव, अस्पृश्यता, बाल विवाह, शिक्षा आदि के सम्बन्ध में समाज को जागृत करने का स्तुत्य प्रयास किया।