संघ शताब्दी वर्ष: सांस्कृतिक पुनर्जागरण का नूतन पर्व
शुद्ध सात्विक प्रेम एवं एकात्म भाव संघ कार्य का आधार है। आत्मीयता से पल्लवित और पुष्पित परंपरा पर चलता हुआ, लाखों करोड़ों लोगों में देशभक्ति एवं देश प्रेम का भाव जगा रहा है, चुन-चुन कर उन्हें राष्ट्र के नवोत्थान में लगा रहा है। वर्तमान समय में जहाँ विश्व क्षेत्रवाद, भाषावाद और नस्लवाद से जूझ रहा है वहीं संघ समरसता का भाव जगाकर, सभी प्रकार के भेद मिटाता हुआ समस्त विश्व को एकात्म भाव का सन्देश दे रहा है। 1925 की विजयदशमी को मुट्ठीभर सदस्यों से प्रारंभ हुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अनेक संकटों, प्रतिबंधों और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करता हुआ आज एक विराट स्वरुप ग्रहण कर चुका है। राष्ट्र सर्वाेपरि के संकल्प से पोषित होकर संघ आगामी विजयदशमी पर अपने 100 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, यानी संघ अब 100 वर्ष का हो जाएगा। अपनी इन 100 वर्षों की यात्रा को स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष के रूप में बड़े उत्साह के साथ मनाने की तैयारी कर रहे हैं। लाखों स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं को इसके लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है, जिनके माध्यम से संघ समाज के सभी वर्गों के अंतिम व्यक्ति के घर-घर जाकर अपने संदेश को पहुंचाने की तैयारी कर रहा है। संघ कार्यकर्ताओं के साथ ही जन-जागरण के माध्यम से लाखों भारतीयों को इस कार्य में लगाने की योजना बना रहा है। उसके प्रत्येक कार्यकर्ता में उत्साह है, उमंग है, वह गर्व से कह रहा है कि आज मैं विश्व के सबसे बड़े सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन का सदस्य हूं। प्रत्येक स्वयंसेवक तन मन धन समर्पित कर अपने संगठन की शताब्दी वर्ष को कार्य विस्तार के संकल्प के साथ उत्साहपूर्वक मनाने के लिए तैयार हो रहा है।
आज राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी विश्व के सबसे बड़े अनुशासित संगठन की गतिविधियों की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। आखिर इस संगठन की कार्य पद्धति में ऐसा क्या है कि पिछले 99 वर्षों में अनगिनत बाधाओं को पार कर आज भी संघ अपने यौवन और शक्ति के साथ दृढ़ता से राष्ट्रनिर्माण में जुटा है? स्वतंत्रता से पूर्व एवं बाद में अनेक संगठन बने, बढ़े, और विकसित हुए परन्तु समय के साथ समाप्त हो गए पर संघ आज बीज से वृक्ष बनकर देश की प्रगति में अपनी अग्रणी भूमिका निभा रहा है। ऐसे में इस संगठन की रीति-नीति, परंपरा, कार्य पद्धति आदि पर न केवल विश्लेषण की आवश्यकता है अपितु गहन शोध और अध्ययन की भी आवश्यकता है। इस संदर्भ में संघ की इस लंबी यात्रा के कुछ पड़ावों पर दृष्टि डालना उचित होगा। संघ संस्थापक युगदृष्टा क्रांतिकारी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने संघ को देश की राष्ट्रीय आवश्यकता कहा था। उन्होंने कोलकाता में क्रांतिकारियो के साथ और नागपुर में रहते हुए कांग्रेस के साथ काम किया, पर संघ स्थापना के बाद उन्होंने अपनी पूरी शक्ति संगठन के लिए लगा दी। इसीलिए पहले 50 साल संघ ने केवल संगठन किया। सुप्रसिद्ध विचारक एवं वरिष्ठ संघ प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी इसे ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ कहते थे। इसके बल पर ही संघ ने हर संकट का सामना किया। इस पहले दौर में स्वयंसेवकों ने समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुडी अनेक संस्थाएं बनाई। इनमें नारी उत्थान के क्षेत्र में संघ प्रेरणा से 1936 में राष्ट्र सेविका समिति स्थापित हुई, विद्यार्थीयों के मध्य अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद 1949 में, वनवासी व जनजातीय क्षेत्र में बनवासी कल्याण आश्रम 1952 में, भारतीय मजदूर संघ 1955 में, विश्व हिंदू परिषद 1964 में, भारतीय जन संघ 1951 में (बाद में भारतीय जनता पार्टी 1980) और सरस्वती शिशु मंदिर/विद्या भारती 1952 में स्थापित हुई प्रमुख संस्थाएं हैं।
संघ पर 1932 और 1940 में अंग्रेजी शासन ने आंशिक प्रतिबंध लगाए, पर वे ज्यादा नहीं टिके। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर स्वतंत्र भारत की सरकार ने गांधी हत्या का मिथ्या आरोप लगाकर प्रतिबंध लगाया। जो न्यायालय में निर्मूल सिद्ध हुआ। वास्तव में गांधी जी की हत्या का बहाना लेकर यह संघ की बढती शक्ति को कुचलने का एक राजनीतिक षड्यंत्र था। प्रचार माध्यम सरकार के पास थे, संघ के पास अपनी बात कहने का कोई साधन नहीं था। फिर भी संघ ने अपने सत्याग्रह से सरकार को झुका दिया और संघ पहले से भी अधिक शक्ति के साथ आगे बढ़ने लगा। हजारों समर्पित कार्यकर्ताओं की निष्ठापूर्ण सक्रियता से शाखा के साथ ही समवैचारिक संगठनों का विस्तार और प्रभाव भी बढ़ने लगा। इसलिए जब 1975 में सत्ता के मद में चूर तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित करके संघ पर प्रतिबंध लगाया, तो संघ ने लोकतंत्र की इस हत्या के विरुद्ध कमर कस ली। इस बार जनता भी संघ के साथ खड़ी थी। लोकतंत्र की रक्षा के लिए आम जनता ने इस जनांदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ के हजारों स्वयंसेवकों ने जेलों में अमानवीय यातनाएँ सही, किन्तु उनका संकल्प नहीं डगमगाया। थक हारकर सरकार को आपातकाल वापस लेना पड़ा। और चुनाव में जनता का आक्रोश फूट पड़ा इंदिरा गांधी की इस चुनाव में शर्मनाक हार हुई, यह लोकतंत्र की जीत थी। समाज में बढ़ती स्वीकार्यता का संबल लेकर संघ ने संगठन का विविध क्षेत्रों में विस्तार किया तथा स्वयंसेवकों ने अनेक नई संस्थाएं बनाई। 1992 में बाबरी ढाँचे के विध्वंस के बाद सरकार ने पुनः संघ पर प्रतिबंध लगाया, जिसे न्यायालय ने ही खारिज कर दिया। 1975 और 1992 के प्रतिबंधों से संघ के संगठन और प्रभाव में वृद्धि ही हुई है। आज वैश्विक पटल पर संघ का नाम सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के रूप में अंकित है।
साल 1977 के बाद के समय को हम संघ का दूसरा कालखंड कह सकते हैं। इस समय संघ ने अनुभव किया कि समाज के निर्धन वर्ग को सबसे अधिक सेवा की आवश्यकता है, उनकी पहली जरूरत रोटी, कपड़ा और मकान है। इस कारण लोग लालच में आकर मतान्तरण (कन्वर्जन) तक कर लेते हैं। मीनाक्षीपुरम धर्मांतरण कांड इसका सबसे बड़ा और चर्चित उदाहरण था। इसीलिए समाज के अपने ऐसे वंचित बन्धु-बांधवों की सेवा के लिए इस क्षेत्र में प्रवेश किया गया। 1989 में डॉ. हेडगेवार की जन्म शताब्दी पर देश भर से सेवा निधि एकत्र कर हजारों पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाए गए। निर्धन बस्तियों को सेवा बस्ती नाम देकर उनमें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के छोटे-छोटे प्रकल्प शुरू किए गए। आज ऐसे प्रकल्पों की संख्या डेढ़ लाख से भी अधिक है। भारत के पूर्वाेत्तर के राज्यों में इन कार्यों का स्पष्ट परिणाम दिखाई दे रहा है। आज संगठन द्वारा सैंकड़ों बड़े प्रकल्प भी संचालित किये जा रहे हैं, पर मुख्य ध्यान छोटी इकाइयों पर है। केवल संघ ही नहीं आज सभी समवैचारिक संस्थाएं सेवा कार्य में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं।
1947 में देश विभाजन एक बड़ी चुनौती थी। इस दौरान पंजाब और सिंध में संघ ने सीमित शक्ति के बावजूद लाखों हिंदुओं की रक्षा की, महिलाओं की लाज बचाई और उनका पुनर्स्थापन किया। बंगाल में शक्ति कम होने से यह कार्य प्रभावी ढंग से नहीं हो सका। 1950 में संघ से प्रतिबंध हटने पर कुछ लोगों का विचार था कि निर्दाेष होते हुए भी संसद या किसी विधानसभा में कोई हमारे पक्ष में नहीं बोला अतः हमें शाखा छोड़कर केवल राजनीति करनी चाहिए। तत्कालीन सरसंघचालक पूज्य श्री गुरु जी ने कहा कि राजनीति जरूरी होते हुए भी सब कुछ नहीं है। यद्यपि संघ ने राजनीति में कई कार्यकर्ताओं को भेजा और यह क्रम आज भी जारी है। हिंदुत्व के मूल्यों पर बनी पार्टी में उन कार्यकर्ताओं ने खूब सहयोग किया और आज भी कर रहे हैं। 1968 में दीनदयाल उपाध्याय जी का निधन हो गया अतः भारतीय जनसंघ के कार्यकर्ता, अटल बिहारी वाजपेयी को नेतृत्व में लाना चाहते थे। इससे रूष्ट होकर श्री बलराज मधोक ने पार्टी छोड़ दी पर वे जल्दी ही समझ गए कि कुछ लोग कुछ समय के लिए कोई संस्था तो चला सकते हैं पर संगठन नहीं।अतः वे क्रोध को भुलाकर फिर से संघ कार्य में सक्रिय हो गये। संघ में व्यक्ति नहीं संगठन महत्वपूर्ण है। ऐसी ही एक चुनौती 2018 में विश्व हिंदू परिषद में आई और एक प्रभावी कार्यकर्ता ने अपनी नई संस्था बना ली। यहां भी टकराव व्यक्ति और संगठन में ही था। किन्तु संघ में व्यक्तिनिष्ठा नहीं अपितु समाज निष्ठा, राष्ट्र निष्ठा और संगठन के प्रति समर्पण ही सर्वाेपरि है। यही कारण है कि जहाँ संघ स्थापना के आस-पास पनपे अनेक संगठन आज दम तोड़ चुके हैं वहीं संघ अपनी गरिमा के साथ उदयमान और प्राणों से स्पंदित है।
50 साल संगठन और 50 साल विस्तार के बाद अब संघ समाज परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है। जहां संघ का काम काफी समय से चल रहा है, वहां परिवार प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी और स्थानीय वस्तुओं का प्रयोग, सामाजिक समरसता, एक मंदिर एक शमशान, एक जल स्रोत, एक नागरिक कानून के पालन आदि का आग्रह किया जा रहा है। संघ के प्रयास से संपूर्ण समाज में भी निःसंदेह सुधार होगा। इस दिशा में अनेकों संस्थाएं और अच्छे लोग काम कर रहे हैं और संघ उन्हें भी साथ लेकर सम्मान और श्रेय देता है। इस अविराम यात्रा में अभी बहुत काम शेष है। निःसंदेह अगले कुछ वर्षों में करोड़ों जन भारत माता की जय बोलेंगे तथा भारत के विश्व गुरु बनने का सपना साकार होगा। इसी क्रम में इस साल विजयदशमी से शुरू हो रहे शताब्दी वर्ष में संघ घर-घर संपर्क, हिंदू सम्मेलन, नागरिक गोष्ठियां और सामाजिक सद्भाव बैठकें जैसे चार बड़े अभियानों के जरिए पूरे देश में अलख जगायेगा।
इन कार्यक्रमों का उद्देश्य देश में राष्ट्रवाद की अलख जगाना, संघ के हिंदुत्व संबंधी विचार को घर-घर पहुंचाना और बहुसंख्यकों में सामाजिक सद्भाव कायम करना होगा। संघ इस दौरान हर मंडल और बस्ती में हिंदू सम्मेलन करेगा। गत दिनों दिल्ली स्थित केशव कुंज में संपन्न हुई तीन दिवसीय अखिल भारतीय प्रांत प्रचारक बैठक में शताब्दी वर्ष के आयोजनों का खाका तैयार किया गया। इस बैठक में शताब्दी वर्ष की कार्य योजना, संघ के कार्य विस्तार और विभिन्न प्रांतो की परिस्थितियों पर सिलसिलेबार विस्तृत चर्चा हुई। इस क्रम में शताब्दी वर्ष के दौरान किए जाने वाले कार्यों का ताना-बाना बुना गया। इसके जरिए संघ की कोशिश भौगोलिक और सामाजिक दृष्टि से सभी वर्गों, सभी क्षेत्रों तक संपर्क साधने की होगी। शताब्दी वर्ष में संघ 58,964 मंडलों व 44,055 बस्तियों में हिंदू सम्मेलन करेगा इसके अलावा हर तहसील व नगर में 11,960 सामाजिक सद्भाव बैठकें करके सभी 924 जिलों में नागरिक गोष्ठियों, घर-घर संपर्क के तहत देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों से सीधा संपर्क करने वाला है। सद्भाव बैठकों में धर्म जागरण द्वारा सामाजिक बुराइयां दूर करने की बात होगी। बीते करीब एक दशक से संघ के कार्य का तेजी से विस्तार हो रहा है जो देश के भविष्य के लिए सुखद है। संघ समाज का संगठन कर इस भारत राष्ट्र को सशक्त, समर्थ और वैभव सम्पन्न बनाने को कृतसंकल्पित है और प्रत्येक स्वयंसेवक मन में यही दृढ निश्चय कर ध्येय पथ पर अग्रसर है।