देहरादून, उत्तराखण्ड
संस्कृत सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता है, जीवन जीने की शैली है। संस्कृत सभी दूसरी भाषाओं की जननी भी है। परन्तु वर्तमान में संस्कृत भाषा ही विलुप्त होने लगी। फिर से संस्कृत को संवाद की भाषा बनाने के लिए सहारनीय प्रयास किए जा रहे हैं।
इसी दिशा में उत्तराखंड सरकार प्रदेश के सभी जिलों में एक-एक संस्कृत ग्राम स्थापित कर रही है। इस गाँवों में भारतीय आदर्शों को स्थापित किया जाएगा। ग्रामीण देववाणी संस्कृत को आत्मसात कर आपसी संवाद से लेकर सभी कामकाज संस्कृत में कर सकेंगे। सनातन संस्कृति के अनुरूप विभिन्न संस्कारों के अवसर पर वेद, पुराणों और उपनिषदों का पाठ किया जाएगा।
संस्कृति के केंद्र विकसित करना लक्ष्य
इस योजना के माध्यम से संस्कृत का संरक्षण, सद्भावना निर्माण, नारी सम्मान के अभिवर्धन, चरित्र निर्माण, अपराध प्रवृत्ति रोकने, नशामुक्त समाज बनाने को लेकर भी काम किया जाएगा। संस्कृत ग्राम से राज्य की संस्कृति, संस्कार और ज्ञान विज्ञान का प्रचार-प्रसार का लक्ष्य रखा गया है।
संस्कृत एक ऐसी भाषा है जो हमारी भावनाओं को विकसित करती है। भारतियों के स्व की पहचान है।
भारत की ताकत उसका स्वत्व है यानी कि आत्मनिर्भरता द्वारा स्वामित्व की भावना। भारत को पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए इसी स्व को न मात्र पहचानने की आवश्यकता है बल्कि उसे जीवन शैली में अपनाना होगा। स्वबल मजबूत करने के लिए हमें अपनी बुद्धि और ज्ञान का विकास करना होगा। इसी ज्ञान को परिष्कृत करने के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जोर दे रहे हैं। सीएम धामी का कहना है कि इन संस्कृत ग्रामों में संस्कृत भवनों के साथ ही प्राथमिक संस्कृत विद्यालयों की स्थापना भी की जाएगी।
संस्कृत का स्वर, गूँजे घर-घर
आज जब हम आधुनिकता की ओर बढ़ रही हैं, हमारी सरकार का प्रयास है कि देववाणी संस्कृत की पवित्र ज्योति को उत्तराखण्ड में आने वाले समय में और तेज गति से प्रज्ज्वलित किया जाए। इसी को ध्यान में रखते हुए राज्य से सभी जनपदों में आदर्श संस्कृत ग्रामों की स्थापना की है। इन गांवों में लोग अपने दैनिक जीवन में संस्कृत का प्रयोग करेंगे, जिससे देववाणी पुन: हमारे जीवन में बोलचाल, व्यवहार और संवाद का हिस्सा बन सकेगी। ये हम सभी के लिए गौरव का विषय है उत्तराखंड में संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया है।
संस्कृत से जुड़ना, देश को समझना
संस्कृत को जानना, देश को समझने के समान है। भारतीय संस्कृति में वैश्विक बाजार नहीं, बल्कि वैश्विक परिवार महत्वपूर्ण है — यही ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना है। यही भाव भारत को विश्वगुरु बनाता है। वास्तव में विश्वगुरु बनने के लिए भारत को फिर से अपने स्व अर्थात संस्कृत भाषा को संवाद का माध्यम बनाना ही होगा। और सरकारें इसी स्व को आम जन तक पहुंचने में सुलभ और सरल बनाने का काम कर रही हैं, ताकि माँ भारती वैभव सम्पन्न होकर पूरे विश्व को रोशन कर सकें।