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मातृभाषा ही राष्ट्रों को महान बनाती है

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मातृभाषा ही राष्ट्रों को महान बनाती है


लेखक - डॉ. अजयपाल नागर


भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, जिससेे हम अपने विचार दूसरे तक पहुंचाते हैं। भाषा हमारी सभ्यता, संस्कृति, समाज और देश की पहचान को इंगित करती है। इतिहास के प्रत्येक कालखंड में सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ भाषाओं का भी विकास हुआ या कहा जाए कि सभ्यताओं के विकास के साथ ही भाषाओं का भी  परिवर्तन प्रत्येक कालखंड में हुआ है। भाषा और लिपि का अटूट संबंध है। प्रत्येक भाषा को लिखित रूप में अभिव्यक्त करने के लिए लिपि आवश्यक है। एक लिपि में दो या अधिक भाषाएं लिखी जा सकती हैं और एक भाषा भी अनेक लिपि में लिखी जा सकती है। जैसे हिंदी, संस्कृत, मराठी, नेपाली आदि भाषाएं देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। पंजाबी गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है।

हड़प्पा सभ्यता की लिपि का वाचन अभी तक नहीं हो पाया है, जबकि सिंधु सभ्यता की लिपि भावचित्रात्मक थी। विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद की भाषा संस्कृत थी। बौद्ध ग्रंथ ‘त्रिपिटक’ भगवान बुद्ध की मृत्यु (483 ई.पूर्व) के बाद पाली  भाषा में लिखे गए। अधिकांश जैन साहित्य संस्कृत, प्राकृत और मगधी भाषा में लिखा गया।

भारत के प्राचीन महाकाव्य रामायण और महाभारत की रचना भी संस्कृत में की गई। सम्राट अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं। केवल दो अभिलेखों शाहबाजगढ़ी एवं मानसेहरा की लिपि खरोष्ठी है। इलाहाबाद का अशोक स्तंभ अभिलेख समुद्रगुप्त (335-375 ई०) के शासन के बारे में सूचना प्रदान करता है, जिसे ‘प्रयाग प्रशस्ति’ कहा  गया है। इसमें हरिषेण ने संस्कृत भाषा में प्रशंसात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है।

सन 712  में अरबों की सिंध पर विजय की जानकारी फारसी ग्रंथ ‘चचनामा’ से मिलती है।

मुस्लिम आक्रांताओं के भारत आगमन के साथ ही भारतीय भाषाओं और संस्कृति को विलुप्त करने का कुत्सित प्रयास किया गया। संस्कृत के स्थान पर उर्दू और फारसी भाषा के प्रचलन पर अधिक जोर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि संस्कृत का प्रयोग कम होता गया और उर्दू, फारसी का प्रयोग बढ़ता गया और भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम भाषा संस्कृत के अस्तित्व पर संकट समय के साथ-साथ निरंतर बढ़ता गया। गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद, लोदी, सूरी और मुगल आदि सभी वंशों के शासनकाल (लगभग 800 वर्ष) तक भारतीय भाषा और संस्कृति अस्तित्व की रक्षा हेतु संघषर्रत रही।

1857 की क्रांति के दमन के बाद भारतीय भाषाओं और संस्कृतियों पर मंडरा रहा संकट और गहरा गया। अंग्रेजी को सभी भारतीय भाषाओं पर महत्व दिया जाने लगा। ऐसा 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक तो निर्विघ्न रूप से जारी रहा ही, बल्कि 1950 में संविधान लागू होने के बाद भी अंग्रेजी प्रेमियों की संख्या बढ़ती रही और कुछ भारतीय तो अंग्रेजी सभ्यता, संस्कृति, साहित्य और अंग्रेजी पर इतना विश्वास करने लगे कि उनका अपने देश की गौरवशाली सभ्यता, संस्कृति, साहित्य  और भाषा से ही विश्वास उठ गया।

जब एक देश दूसरे देश पर आधिपत्य करता है, तब उसे स्थायी बनाने के लिए वह विजित प्रजा के विचारों और भावों को बदल देना चाहता है, ताकि वह अपने गौरव को भूल जाए और विजेता की ही महत्ता को याद रखे। यही कारण रहा कि मुस्लिम राजाओं ने संस्कृत के स्थान पर उर्दू, फारसी भाषाओं और विचारों को प्राथमिकता प्रदान की और अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा व साहित्य के प्रचलन को।

हंगरी यूरोपीय देश है, जो ऑस्ट्रिया के अधीन हो गया। दोनों देशों ने एक-दूसरे को बराबरी का दर्जा देते हुए एक राजा का आधिपत्य स्वीकार किया, पर राजधानी ऑस्ट्रिया के विएना में होने के कारण और हंगरी के लोगों में देश-प्रेम के अभाव के कारण ऑस्ट्रिया ने हंगरी पर आधिपत्य जमा लिया और जब हंगरी के कुछ देश-प्रेमियों ने ऑस्ट्रिया के विरुद्ध बगावत की, तो उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। फिर भी कुछ लोगों ने हंगरी की जातीयता  और राष्ट्रीयता को जिंदा रखा। 1833 में वहां महासभा हुई, तब एक ऐसी घटना हुई, जिसका प्रभाव हंगरी के इतिहास पर पड़ा। महासभा में हंगरी के एक धनी नवयुवक ने मातृभाषा में व्याख्यान दिया। उसके स्वदेशी भाइयों ने ही ऑस्ट्रिया की संगति में पड़कर अपने राष्ट्रीय भाव को खो दिया और उसका तिरस्कार करना आरंभ कर दिया और कारण उसकी उम्र कम होना बताया। 

जब दोबारा ऐसा अवसर आया, तो वह नवयुवक फिर मातृभाषा बोलने का अपराधी बना। लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि वह उसी समय से जनता का चहेता बन गया। मातृभाषा के इस अनोखे प्रेमी जेकेनी ने राजनैतिक नेतृत्व अपने हाथों में नहीं लिया। उसने हंगरी की शिक्षा, शिल्प, विज्ञान और साहित्य को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया और जेकेनी के इस कार्य को उस समय के राजनेता डीक ने बड़ी चतुराई से हंगरी में कुछ दिनों बाद पूरा किया। हंगरी निवासियों ने ऑस्ट्रिया से मांग रखी कि वहां की भाषा को भी राज्य कार्य में स्थान दिया जाए। इससे स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपनी भाषा के महत्व को कितना ऊंचा समझा था।