- कैसे बना 15 अगस्त आजादी का दिन?
- क्यों मिली भारत को आधी रात को आजादी?
- इतिहास के एक संवेदनशील मगर दिलचस्प घटनाक्रम का बयाने-हाल..
14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि। घड़ी के कांटे जैसे ही 12 पर जाकर मिले, एक दिन का समापन हो गया। मगर यह सिर्फ एक दिन का समापन नहीं
था। यह गुलामी की कई सदियों का अंत था। साथ ही यह प्रारंभ था एक नए युग का। भारत
ने गुलामी की बेड़ियां तोड़ दी थी। हवाओं में आजादी की महक घुलने लगी थी। अब भारत
आजाद था।
भारत में नए दिन का
स्वागत शंखनाद से करने की परंपरा रही है। मगर उस रात जैसे ही घड़ी ने 12 टंकारें दी, आधी रात को शंखनाद गूंज उठा। आजादी की इस गूंज को दुनिया भर
में सुनाने के लिए संविधान-सभा भवन में शंखनाद किया गया। इस शंखनाद के साथ ही भारत
भूमि पर अंग्रेजी साम्राज्य का अंत हो चुका था। अपनी पुरातन संस्कृति को खुद में
समेटे एक नया देश दुनिया के नक्शे पर अवतरित हो चुका था। ये हमारा भारतवर्ष था।
लेकिन भारतीय संस्कृति
में हमेशा से प्रकाश को ज्ञान का प्रतीक माना गया है। उदयीमान सूर्य की नवीन
किरणों से ही नए दिन का प्रादुर्भाव माना जाता है। हर नयी शुरुआत दिन के प्रकाश
में ही करने की परंपरा रही है। ऐसे में आखिर आजादी हमें आधी रात को क्यों मिली?
भारतवर्ष के नवीन अवतरण के लिए सुबह तक इंतजार
क्यों नहीं किया गया? सारे कार्यक्रम
आधी रात को ही क्यों निर्धारित किए गए ? इन सवालों के जवाब बड़े ही रोचक हैं।
वो 24 मार्च 1947 का दिन था। लॉर्ड माउंटबेटन ने अंतिम वायसराय बनकर भारत
में इंग्लैंड के सम्राट के प्रतिनिधि के रुप में सत्ता संभाली थी। लेकिन भारत आने
वाले दूसरे वायसराय की तरह उनको भारत पर राज नहीं करना था। उनको भारत भेजने का
उद्देश्य दूसरा था। वो उद्देश्य था भारत में सत्ता-हस्तांतरण।
दरअसल बदलती वैश्विक
स्थितियों में अब साम्राज्यकारी ताकतों का टिका रहना मुश्किल था। दुनिया भर में
लोकतांत्रिक शक्तियां उभार पर थी। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इंग्लैंड की आर्थिक
स्थिति बुरी तरह चरमरा चुकी थी। उसने युद्ध जीत लिया था लेकिन इस विजय ने इंग्लैंड
के उद्योग-धंधों को चौपट कर दिया था। इंग्लैंड में महंगाई अपने चरम पर पहुंच चुकी
थी। लोगों पर बेरोजगारी की जबरदस्त मार पड़ी थी। सरकारी खजाना खाली हो चुका था।
हिटलर को हराने वाला इंग्लैंड अपनी आर्थिक स्थिति के आगे घुटने टेकता दिख रहा था।
वो एक ऐसा साम्राज्य रहा था जिसके बारे में कहा जाता था कि वहां सूरज कभी डूबता
नहीं था। लेकिन अब एक नवीन, प्रखर और
स्वतंत्र सूर्य भारत भूमि पर उगने को तैयार था।
इंग्लैंड की राजनीतिक
परिस्थितियां भी बदल चुकी थी। इंग्लैंड में अब लेबर पार्टी की सरकार थी। किलमेंट
एटली प्रधानमंत्री थे। भारत को स्वतंत्रता देने के सख्त विरोधी विंस्टन चर्चिल
विपक्ष में बैठे थे। लेबर पार्टी की सत्ता आते ही उसने ऐलान कर दिया था कि ब्रिटिश
साम्राज्य को समेटने की प्रक्रिया शुरु कर दी जाएगी। इस ऐलान का साफ मतलब था कि
हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक फैले घनी आबादी वाले भू-भाग इंडिया से इंग्लैंड
अब अपना नियंत्रण हटा लेगा। बदलती आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में अब इतनी
विशाल आबादी पर शासन करना उसके लिए संभव नहीं रह गया था। लेकिन सत्ता-हस्तांतरण की
प्रक्रिया इतनी आसान नहीं थी। भारत में जिन्ना की मुस्लिम लीग अलग राष्ट्र की मांग
पर अड़ी थी। 16 अगस्त 1946 को पाकिस्तान की मांग को लेकर मुस्लिम लीग ने
डायरेक्ट एक्शन का एलान किया था। उसका उद्देश्य सिर्फ ये दिखाना था कि पाकिस्तान
की मांग को लेकर वो किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उस दिन भयानक दंगे भड़क उठे थे।
सिर्फ कलकत्ता में करीब 6 हजार लोग इन
दंगों में मारे गए। इसके बाद हिंसा का दौर आगे भी जारी रहा। इन परिस्थितियों में
इंग्लैंड का मानना था कि भारत में सत्ता-हस्तांतरण की प्रक्रिया एक संवेदनशील
मामला है। इसीलिए इस दुरुह कार्य की जिम्मेदारी एटली ने शाही राजपरिवार से जुड़े
लॉर्ड माउंटबेटन को सौंपी। वो मूलतः एक सैनिक थे। दक्षिण-पूर्व एशिया के सुप्रीम
एलायड कमांडर के पद पर कार्य कर चुके थे। भारतीय भूभाग की राजनीतिक परिस्थितियों
की अच्छी समझ रखते थे। राजनीतिक रणनीतिकार के रुप में भी उनकी अच्छी पहचान थी।
लार्ड माउंटबेटन को
वायसराय के रुप में लार्ड वैवेल की जगह लेनी थी। वैवेल ने सत्ता-हस्तांतरण की जो
योजना बनायी थी, वो बिल्कुल सीधी
थी। एक-एक कर अंग्रेज भारत के प्रांतों को छोड़ना शुरु कर दें। पहले औरतें, बच्चें और असैनिक अंग्रेज निकल जाएं और सबसे
अंत में सैनिक। वैवेल खुद जानते थे कि ये प्रस्ताव भारत को भयंकर गृह-युद्ध में
झोंक सकता है। इसीलिए इसका नाम उन्होंने ऑपरेशन मैड हाउस रखा था। वैवेल भारतीय
नेताओं से वैसा संवाद भी कायम नहीं कर पाए थे। इसीलिए सत्ता-हस्तांतरण की
प्रक्रिया के कठिन कार्य को पूरा करने के लिए इंग्लैंड सरकार ने लार्ड माउंटबेटन
पर भरोसा जताया था।
लार्ड माउंटबेटन अच्छे
रणनीतिकार जरुर थे, लेकिन वो अंग्रेज
पहले थे। उनकी एक जिम्मेदारी ये भी थी कि नये बनने वाले स्वतंत्र राष्ट्र को
कॉमनवेल्थ राष्ट्रों के संस्थान में शामिल होने के लिए राजी करवा लिया जाए।
कॉमनवेल्थ नेशंस की धुरी इंग्लैंड के हाथ में थी। इस तरह वो साम्राज्य छोड़कर भी
अपना रुतबा कुछ-कुछ बचाए रख सकता था।
लार्ड माउंटबेटन जब भारत
पहुंचे तो उन्हें पता था कि उन्हें महीनों का कार्य हफ्तों में करना है। वो यूं भी
अत्यंत तीव्र गति से कार्य करने में यकीन रखते थे। उन्होंने भारत के विभिन्न
नेताओं से संवाद स्थापित करने और उनमें सामंजस्य बिठाने का दुरुह कार्य पूरा किया।
उन्होंने भारत-विभाजन का मसौदा तैयार किया। इस मसौदे के हिसाब से भारत और
पाकिस्तान दो राष्ट्रों का धार्मिक आबादी के अनुसार निर्माण होना था। साथ ही
राजा-महाराजाओं को इन दो राष्ट्रों में किसी एक राष्ट्र में शामिल होने या
स्वतंत्र रहने की छूट दी गयी थी। लार्ड माउंटबेटन की खासियत रही कि उन्होंने
कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के नेताओं को इस प्रस्ताव के लिए राजी कर लिया।
गांधी जी इस विभाजन के विरोध में थे लेकिन उनके ही शिष्यों ने उनकी नहीं सुनी और
वो भी इस मसले पर दुखी मन से शांत हो गए। तत्कालीन परिस्थितियों ने भले ही इतिहास
की धारा दूसरी दिशा में मोड़ दी हो लेकिन इतिहास साक्षी है कि भारत-विभाजन के समय
भड़की हिंसा मानव-समाज की सबसे बड़ी त्रासदियों में एक रही। तत्कालीन परिस्थितियों
के साथ इन परिस्थितियों के निर्माण में सहायक बनने वाले नेता भी इस जिम्मेदारी से
मुक्ति नहीं पा सकते।
लॉर्ड माउंटबेटन को पता
था कि भारत की तत्कालीन परिस्थितियां ऐसी नहीं थी कि सत्ता-हस्तांतरण को लंबे समय
तक टाला जा सके। हिंसा भड़क उठने की आशंका बहुत ज्यादा थी। हालांकि अंग्रेजों ने
पहले जून 1948 तक भारत छोड़ने की योजना
बनायी थी। लेकिन लॉर्ड माउंटबेटन इस कार्य को जल्द से जल्द अंजाम देना चाहते थे।
मसौदे पर सबकी स्वीकृति
लेने के बाद उन्होंने जून 1947 के पहले हफ्ते
में एक प्रेस-वार्ता की। इंग्लैंड के भारतीय साम्राज्य में यह मात्र दूसरा अवसर था
जब किसी वायसराय ने प्रेस-वार्ता का आयोजन किया था। वायसराय के सुंदर कक्ष में
सारे पत्रकार आमंत्रित थे। देश-दुनिया के तीन सौ से ज्यादा पत्रकार इस महत्वपूर्ण
मौके पर मौजूद थे। लार्ड माउंटबेटन विस्तार से सारी योजना की जानकारी दे रहे थे।
पूरी परिस्थिति पर उनके नियंत्रण का गर्व उनके चेहरे से साफ झलक रहा था। लगभग दो
महीने की छोटी अवधि में ही उन्होंने वो कर दिखाया था जो दूसरे नहीं कर पाए थे।
योजना के मसौदे की जानकारी देने के बाद वायसराय ने पत्रकारों को सवाल पूछने के लिए
आमंत्रित किया। सवाल पर सवाल पूछे जाने लगे। हर सवाल का जवाब माउंटबेटन के पास
मौजूद था। ऐसे में एक भारतीय पत्रकार का छोटा-सा सवाल उन तक पहुंचा। सवाल था -
“प्रशासनिक शक्तियों के हस्तांतरण की कोई निश्चित तारीख आपने तय की है?“ लॉर्ड माउंटबेटन कुछ क्षण के लिए ठहरे। ऐसी कोई
तारीख उन्होंने अभी निश्चित नहीं की थी। लेकिन उनके मुंह से जवाब निकला- “बेशक,
तारीख तय कर दी गई है।“ माउंटबेटन जिस
व्यक्तित्व के स्वामी थे, वो हरगिज ये नहीं
दिखाना चाहते थे कि कोई छोटी सी बात भी उनके नियंत्रण से बाहर है। माउंटबेटन का
दिमाग तेजी से चलने लगा। सितंबर की कोई तारीख बताना सही रहेगा। या फिर अगस्त की
तारीख दी जाए। उनकी अपनी जिन्दगी में मायने रखने वाली कई तारीखें उनके जेहन में
घूमने लगीं। कुछ देर में तारीखों के आँकड़ें अचानक शांत हो गए। एक तारीख उनके दिमाग में स्थिर हो गयी। ये
तारीख थी - 15 अगस्त। इस दिन उन्हें
अपने जीवन की सबसे बड़ी विजय मिली थी। ऐसी विजय जो अगर नहीं मिलती तो शायद वो इस
प्रेस-कांफ्रेंस को करने के लिए जिन्दा ही नहीं होते। दो साल पहले बर्मा के जंगलों
में मूसलाधार बारिश के बीच लड़ते हुए उनकी कमांड ने जापानियों को जबरदस्त शिकस्त दी
थी। जमीन की लड़ाई में जापान को इतनी करारी हार पहले कभी नहीं मिली थी। जापान सरकार
ने बिना शर्त समर्पण किया था। माउंटबेटन को ये निश्चित करने में जरा भी देर नहीं
लगी कि 15 अगस्त को ही भारत की
आजादी का दिन बना दिया जाए। वायसराय ने कहा - भारतीय हाथों में सत्ता का हस्तांतरण
15 अगस्त 1947 को किया जाएगा।
लॉर्ड माउंटबेटन की इस
घोषणा से सारे आश्चर्यचकित रह गए। किसी को लेशमात्र भी अंदाजा नहीं था कि
माउंटबेटन इस तरह भारत की आजादी की तारीख तय कर देंगे। हर तरफ खलबली मच गयी। मगर
सबसे ज्यादा बौखलाहट जिन लोगों में फैली - वो थे भारत के ज्योतिषाचार्य। ज्योतिष
विद्या का प्रभाव भारतीय जनमानस में ऐसा बैठा था कि इसका असर छोटे-बड़े सब पर था।
माउंटबेटन ने जैसे ही तारीख की घोषणा की सभी प्रमुख ज्योतिषियों ने पोथी-पत्रे
निकाल लिए। जटिल गणनाएं की गयीं। काशी-उज्जैन से लेकर दक्षिण भारत के नगरों तक
ज्योतिषी अपनी गणना में लग गए। इसके बाद सभी प्रमुख ज्योतिषियों ने एक साथ घोषणा
की। 15 अगस्त 1947 का दिन एक नए राष्ट्र के निर्माण के लिए शुभ
नहीं है। कई प्रमुख नेता भी इन पर अटूट विश्वास करते थे। सबने वायसराय पर तारीख
बदलने का दबाव डाला। लेकिन वायसराय लार्ड माउंटबेटन अपने फैसले से टलने वालों में
से नहीं थे। आखिर एक रास्ता निकाला गया। 14 अगस्त की स्थिति 15 अगस्त से काफी
बेहतर थी। इस वक्त लग्न में वृष राशि पड़ रही थी जिसे स्थिरता के लिए अत्यंत शुभ
माना गया। साथ ही उस वक्त भारत की कुंडली में शनि योगकारक बनकर लोकतंत्र की सफलता
के लिए अच्छा योग बना रहा था। हालांकि पराक्रम स्थान में पांच ग्रहों की युति और
कालसर्प योग के प्रभाव की वजह से कुंडली में कुछ दिक्कतें भी थी। लेकिन लग्न बदल
जाने से भारत की स्थिरता और शांति पर खतरे की आशंका थी। ऐसे में तत्कालीन
परिस्थियों में इसे ही सर्वश्रेष्ठ कुंडली माना गया।
भारतीय धार्मिक परंपरा के
अनुसार नए दिन की शुरुआत सूर्याेदय से मानी जाती है। लेकिन अंग्रेजी कायदे से रात
के 12 बजे ही कैलेंडर की तारीख
बदल जाती है। ऐसे में वायसराय इस सुझाव पर तुरंत राजी हो गए कि भारत को आजादी
आधिकारिक रुप से 14-15 अगस्त की मध्य
रात्रि में दी जाए। ज्योतिषियों के आग्रह की वजह से लार्ड माउंटबेटन को झुकना पड़ा।
बढ़ते दबाव में बीच का रास्ता निकल जाने से उन्होंने राहत की सांस ली। साथ ही
उन्होंने तत्काल अपने स्टाफ को निर्देश दिया कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय लेने
से पहले ज्योतिषीय सलाह अवश्य ले ली जाए।
(लेखक महाराजा अग्रसेन इंस्टीच्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज़, इंद्रप्रस्थ विवि., दिल्ली में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं)