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भूमि और जन का सम्बन्ध माता और पुत्र
का होना चाहिए- श्री गुरूजी
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भारतीय उपमहाद्वीप कहलाने वाला भारत
अनादि काल से भू-सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दू राष्ट्र अर्थात विश्व मंगल का प्रेरक देश रहा
है
हम सभी विश्व मंगल
की प्रेरक ऐसी प्राचीन संस्कृति के संवाहक हैं जहाँ राष्ट्र की अवधारणा अति
प्राचीन है। इस भारत भूमि के प्रति माता-पुत्र का सम्बन्ध मानते हुए हम, समग्र जनसमाज से लेकर चराचर जगत व प्रकृति तक सभी के प्रति अटूट आत्मीयता
का भाव रखते आये हैं। सभी देशवासियों में मातृभूमि अर्थात इस राष्ट्र के प्रति
श्रृद्धा, समर्पण व निष्ठा का स्मरण व बोध कराने के पावन कार्य में ही राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ सतत् संलग्न है। भारत भूमि के 1947 में हुए विभाजन से पूर्व, पाकिस्तान व बांग्लादेश एवं उससे भी
पूर्व अफगानिस्तान भी इस अखण्ड भारत भूमि के अंग रहे हैं। उत्तर में हिमालय व
दक्षिण में हिन्द महासागर के बीच का यह सम्पूर्ण भू-भाग अनादि काल से भारत वर्ष कहलाता रहा
है। इस भूभाग में निवासरत् हम सभी भारतवासी इस संसार की नियामक चेतन सत्ता या
प्रकृति के प्रति सर्वोच्च सम्मान, विद्वतजनों के प्रति आदर एवं सम्पूर्ण समाज के साथ अटूट आत्मीयता पूर्वक
सभी के योगक्षेम व निरापद जीवन के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते आये हैं। इन सभी लक्षणों
से युक्त राष्ट्र की परिभाषा हमारे वैदिक वाङ्मय में अनादि काल से प्रचलित है।
इसी आशय से राष्ट्र
को परिभाषित करते हुये पं. दीनदयाल उपाध्याय कहते हैं कि ‘‘एक निश्चित भूभाग में निवास करने वाला मानव समुदाय जब उस भूमि के साथ
तादात्म्य का अनुभव करने लगता है, जीवन के विशिष्ट गुणों को आचरित करता हुआ समान परम्परा और महत्वाकांक्षा से
युक्त होता है, सुख-दुःख की समान स्मृतियां और शत्रु-मित्र की समान अनुभूतियां प्राप्त कर परस्पर हित सम्बन्धों में ग्रथित होता
है, संगठित होकर अपने श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की स्थापना के लिये सचेष्ट होता है
और इस परम्परा का निर्वहन करने वाले तथा उसको अधिकाधिक तेजस्वी बनाने के लिये महान
तप, त्याग, परिश्रम करने वाले महापुरुषों की श्रृंखला निर्माण होती है, तब पृथ्वी के अन्य मानव समुदायों से
भिन्न एक सांस्कृतिक जीवन प्रकट होता है। इस भावात्मक स्वरूप को ही राष्ट्र कहा
जाता है। राष्ट्र एक स्वाभाविक इकाई है। धरती और धरती के पुत्रों के सम्बन्धों में
प्रकट चैतन्य का विराट अस्तित्व है। स्वामी विवेकानन्द भी इसी आशय से कहते हैं कि ‘‘जाति, धर्म, भाषा, शासन प्रणाली ये ही एक साथ मिलकर एक
राष्ट्र की सृष्टि करते हैं।’’ भारत के सन्दर्भ में अपनी अनुभूति प्रकट करते हुये स्वामी जी कहते हैं कि ‘‘राष्ट्र का प्राण धर्म है, उसकी भाषा धर्म है तथा उसका भाव धर्म
है।’’ यह धर्म रिलिजन (त्मसपहपवद) नहीं है, यह वह चिरन्तन सत्य है जो व्यक्ति से लेकर विश्व तक प्रत्येक इकाई को साधता
है तथा उसका व्यवस्थित उत्कर्ष करता है, सबका हित करता है। यही राष्ट्र का आधार है।
राष्ट्र को परिभाषित
करते हुए संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी का कथन है कि ‘‘एक भूमि, उस भूमि पर बसने वाला जन और उस जन की
संस्कृति, इन तीनों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है।’’ भूमि और जन का सम्बन्ध माता और पुत्र
का होना चाहिए। आदि ग्रन्थ ऋग्वेद में पृथ्वी को माता माना गया है। श्री अरविन्द
घोष भी कहते हैं कि ‘‘राष्ट्रीयत्व कोई राजनीति प्रक्रिया नहीं, अपितु धर्म, कर्तव्य, कर्म व एक महान श्रद्धा सम्पन्न
ध्येयवाद है, एक जीवन निष्ठा है। श्री गुरुजी इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं ‘‘किसी राष्ट्र के लिए प्रथम अपरिहार्य
वस्तु एक भूखण्ड है जो यथासंभव किसी प्राकृतिक सीमाओं से आबद्ध हो तथा एक राष्ट्र
के रहने और वृद्धि एवं समृद्धि के लिए आधार रूप में काम दे। द्वितीय आवश्यकता है उस
विशिष्ट भूप्रदेश में रहने वाला समाज जो उसके प्रति मातृभूमि के रूप में प्रेम और
पूज्य भाव विकसित करता है तथा अपने पोषण, सुरक्षा और समृद्धि के आधार के रूप में उसे ग्रहण करता है। संक्षेप में, यह समाज उस भूमि के पुत्ररूप में स्वयं
को अनुभव करे।
श्री गुरूजी इसे
स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि समाज केवल मनुष्यों का एक समुच्चय नहीं है। विजातीय
व्यक्तियों का किसी स्थान पर एकत्रीकरण मात्र नहीं चाहिए। उसके जीवन की एक विशिष्ट
पद्धति बनी होनी चाहिए। जिसको, जीवन के आदर्श, संस्कृति, अनुभूतियों, भावनाओं, विश्वास एवं परम्पराओं के सम्मिलन के द्वारा एक स्वरुप दिया गया है। इस
प्रकार जब समाज समान परम्पराओं एवं महत्वाकांक्षाओं से युक्त अतीत जीवन की सुख-दुःख की समान स्मृतियों और शत्रु-मित्र की समान अनुभूतियों वाला तथा
जिनके सभी हित संग्रहित होकर एकरूप हो गये हैं, इस सुव्यवस्थित रुप मे संगठित हो जाता
है, तब इस प्रकार के लोग, उस विशिष्ट प्रदेश में पुत्र के रूप मे निवास करते हुए एक राष्ट्र कहे जाते
है।
जब कभी हमने यह
अनुभव किया कि हमारे हित अविभक्त हैं हमारे शत्रु एवं मित्र हम सभी के लिए समान है, तो हमारे राष्ट्रीय जीवन में ऐसी महत शक्ति
का उद्भव हुआ कि विदेशी शक्ति चूर-चूर होकर हमारे पैरों पर लौटने लगी। एक परिपूर्ण राष्ट्र के लिए सभी आवश्यक
तत्वों की पूर्ति इस प्रकार के महान हिन्दू जन-जीवन से होती है। इसलिए हम कहते हैं कि
हमारे इस भारत देश में हिन्दू जीवन शैली ही राष्ट्रजीवन है। संक्षेप में यह हिन्दू
राष्ट्र है’’ इसी भाव को श्री गुरुजी ने तीन बिन्दुओं में स्पष्ट किया हैः-
1. ‘‘सबसे पहला है कि जिस देश को अनादि काल
से हमने अपनी पवित्र मातृभूमि माना है, उसके लिए ज्वलंत भक्ति भावना का आविर्भाव।
2. द्वितीय है, सहचर्य एवं भ्रातृत्व भावना जिसका जन्म
इस अनुभूति के साथ होता है कि हम इस महान माता के पुत्र हैं।
3. तृतीय है, राष्ट्र-जीवन की समान धारा की उत्कट चेतना जो
समान संस्कृति एवं समान पैतृक दाय, समान इतिहास एवं समान परम्पराओं, समान आदर्शों एवं आकांक्षा में से उत्पन्न होती है।
यह उपरोक्त त्रिगुणात्मक
मूर्ति एक शब्द में हिन्दू राष्ट्रीयता है जो राष्ट्रमंदिर के निर्माण के लिए आधार
बनती है।’’
राष्ट्र अस्तित्व
में संस्कृति की भूमिका को स्पष्ट करते हुये विचारक डा. ब्रहमदत्त अवस्थी लिखते हैं कि ‘‘राष्ट्र की धरती छिन जाये तो वापस आ
सकती है, इजराइल सदियों बाद सम्मान के साथ सीना तान कर खड़ा हो सकता है। साधन लुट
जायंे तो भी श्रम और विवेक राष्ट्र की झोली सम्पन्नता से भर सकते हैं। जर्मनी और
जापान ध्वस्त होने के बाद भी आज सम्पन्न राष्ट्रों में एक हैं। परन्तु समाज की
संस्कृति समाप्त हो जाये तो धरती और साधन उसे जुटा नहीं सकते। रोम, मिस्र, और यूनान इसके जाते ही समाप्त हो गये।’’ इस प्रकार संस्कृति राष्ट्र का प्राण
है।
भारत में राष्ट्र की
अवधारणा अति प्राचीन है। इसके अनुसार मानव के सार्वभौम कल्याण की प्रेरणा से एक
साझी सांस्कृतिक विरासत के संवाहक के रूप में, तेज व ओज से युक्त एक साझे समाज-जीवन को अविरल बनाए रखने के भाव से
राष्ट्र की अवधारणा वैदिक काल से ही प्रचलित रही है।
आ ब्रह्मन्
ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्टेª राजन्यः षरऽइशव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वाेढानड्वानाशुः
सप्तिः पुरन्धिर्याेशा जिष्णू रथेष्ठा सभेयो युवास्या यजमानस्य वीरो जायतां, निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्योनऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्।।
यजुर्वेद 22-22
इस सूक्त के अनुसार
जन-समूह, जो एक सुनिश्चित भूमिखंड में रहता है, संसार में व्याप्त और इसको चलाने वाले
परमात्मा अथवा प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकार करता है, बुद्धि को प्राथमिकता देता है और
विद्वतजनों का आदर करता है और जिसके पास अपने देश को बाहरी आक्रमण और आंतरिक, प्राकृतिक आपत्तियों से बचाने और सभी
के योगक्षेम की क्षमता हो, वह एक राष्ट्र है। यहाँ राष्ट्र को बाहरी आक्रमणों व आन्तरिक विपत्तियों से
बचाने से आशय इन दोनों ही प्रकार के संकटों के विरूद्ध सम्पूर्ण राष्ट्र की एक
जुटता व सभी प्रकार के प्रतिकार व संघर्ष सन्नद्धता की जब अलाउद्दीन खिलजी ने देश
पर आक्रमण किया तब मालवा, मेवाड़, जालोर, मारवाड़, रणथम्भोर, देवगिरी, बंगाल, बिहार आदि 30-40 रियासतों को एक-एक कर परास्त किया था। तब यदि 2-3 राजा भी मिलकर युद्ध करते तो हम सुरक्षित रह सकते थे। जब मोहम्मद बिन कासिम
ने सिन्ध पर आक्रमण किया तब शेष भारत के राजाओं को दाहिर सेन की सहायता करनी थी।
आज भी देश में पाकिस्तान प्रेरित अलगाववादी शक्तियों से लेकर चीन प्रेरित
माओवादियों तक कई तत्व देश की एकता व अखण्ड़ता को चुनौती देते दिखलाई देते हैं।
इसलिए राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्यपालन हेतु हमें जाति, भाषा, क्षेत्र, व पंथ से ऊपर उठकर राष्ट्र की एकता एवं
अखण्ड़ता के लिए सन्नद्ध रहना पहली प्राथमिकता है। एक समृद्ध, सबल व विश्वबन्धुत्व का प्रेरक हिन्दू
राष्ट्र भारत ही विश्व मंगल का साधक होगा।
वस्तुतः भारतीय
उपमहाद्वीप कहलाने वाला भारत अनादि काल से भू-सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दू राष्ट्र
अर्थात विश्व मंगल का प्रेरक देश रहा है। हिन्दू धर्म से आशय किसी एक प्रकार के
उपासना पंथ के प्रति आग्रह रहित रहते हुए, समाज जीवन की मर्यादाओं का अनुसरण ही
सनातन हिंदू धर्म अर्थात् जीवन दर्शन है। इस प्रकार हिंदुत्व के विचार में धर्म
वस्तुतः विश्व मानवता एवं विश्व बंधुत्व से संबंधित है। कर्तव्यों और आचार-विचार के प्रेरणा का ही समुच्चय है।
सभी भारतीय उपासना पंथों की यथा सनातन वैदिक, बौद्ध, जैन व सिख मत समान रूप से उदात्त व
विश्व मंगल की शिक्षाएँ हैं यथा इसी क्रम मनुस्मृति में मनु ने धर्म के दस लक्षण
बताए हैं। जिनका उपासना पंथो से कोई सम्बन्ध नहीं हैः-
धृतिः
क्षमादमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या
सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम।।
धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा अनजाने में बिना किसी
दुर्भावना के किए गए अपराध को क्षमा कर देना या क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अंतरंग और बाह्य शुचिता), इंद्रिय निग्रहः (इंद्रियों को वश में रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की प्राप्ति), सत्य (मन-वचन-कर्म से सत्य का अनुसरण करना) और अक्रोध (अकारण क्रोध न करना); ये दस धर्म लक्षण ही विश्व मंगल का आधार
कहे जा सकते हैं। इस धर्म पथ में बाधा डालने वालों को निरूद्ध करना भी धर्म ही कहा
जायेगा।
महाभारत कालीन सभी
राज्यों की संस्कृति व राज्य संहिताएँ समान रही है युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ में
इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल, अफगानिस्तान सहित समस्त भारत के राज्यों ने एक समेकित राष्ट्र के अंगभूत
राज्यों के रूप में भाग लिया है। इस प्रकार हिंदू धर्म शास्त्रों में राष्ट्र की
अवधारणा अति प्राचीन व सार्वभौम एक विधान की भी एक परंपरा रही है, तदनुसार भारत तो अनादिकाल से हिंदू
राष्ट्र था और आज भी है। यहाँ ‘हिंदू राष्ट्र’ से आशय ‘हिंदुओं या हिंदू पूर्वजों की संतति का देश’। हिंदू से आशय ‘हिंदू जीवन पद्धति से जीने वाले लोग’ या ‘हिंदू जीवन पद्धति से जीने वाले लोगों
की संतति’। भौगोलिक दृष्टि से ‘हिमालय से लेकर इंदु सरोवर’ अर्थात् हिंद महासागर के बीच स्थित भू-भाग हिंदू राष्ट्र कहलाता है। यह
भौगोलिक सीमा-संज्ञक अर्थ, हिंद महासागर के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित भू-भाग को अभिव्यक्त करता है।
विष्णु पुराण के
अनुसार श्रीलंका सहित समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का सारा भू-भाग, जिसमें भारत की संतति निवास करती है, वह देश भारतवर्ष है-
उत्तरं यत्
समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तत् भारतं नाम
भारती यत्र संततिः।। (विष्णु पुराण)
जीवनशैली के आधार पर
‘‘ऐसा राष्ट्र, जहाँ हिंदू जीवन पद्धति प्रचलित है और जहाँ के नागरिक के पूर्वजों में
हिंदू जीवन पद्धति, आचार-विचार और परंपराएँ प्रचलित रही हों, जिसमें समग्र समाज का रहन-सहन, भोजन, भाषा, वेश-भूषा, रीति-रिवाज, सभ्यता, संस्कृति, जीवन मूल्य, आचार-विचार व उपास्य सम्मिलित हैं।’’ यथा केरल का मुस्लिम, भारतीय हिंदू परंपरा की मलयालम भाषा व
साहित्य एवं बंगाल व बांग्लादेश का मुस्लिम बांग्ला भाषा बोलता है। ये दोनों ही
भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं। इस प्रकार भारत सब प्रकार से एक हिंदू राष्ट्र है।
इनकी भाषा ही नहीं, भोजन, भैषज्य (औषधि चिकित्सा पद्धतियाँ) पारिवारिक परंपराएँ, सामाजिक मूल्य, न्याय पद्धति भूषा व वेष भी तद्नुरूप व समरूप ही हैं। नृवंश शास्त्र के
अनुसार देश के अधिकांश मुस्लिमों की शरीर रचना वहाँ के हिंदू समाज से भिन्न नहीं
है। आज के भारत में जन्म से जीवन पर्यंत सभी संस्कार, साहित्य, गीत-संगीत, नृत्य कला व जीवनचर्या, पारिवारिक जीवन आदि लगभग समान है।
उपासना व ईष्ट या आराध्य के विषय में हिंदू जीवन में अपूर्ण स्वतंत्रता है। एक ही
परिवार के सदस्यों के भी राम, कृष्ण, शिव, हनुमान, दुर्गा आदि में से आराध्य हो सकते हैं। हिंदू संस्कृति में धर्म अर्थात्
सामाजिक नियमों, मर्यादाओं व नैतिक आचार-विचार का पालन आवश्यक है।