·
संघ हमेशा से ”वसुधैव कुटुम्बकम“ के सूत्र की बात करता आया है।
·
संघ का मूल उद्देश्य ही “सकारात्मक” प्रयासों द्वारा भारतवर्ष को एक सशक्त राष्ट्र बनाना है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितम्बर 1925 को विजयादशमी
के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने इस
संकल्प के साथ किया
कि भारत वर्ष को हिंदू राष्ट्र बनाना है। आजादी
के पूर्व संघर्षकाल में हिंदू समाज असंगठित एवं विभिन्न जात बिरादरियों में बंटा हुआ था। संघ के प्रयासों से हिंदू
समाज में जात-पात का विभेद धीरे-धीरे कम
होता गया।
यहां इस बात को स्पष्ट रूप से
समझ लेना आवश्यक है कि हिंदू
राष्ट्र का तात्पर्य ये नही
है कि भारतवर्ष में रह
रहे इसाईयों, पारसियों, मुसलमानों, जैनों, बौद्धों, सिक्खों या अन्य मत
मतातंरों को मानने वालों को हिंदू
बनाना है। न ही किसी
की आस्था या धर्म परिवर्तन
करने की बात है।
संघ किसी को भी देश
छोड़कर चले जाने की बात नहीं
करता है।
भारतवर्ष में कुछ छद्म प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को
घोर धार्मिक एवं उन्मादी संगठन बताकर इसे बदनाम करने का संकल्प कर रखा
है। कहीं न कहीं यह
वामपंथी व अन्य विरोधी
विचारधारा के लोगों द्वारा प्रायोजित है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता होने के
बावजूद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को कांग्रेस के अंदर
ही काफी विरोध का सामना करना पड़ा।
जब उन्होंने कहा कि ” स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं
इसे लेकर ही रहूंगा।“
हिंदू राष्ट्र के प्रति अपने लगाव
और ओत-प्रोत राष्ट्रीयता की भावना के कारण
ही अंततः तिलक को अलग से
‘स्वराज पार्टी’
की घोषणा करनी पड़ी। परंतु इस पार्टी का जीवनकाल
अत्यंत ही अल्प रहा।
तथापि तिलक ने हिंदू राष्ट्र की जो
अलख जगाई थी वही बहुसंख्यक
कांग्रेसियों को अंदर ही
अंदर झकझोर रही थी। डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे, जो कि डॉ.
हेडगेवार के राजनीतिक गुरु माने
जाते हैं, तिलक की विचारधारा से अत्यंत
प्रभावित थे। डॉ. मुंजे ने डॉ. हेडगेवार को कांग्रेस
से अलग होकर एक विशिष्ट सामाजिक संगठन बनाने की प्रेरणा
दी।
ज्ञातव्य रहे, कि संघ के
विरोधियों ने संघ के
सकारात्मक एवं मानवीय कार्यों को यह कहकर
धूमिल करने की चेष्ठा की कि
यह एक हिंदूवादी संगठन है और
यह धार्मिक मतभेद उत्पन्न करती है।
इस चर्चा के संदर्भ में पहले
हिंदू शब्द का वास्तविक अर्थ स्पष्ट
कर देना यहां उचित होगा। यहां यह समझना आवश्यक है कि
हिंदू शब्द आखिर आया कहां से या इसकी
मूल उत्पत्ति या उद्गम क्या है।
जिसे धर्म के साथ जोड़कर
हिंदू शब्द को प्रचारित किया जाता
है असल में वह सनातन धर्म है।
प्राचीन शास्त्रों एवं पुराणों में इस शब्द का
मिलना मुश्किल है। ज्ञात रहे कि भारतवर्ष की सर्वोच्च
अदालत सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने अपने
एक निर्णय में यह कहा कि
हिंदू किसी धर्म का नाम नही
है वरन्, यह एक जीवन
पद्धति है।
फारसी भाषा में ‘स’
को ‘ह’
भी कहा जाता है। जैसे सप्ताह को फारसी में हफ्ता
कहते हैं। सिंधु नदी को इरानी लोग हिंदू
नदी के नाम से
जानते थे। सिंधु कुश पर्वत के लिये हिंदुकुश
पर्वत शब्द का उपयोग किया जाता
था। मध्य एशिया से आने वाले
आक्रमणकारियों के लिये सिंधु
कुश पर्वत के दूसरी ओर (पूर्वी प्रदेश में) रहने वाले
लोग हिंदू थे। अब यहां भी
बताना आवश्यक हो जाता है
कि जब ई0 स.
712 में मुहम्मद बिन कासिम ने भारतवर्ष पर आक्रमण
किया तो वास्तव में वह
वर्तमान या अविभाजित (स्वतंत्रता पूर्व के) भारत के बाहरी छोर तक
भी नहीं आ पाया था।
वरन् वह तो सिर्फ
हिंदुकुश पर्वत तक ही पहुंच
सका था। जो आज के
अफगानिस्तान में स्थित है। ज्यादा आश्चर्य करने वाली बात यह है कि
उस समय हिंदुकुश पर्वत पर बौद्धों का वास
था।
अतः मध्य एशिया में जिस प्रदेश को हिंदोस्तान के नाम
से जाना जाता था वह वो
भारतवर्ष है जो हिंदुकुश
पर्वत के पूर्वी भाग में
आता था। भारतवर्ष का मानचित्र सदियों से बदलता
रहा है परंतु भारतवर्ष में रहने
वाले सनातन धर्मी लोगों के विचारों, जीवनशैली, परम्परा, मूल्यों आदि में
एक निरंतरता एवं सत्यता देखने को मिलती है। हिंदू
राष्ट्र का आशय आर्यावर्त
में प्रचलित रीति रिवाजों, परंपराओं आदि के अनुसार समाज एवं
राज्य की प्रगति, विस्तार एवं विकास
है।
हिंदू राष्ट्र का आशय स्पष्ट
रूप से ऐसे राष्ट्र
से है जहां हिंदू
परम्पराओं का पालन हो
रहा हो। हिंदू मूल्यों एवं विचारों के अनुसार सामान्य जीवन के
कार्य चल रहें हो।
अगर हिंदू होने का मतलब सनातन
धर्मी से भी लगा
लिया जाये तो इसमें कोई बुराई
नही है। एक सच्चा हिंदू समग्र विश्व को अपना
परिवार मानता है। संघ हमेशा से ”वसुधैव कुटुम्बकम“
के सूत्र की बात करता
आया है। अब अगर इसे
संघ की सकारात्मक विमर्श न माना
जाये तो इसे और
क्या कहा जायेगा ?
आज पूरे विश्व में चालीस से भी अधिक
देशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विद्यमान हैं यह उपस्थिति संघ के
सकारात्मक प्रयासों के बिना नही
हो सकती। आज भारतवर्ष में एक
करोड़ से ज्यादा लोग संघ
से सीधे जुड़े हैं। और शाखा में
जाते हैं। इसमें उन लोगों की गणना
नही की गयी है
जो स्वयंसेवक संघ के विविध क्षेत्रों से जुड़े
हुए हैं।
संघ के सहकार्यवाह मा. भैयाजी जोशी ने एक बार
अपने बौद्धिक में कहा कि सत्ता चाहे जितनी
भी शक्तिशाली हो जाये, समाज परिवर्तन
का कार्य सत्ता से नहीं हो
सकता। यह परिवर्तन का कार्य
संघ को ही करना
पड़ेगा। संघ यह मानता है कि
सज्जन व्यक्ति को संगठित करने का
कार्य हजारों वर्षों से चला आ
रहा है। इसमें संघ ने नया कुछ
नहीं किया है। असल में यह संघ की
चारित्रिक विनम्रता है।
संघ के सकारात्मक विचार एवं विमर्श का इससे बडा
उदाहरण और क्या हो
सकता है कि “संघ भिन्न
राजनैतिक दलों में रहने वाले लोगों को भी अपना
ही मानता है।”
सह सरकार्यवाह मनमोहन जी वैद्य ने अपने
एक बौद्धिक प्रवचन के दौरान दत्तोपंत ठेंगडी जी को
याद करते हुए बताया कि, ” ठेंगडी जी के सकारात्मक
विचारों का प्रभाव इतना प्रबल
था कि एक प्रमुख
वामपंथी नेता एवं संघ का घोर विरोध
करने वाला व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड गया
और नियमित रूप से शाखा में
आना प्रारम्भ कर दिया।
संघ का मूल उद्देश्य ही “सकारात्मक”
प्रयासों द्वारा भारतवर्ष को एक सशक्त
राष्ट्र बनाना है। ज्ञातव्य हो कि संघ
किसी भी रूप में
कहीं भी पंजीकृत संगठन नहीं है।
यह ज्योत से जोत जलाने
की परंपरा के अंतर्गत चलने वाली
शाखा है।
समान सेवा संघ की अपनी एक
विशिष्ट पहचान है। जब कभी भी
राष्ट्र में कोई आपदा आती है तो संघ
के स्वयंसेवक वहां सेवाकार्य के लिये मिनटों
में पहुंच जाते हैं। आश्चर्य की बात यह
है कि कई बार
स्वयंसेवक स्थानीय प्रशासन से भी पहले
विपत्ति या आपदा वाले
स्थान तक पहुंच जाते हैं।
चाहे वह लातूर का भूकंप
हो, मोरवी का जल प्रलय
हो, कच्छ में आया भूकंप हो, केरल में बाढ़की आपदा हो, रेल की दुर्घटनायें हो या
फिर वर्तमान में वैश्विक महामारी कोरोना कोविड-19 हो। संघ सब जगह सेवाकार्य
के लिये तत्पर मिलता है।
वर्तमान कोरोना त्रासदीकाल में संघ ने कुल 85,701 सेवा स्थानों पर सेवा कार्य
किया है। कुल 4,79,949 संघ के स्वयंसवेक अपनी जान
की परवाह किये बिना कोरोनाग्रस्त क्षेत्रों में सेवारत है। ऐसी भयंकर त्रासदी के समय में
बीमार एवं जरूरतमंदों के लिए संघ
ने कुल 39,851 यूनिट रक्त की व्यवस्था की है।
कुल 62,81,117 मास्क का निःशुल्क वितरण किया गया
है। 1,10,55,450 परिवारों तक राशन का
किट पहुंचाया गया है। कुल 7,11,46,500 तैयार भोजन के पैकेट का वितरण
किया गया है। 27,98,091 प्रवासी श्रमिकों को सहायता संघ द्वारा
की गयी। ये आंकड़े विश्व के किसी
भी सरकारी या गैर सरकारी
संगठन के लिए अविश्वसनीय
आंकड़े है। गौर करने की बात तो
यह है कि उपरोक्त
सेवाकार्य बिना किसी धार्मिक, क्षेत्रीय या जातिगत भेदभाव के किया
गया है। समाज में सकारात्मक विमर्श खड़ा करने का संघ का
यह अतुलनीय उदाहरण है।
97 साल पहले जो अलख डॉ.
हेडगेवार जी ने जगायी
थी आज वह एक
आंदोलन के रूप में
परिवर्तित हो गया है।
आश्चर्य की बात यह
है कि यह सिर्फ
हिंदुओं तक सीमित नहीं रहा
है। परंतु भारतवर्ष में विद्यमान सभी धर्मों में आज संघ विद्यमान
है। उज्जैन के निवासी गुलरेज शेख पेशे
से एक डॉक्टर हैं और
वह नियमित रूप से संघ की
नजदीकी शाखा में जाते हैं। मजेदार बात यह है कि
वह रमजान के महीने में भी
शाखा जाने के क्रम को
नहीं छोड़ते। गुलरेज के पिता अखिल
भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के सक्रिय कार्यकर्ता रह चुके
हैं। इसी तरह लखनऊ की स्कूल टीचर शबाना
आजमी संघ के लिये सक्रिय
रूप से कार्य कर रही
है। शबाना ने अब तक
अनेक मुस्लिम एवं इसाई महिलाओं को संघ के
साथ जोड़ने का कार्य किया है।
शबाना अवध क्षेत्र की राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की
अधिकारी है। संघ के सकारात्मक प्रयासों से इसाईयों
ने भी इस ओर
आना प्रारम्भ कर दिया है।
केरल के रहने वाले
सी.आई ईसाक सन्
1975 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े और
बाद में संघ के स्वयंसेवक बन गये।
यद्यपि संघ अभी तक कोई सक्रिय
इसाई संगठन बनाने में सफल नही हो सका है
परंतु यह भी सत्य
है कि बड़ी संख्या
में इसाई संघ की विचारधारा से जुड़े
हुए हैं। इसी प्रकार राष्ट्रीय सिक्ख संगत एक ऐसा मंच
है जहां सिक्ख धर्म के ऐसे अनुयायी
एकत्रित होते हैं जो संघ की
विचारधारा का समर्थन करते हैं।
वस्तुतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही एकमात्र ऐसा संगठन है जिसने स्वतंत्रता पूर्व एवं पश्चात निरंतर समाज में सकारात्मक विमर्श उत्पन्न करने की भूमिका निभायी है। संघ राष्ट्र निर्माण के अपने अंतिम लक्ष्य की तरफ पूरी दृढ़ता के साथ आगे बढ़ता चला जा रहा है।
(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं)