राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और समरसता
समरसता’ या ‘सामरस्य’ का शाब्दिक अर्थ है-समरस होने का भाव, अर्थात् समान रस या भावों से युक्त होना। यह वह स्थिति है जहां भावों और विचारों में समानता, सामंजस्य और एकरूपता विद्यमान हो। सामान्यतः इस शब्द का प्रयोग सामाजिक संदर्भों में होता है, जहां समाज के सभी वर्गों के मध्य परस्पर समानता और सौहार्द की भावना हो। समाज के सभी वर्गों, जातियों, धर्मों और लिंगों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक-दूसरे को अपने समान समझें- यही समरसता है। समरसता का दार्शनिक आधार: उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ने अपने संकल्प से इस ब्रह्मांड की रचना इस भाव के साथ की- ”एकोऽहं बहुस्याम“ अर्थात् ”मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ।“ इस प्रकार उसने एकता में अनेकता का संदेश दिया। सामाजिक समरसता की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों को समूल समाप्त कर एक समतामूलक, समरस और सशक्त समाज की परिकल्पना को साकार किया जाए। क्योंकि हम सब एक ही परमात्मा की संतान हैं- ”वयं अमृतस्य पुत्राः“।
संस्कृत साहित्य में समरसता की भावना को दर्शाते कई श्लोक मिलते हैं, जैसे-
”अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।“
(अर्थात् ”यह मेरा है, वह पराया है- ऐसी सोच तुच्छ बुद्धि वालों की होती है। उदार चरित्र वाले संपूर्ण पृथ्वी को ही परिवार मानते हैं।“)
”यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया।
चित्ते वाचि क्रियायांश्च साधूनामेकरूपता।।“
(अर्थात् ”जैसा मन, वैसा वचन और जैसी वाणी, वैसा ही कर्म। मन, वाणी और क्रिया में एकरूपता होना ही साधु प्रवृत्ति का लक्षण है।“)
इस प्रकार समरसता केवल एक सामाजिक अवधारणा न होकर एक गहन भावनात्मक, दार्शनिक और सांस्कृतिक चेतना का नाम है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और समरसता: भारत विविधताओं से भरा हुआ एक महान राष्ट्र है, जहां भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति, पहनावा, भोजन आदि में असंख्य अंतर होते हुए भी एकता की भावना विद्यमान रही है। यही हमारी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय पहचान है। परंतु कभी-कभी यही विविधताएं विघटन और सामाजिक विषमता का कारण भी बन जाती हैं। ब्रिटिश शासनकाल में हम इसके दुष्परिणाम भुगत चुके हैं। वर्तमान में भी देश में धर्मनिरपेक्षता की आड़ में तुष्टिकरण की राजनीति और विघटनकारी शक्तियां सामाजिक समरसता को चुनौती दे रही हैं। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) विश्व का एकमात्र ऐसा संगठन है, जिसका मूल उद्देश्य ही एक संगठित, समरस और संस्कारित राष्ट्र का निर्माण रहा है। संघ की शाखाओं में सामाजिक समरसता, अनुशासन, सेवा तथा राष्ट्रभक्ति पर विशेष बल दिया जाता है। संघ के विविध सेवा प्रकल्प समाज के विभिन्न वर्गों को जोड़कर समरसता, सेवा, सहयोग और राष्ट्रप्रेम को बढ़ावा देते हैं। पंच परिवर्तन और समरसता: समाज की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप संघ ने समय-समय पर अपनी कार्यशैली एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन किया है। इसी क्रम में संघ द्वारा ”पंच परिवर्तन“ की व्यापक और बहुआयामी परिकल्पना प्रस्तुत की गई है, जो आधुनिक भारत की सामाजिक चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करती है। इनमें सामाजिक समरसता को केंद्रीय स्थान दिया गया है। इसके लिए समाज के सभी समुदायों में पारस्परिक प्रेम, संवाद, भाईचारा और सहयोग की भावना को बढ़ावा देना आवश्यक है। शिक्षा, संवाद, सहभागिता और सेवा कार्यों के माध्यम से जातिगत भेदभाव समाप्त कर सामाजिक एकीकरण को बल दिया जा सकता है! संघ के कार्यक्रम और प्रयास: संघ प्रारंभ से ही सामाजिक समरसता पर विशेष बल देता आया है। इसके छह उत्सवों में रक्षाबंधन सामाजिक समरसता का प्रतीक माना जाता है। इसके अतिरिक्त समरसता सहभोज, समरसता खिचड़ी आदि कार्यक्रम समाज में समभाव और समरसता को बढ़ावा देते हैं।
संघ के कार्यक्रमों में ऋग्वेद से लिया गया श्लोक ”समानी वा आकूतिः..” संगठन मंत्र के रूप में गाया जाता है-
”समानी वा आकूतिः समानाः हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।“
(अर्थः हमारी आकांक्षाएं, हृदय और बुद्धि समान हों, ताकि हम सब मिलकर सामंजस्यपूर्वक जीवन जी सकें।)
इसके साथ ही संघ का कल्याण मंत्र भी समरसता का उद्घोष करता है-
”सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्“
संघ जाति, धर्म, लिंग या अन्य सामाजिक विभाजनों के आधार पर होने वाले भेदभावों का विरोध करता है। संघ की सेवा भारती, विद्या भारती, एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण आश्रम, विवेकानंद केंद्र जैसी संस्थाएं वंचित, दलित और जनजातीय वर्गों के बीच जाकर उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और आत्मनिर्भरता के माध्यम से मुख्यधारा से जोड़ती हैं। छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, पूर्वाेत्तर राज्यों में चल रहे एकल विद्यालयों में जनजातीय बच्चों को आधुनिक एवं संस्कारित शिक्षा प्रदान की जा रही है, जिससे सामाजिक समरसता को मूर्त रूप मिल रहा है। संघ के आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार स्वयं अस्पृश्यों के साथ सहभोज के आयोजक रहे। तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने संघ शिविरों में कहा था-
”संघ वर्ण व्यवस्था को नहीं मानता और किसी भी प्रकार की ऊंच-नीच की असमानता को अस्वीकार करता है।“ संघ द्वारा समय-समय पर व्याख्यान, कार्यशालाएं, प्रकाशन आदि के माध्यम से सामाजिक समरसता को लेकर जनजागरण किया जाता रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ऐसे समरस समाज की परिकल्पना को साकार करने हेतु सतत प्रयत्नशील है, जहां न कोई ऊंचा हो, न कोई नीचा; न कोई भेदभाव हो, न कोई तिरस्कार। सब एक समान हों- समान अधिकार, समान अवसर, समान सम्मान। जब हम ”एकात्म मानव दर्शन“ को आत्मसात करते हुए, ”हम सब एक हैं“ की भावना के साथ कार्य करेंगे, तभी एक समरस, संगठित और सशक्त राष्ट्र की नींव रखी जा सकेगी। हमें मिलकर एक ऐसे अखंड भारत के निर्माण में योगदान देना है जहां हर नागरिक राष्ट्र के प्रति समर्पित हो और हर वर्ग, समुदाय, भाषा व संस्कृति के लोग परस्पर समरसता के सूत्र में बंधकर साथ चलें ।