स्वामी विवेकानन्द के ऐतिहासिक शिकागो उद्बोधन के उपलक्ष्य में कांचीपुरम् में आयोजित ‘युवा धर्म संसद’ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी ने कहा कि रिलीजन को धर्म मानना ठीक नहीं है। रिलीजन धर्म का एक हिस्सा हो सकता है, लेकिन सही आशय में धर्म कर्तव्य है, धर्म नियम या कानून है, धर्म चारित्रिक है। संक्षेप में कहें तो धर्म सद्गुणों का भण्डार है। धर्म केवल पूजा-पाठ नहीं है। भारत एक धर्म भूमि है। विश्व के अन्दर धर्म के बारे में जो एक विचार है, धर्म की उस अवधारणा को भारतीय समाज जिस प्रकार युगों-युगों से विकसित करते हुए आया है – वह अद्भुत है।
सरकार्यवाह जी ने कहा कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है, मनुष्य के अन्दर मानवता का होना और मनुष्य के अन्दर मोक्ष की इच्छा, ये तीनों चीजें दुर्लभ हैं। मनुष्य के अन्दर एक संघर्ष है, द्वन्द है – पाप-पुण्य का, सुख-धर्म का, क्या करना है क्या नहीं करना है, इसके कारण, स्वच्छन्दता और चरित्र निर्माण के बीच मनुष्य अपने अन्दर के तनाव में फंसा हुआ है। मनुष्य, समाज और सारे विश्व के अन्दर एक संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। पूरा समाज जब कई तरह के विरोधाभासों से गुजर रहा है और मानव द्वन्द के संकट का अनुभव कर रहा है, तो ऐसे समय में भारत इसका एक योग्य उत्तर देने वाली सभ्यता के नाते, संस्कृति के नाते, राष्ट्र के नाते विश्व के सामने खड़ा है।
महर्षि अरविन्द ने दशकों पूर्व ही कहा था कि भारत उठेगा! लेकिन दूसरों को कुचलने के लिए नहीं, अन्य लोगों का दमन करते हुए दास बनाने के लिए नहीं, बल्कि विश्व के अन्धकार को दूर करने के लिए, दीपस्तम्भ बनकर उठेगा। महर्षि अरविन्द ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि, भारत एक धर्म भूमि है। विश्व के अन्दर धर्म की जो अवधारणा है, उसे भारत ने जिस तरह से युगों-युगों से विकसित किया है – वह अद्भुत है।
उन्होंने कहा कि अर्थ और काम के बिना जीवन नहीं चल सकता, लेकिन अर्थ औऱ काम को किसी न किसी प्रकार से सीमा में रखने का काम धर्म करता है। इसलिए धर्म की भूमिका सन्तुलन स्थापित करने की है। इस जगत, सृष्टि और ब्रह्माण्ड को पोषित करने का काम धर्म का है। नष्ट हो रहे जीवन को फिर से उठाकर खड़ा करने का काम धर्म का है। जब विश्व “किंकर्तव्यविमूढ़” हो, उस समय धर्म की आवश्यकता होती है। धर्म के आधार पर जीवन चलाने का एक सतत अभ्यास जिस सभ्यता को है – उस सभ्यता का नाम भारत है। विश्व को पोषित औऱ सन्तुलित करने के लिए भारत को तैयार करना है क्योंकि हमारे पास ज्ञान है, सभ्यता है, संस्कृति है, परम्परा है, लेकिन अभी ये करने की स्थिति हमारी नहीं है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि, हमारी शिक्षा प्रणाली में धर्म को जीवन से दूर रखने का प्रयत्न किया गया। पाठ्यक्रमों से उसको नकारने का प्रयत्न हुआ। सार्वजनिक जीवन में धर्म को कलंक बताया गया। धर्म को जीवन का आधार मानकर चलने वाले धर्माधिष्ठित समाज के निर्माण हेतु हमें आगे बढ़ना पड़ेगा। इसलिए ‘युवा धर्म संसद’ धर्म के आधार पर मनुष्य निर्माण का लक्ष्य लेकर चल रहा है।
बाल गंगाधर जी एक बहुत बड़े लेखक, इंटलेक्चुअल थॉट लीडर थे। बेल्जियम की यूनिवर्सिटी में 30 वर्षों तक उन्होंने अध्यापन किया। उसके बाद भारत के मूल धर्म-अध्यात्म, वेद-उपनिषद का अध्ययन प्रारंभ किया। उन्होंने बेंगलुरु के विश्वविद्यालय के प्रांगण में एक कार्यक्रम में कहा – मैं 30 वर्षों तक विश्व के वामपंथी विचार सेकुलरिज्म, कम्युनिस्ट विचार को ही सर्व सत्य मानता रहा। लेकिन मुझे जब भारत के ज्ञान का स्पर्श हुआ और जब भारत के वेद और उपनिषद को समझने का प्रयत्न किया तो मुझे ध्यान में आया कि भारत दुनिया के लिए बहुत बड़ा योगदान कर सकता है। इसमें भारत के धर्म की अवधारणा अत्युच्च है।
सरकार्यवाह जी ने कहा कि आज विश्व के अन्दर जिस प्रकार की स्थिति है। प्रकृति, राष्ट्र औऱ राष्ट्रों के बीच का संघर्ष, इन सारे संन्दर्भों में नैतिकता कोई दे सकता है तो वह भारत है क्योंकि फिलॉसफी, डेमोक्रेसी औऱ रिलीजन में तालमेल बिठाने की शक्ति भारतीय समाज में है। अमेरिका में चीन के राजदूत हूं-सी ने कहा, चीन में एक भी सैनिक भेजे बिना भारत ने 2000 सालों तक चीनी लोगों के मस्तिष्क पर अपनी आध्यात्मिकता से प्रभुत्व स्थापित किया। भारत का अतीत अद्भुत है। भारत का इतिहास प्रेरणादायी है। भारत की भूमि से प्राप्त होने वाले ज्ञान के हम उत्तराधिकारी हैं। लेकिन क्या आज हमारे अन्दर वह शक्ति, वह ताकत, वह क्षमता, वह सामर्थ्य, वह चरित्र, वह निष्ठा, वह आदर्श और प्रमाणिकता है?
देश के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करने से देश बड़ा नहीं होता है। देश के लिए स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ेगा, स्वयं अध्ययन करना पड़ेगा, परिश्रमी होना पड़ेगा। सफलता और सार्थकता की चाह में हमें भटकना नहीं है। आज भारत को धर्माधिष्ठित बनाना है। यही आज की आवश्यकता है और हम उसके लिए तैयार हों। धर्माधिष्ठित समाज जीवन के हर प्रश्न का उत्तर देने के लिए सक्षम और समर्थ होता है। इसलिए विश्व के सारे संकटों, चुनौतियों, संघर्षों के बीच एक धर्म के दीपस्तम्भ को आध्यात्म के आधार पर खड़ा करने का संकल्प करना चाहिए।
‘युवा धर्म संसद’ में कांचीपुरम् के पूज्य शंकराचार्य स्वामी विजयेंद्र सरस्वती जी, श्रीहनुमत निवास अयोध्या के श्रीमहंत आचार्य़ मिथिलेशनन्दिनी शरण जी महाराज, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय दिल्ली एवं सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के पूर्व कुलपति प्रो. वी. कुटुम्ब शास्त्री, प्रसिद्ध विचारक एवं अर्थशास्त्री एस. गुरुमूर्ति सहित भारत के 18 राज्यों से 1400 युवा प्रतिनिधि उपस्थित रहे।