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गोबर ने किया कमाल! उत्तराखण्ड बना बायोगैस का पावरहाउस

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ऊर्जा, रोजगार और स्वच्छता का मजबूत आधार बना गोबर-धन, उत्तराखण्ड बना देश के लिए रोल मॉडल

देहरादून, उत्तराखण्ड : पहाड़ों में कभी उपेक्षित समझा जाने वाला गोबर और गीला कचरा अब उत्तराखण्ड के ग्रामीण विकास की नई पहचान बन चुका है। जो अपशिष्ट कल तक पर्यावरण और स्वच्छता के लिए चुनौती था, वही आज ऊर्जा उत्पादन, रोजगार सृजन और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का आधार बन गया है। गोबर-धन मॉडल को अपनाने में उत्तराखण्ड ने बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे बड़े राज्यों को भी पीछे छोड़ दिया है।

राज्य में बायोगैस संयंत्रों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जबकि कई अन्य राज्यों में यह संख्या घट रही है। वर्तमान में उत्तराखण्ड में 8,362 बायोगैस प्लांट स्थापित हो चुके हैं। कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद गोबर और गीले कचरे के बेहतर उपयोग ने उत्तराखण्ड को बायो-एनर्जी के क्षेत्र में देश के लिए एक रोल मॉडल बना दिया है।

गांव-गांव में ऊर्जा और रोजगार

देहरादून के विकासनगर क्षेत्र के भगलाना गांव और डोईवाला विकासखण्ड के संगतियावाला गांव में लगे बायोगैस प्लांट इसकी मिसाल हैं। यहां गोबर, रसोई के गीले कचरे और कृषि अवशेषों से न सिर्फ स्वच्छ ऊर्जा बन रही है, बल्कि स्थानीय स्तर पर रोजगार भी पैदा हो रहा है। बायोगैस प्लांट अब केवल वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत नहीं, बल्कि ग्रामीण आर्थिकी का प्रभावी विकास मॉडल बन चुके हैं।

बायोगैस से मिलने वाली रसोई गैस ने ग्रामीण परिवारों के ईंधन खर्च को काफी हद तक घटा दिया है। एलपीजी सिलेंडर, लकड़ी और कोयले पर निर्भरता कम होने से परिवारों की बचत बढ़ी है। कई गांवों में बायोगैस से बिजली उत्पादन भी हो रहा है, जिससे ऊर्जा पर होने वाला खर्च सीधे गांव की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहा है।

कचरा बना संसाधन, स्वच्छता को मिला नया आयाम

उत्तराखण्ड के गांवों में प्रतिदिन लगभग 880 टन ठोस कचरा निकलता है, जिसमें लगभग 63 प्रतिशत जैविक कचरा होता है। पहले यही कचरा गंदगी, दुर्गंध और बीमारियों की वजह बनता था। अब बायोगैस प्लांट के जरिए गोबर, रसोई कचरा और कृषि अवशेष स्रोत पर ही निस्तारित हो रहे हैं। इससे पंचायतों पर कचरा ढोने और डंपिंग का बोझ कम हुआ है और गांवों की स्वच्छता में उल्लेखनीय सुधार आया है।

किसानों की आय और मिट्टी दोनों को फायदा

बायोगैस उत्पादन के बाद बचने वाली स्लरी उच्च गुणवत्ता की जैविक खाद होती है। इससे खेती की लागत घट रही है और उत्पादन बढ़ रहा है। पशुपालकों के लिए गोबर अब अपशिष्ट नहीं, बल्कि कमाई का साधन बन चुका है।

देहरादून के कालूवाला गांव के अरविंद चौहान बताते हैं कि उन्होंने 15 साल पहले अपने घर में बायोगैस प्लांट लगाया था। तब से उन्होंने घरेलू गैस पर एक पैसा भी खर्च नहीं किया। दो गायों से मिलने वाला करीब 45 किलो गोबर रोजाना उनके तीन घन मीटर के प्लांट के लिए पर्याप्त है। साथ ही उन्हें भरपूर जैविक खाद में प्रयोग होने वाला गोबर का बचा घोल मिल जाता है, जो फसलों के लिए “सोना” साबित हो रही है।

पहाड़ी एवं दुर्गम राज्य उत्तराखण्ड सबसे आगे आगे?

विशेषज्ञों के अनुसार कई राज्य इसलिए पीछे रह गए क्योंकि वे बायोगैस को पशुपालन से प्रभावी ढंग से नहीं जोड़ पाए। उत्तराखंड में पशुपालन की मजबूत परम्परा, पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों और पशुपालकों की भागीदारी से गोबर और गीले कचरे की नियमित आपूर्ति संभव हो सकी।

केंद्र सरकार भी बायोगैस संयंत्रों को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय सहायता दे रही है। 2 से 4 घन मीटर क्षमता के प्लांट पर 22,000 रुपये और 20 से 25 घन मीटर क्षमता पर 70,400 रुपये तक का अनुदान दिया जा रहा है। स्वच्छता से जुड़े संयंत्रों और बचे गोबर से जैविक खाद तैयार करने वाली यूनिट पर अतिरिक्त सब्सिडी भी मिल रही है।

आत्मनिर्भर और हरित अर्थव्यवस्था की ओर कदम

उत्तराखण्ड नवीकरणीय ऊर्जा विकास अभिकरण के मुख्य परियोजना अधिकारी मनोज कुमार के अनुसार, बायोगैस परियोजनाओं ने राज्य की ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी है। वहीं, ऊर्जा सचिव आर. मीनाक्षी सुंदरम का कहना है कि गोबर, जैविक कचरे और कृषि अवशेषों से ऊर्जा उत्पादन ने ईंधन पर निर्भरता घटाई है, किसानों की आय बढ़ाई है और पर्यावरण संरक्षण को मजबूती दी है।

आज गोबर-धन उत्तराखण्ड को आत्मनिर्भर, स्वच्छ और हरित अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने में अहम भूमिका निभा रहा है—और यही मॉडल अब देश के कई राज्यों के लिए प्रेरणा बनता जा रहा है।