विकसित भारत @2047 - एक राष्ट्रीय संकल्प
भारतवर्ष ब्रिटिश पराधीनता से मुक्ति के सौ वर्ष आगामी 2047 में पूर्ण करने जा रहा है। इसे अमृतकाल भी कहा जा रहा है। समस्त भारतवासियों की आकांक्षाओं को स्वर देते हुए वर्ष 2047 में विकसित भारत का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस सामूहिक लक्ष्य को शासन-व्यवस्था के साथ-साथ समाज जीवन के लगभग सभी पक्षों ने एक राष्ट्रीय संकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया है। देश भर में विकसित भारत @ 2047 पर गहन विचार विमर्श चल रहा है। राष्ट्र के सभी वर्गों, क्षेत्रों, व्यवसायों तथा कार्यों में संलग्न लोग इस संकल्प की पूर्ति के लिए कार्य-योजना बना रहे हैं। भारत के युवा मन में विकसित भारत का स्वप्न बसता जा रहा है। शिक्षण संस्थाओं में इस संकल्प में विभिन्न आयामों पर मन्थन चल रहा है। सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठनों ने भी अपने उद्देश्यों में इस संकल्प को सम्मिलित कर लिया है। भारतवासी सामान्यतः विकसित की संकल्पना के प्रति आश्वस्ति और विश्वास से भरे हुए हैं।
भारत सहस्रों वर्षों पुरानी सभ्यता एवं विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। यजुर्वेद का मन्त्र है- सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा। यह विश्व की प्रथम संस्कृति है और यही विश्व का संरक्षण करने वाली प्रथम संस्कृति हैं। अनेकानेक शताब्दियों तक भारतवर्ष को विश्व का ज्ञान गुरु रहने का सौभाग्य प्राप्त रहा है। भारत ने अपने विश्व-कल्याण दृष्टि से सदैव मानवता का पथ आलोकित किया है। असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृतत्व की ओर ले जाने के पाथेय का भारतवर्ष अग्रगण्य सारथी रहा है। अपने पारम्परिक ज्ञान तथा अधुनातन के साथ सम्यक् समन्वय से जन्मी शाश्वत, अक्षुण्ण, सनातन परम्परा से भारत ने हमेशा विश्व भर के समाजों को दृष्टि एवं दिशा प्रदान की है। परन्तु दुर्दैव से ज्ञान, अध्यात्म, दर्शन, विद्या, चेतना, ब्रह्म, आदि सूक्ष्म तत्त्वों से जूझते भारतवर्ष की भौतिक प्रगति, आर्थिक समृद्धि तथा विख्यात ऐश्वर्य ने क्रूर, बर्बर, हिंसक, मतान्ध, आततायी और नृशंस आक्रान्ताओं को भी सहज ही आकर्षित किया। परिणामस्वरूप विद्या और ज्ञान की वरेण्यता का विश्वासी भारतीय समाज असभ्य और दुर्दान्त आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा के समस्त उद्यमों के बाद भी अनवरत रूप से परास्त होता रहा और अपनी आभा खोता रहा है। लगभग बारह सौ वर्षों तक विधर्मी आक्रान्ताओं की पराधीनता ने भारत की स्वतन्त्र चेतना और स्वाभाविक औदार्य को तो प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया ही, साथ ही निरन्तर पद्दलित होते समाज में असुरक्षा, भय और हीनता-ग्रन्थि का बीज वपन भी कर दिया।
भारतवर्ष की अन्तश्चेतना को सदैव अस्वीकार्य इस प्रशासनिक एवं राजनीतिक दासता के विरुद्ध देश भर में विभिन्न व्यक्तियों, समूहों तथा वर्गों द्वारा सशस्त्र प्रतिरोध और अपने स्वत्व की रक्षा हेतु यथासम्भव प्रयत्न भी निरन्तर होते रहे। भारत के स्वत्व के संरक्षण, सबल अभिव्यक्ति और सहज प्रसरण के इन प्रयासों की दृश्यमान विफलताओं के बाद भी भारत के पुनर्जागरण की सम्भावनाएं हमेशा बनी रहीं। यही कारण है कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध देश के विभिन्न क्षेत्रों में हुए सभी प्रकार के संघर्षों, विद्रोहों, आन्दोलनों तथा प्रयत्नों का मूल स्वर भारत के स्व की पुनर्प्राप्ति पर केन्द्रित रहा। वह स्वदेशी, स्वधर्म, स्वभाषा, आदि में प्रतिबिम्बित भी होता रहा और यही भाव उसकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति को परिष्कृत और परिमार्जित भी करते रहे।
भारत के इस स्वत्व को कदाचित सर्वाधिक सशक्त स्वर राष्ट्रीय आन्दोलन के क्रान्तिकारियों, लेखकों, कवियों, साहित्यकारों, शोधकर्ताओं, विद्वानों, स्वयंसेवी संगठनों, जाति-समाजों, आदि ने प्रदान किया। इसी का परिणाम हुआ कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों की दुर्भाग्यपूर्ण परतन्त्रता से मुक्ति के बाद से आज तक भारतवर्ष अपने मूल पारम्परिक स्वरूप में आने के यथा सम्भव प्रयत्न करता रहा है। समाज, संस्कृति, कला, साहित्य, संगीत, निष्पादन कला, राजनीति, प्रशासन, आदि सभी क्षेत्रों में मानसिक दासता के औपनिवेशिक प्रतीक चिह्नों से मुक्ति के प्रयत्न सर्वत्र होते रहे हैं। यद्यपि इस दुःखद औपनिवेशिक दासत्व के कीटष्णु कुछ क्षेत्रों में इतने व्यापक एवं गहन हो चुके हैं कि उनकी शल्य क्रिया आधारित उपचार प्रक्रिया भी इस अमृत काल में ही सम्पन्न होगी-ऐसा दिखाई दे रहा है। तथापि इस स्वतन्त्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने के बाद से इस राष्ट्रीय कार्ययोजना को अपेक्षित गति और त्वरा प्राप्त हुई है। औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, स्व बोध का प्रत्यक्षीकरण, युवा-महिला-दरिद्र-अन्नदाता आदि को केन्द्र में रखकर विकास की रूपरेखा, सामाजिक समरसता, पारम्परिक परिवार व्यवस्था के उदान्त सामाजिक मूल्यों का यत्नपूर्वक संरक्षण, सभ्यतागत मूल्यों के आधार पर प्रकृति तथा पर्यावरण से साहचर्यपूर्ण जीवन, धर्म केन्द्रित आचार-परम्परा और दायित्वों के निर्वहन हेतु कटिबद्ध प्रयत्न, आदि जीवन मूल्यों को भारतवर्ष के सामान्य नागरिक के कार्य, आचरण, व्यवहार तथा दृष्टिकोण से सम्बद्ध करने के लिए अनेक व्यक्ति, समूह, संगठन तथा प्रशासनिक एवं राजनीतिक अभिकरण आगे आ रहे हैं।
भारत इन सामूहिक उद्देश्यों के साथ अपनी सार्वजनिक यात्रा को दिशा दे रहा है। जीवन के विभिन्न आयामों में भारत की प्रतिभा, मेधा, मनीषा, परिश्रम, निष्ठा, कर्त्तव्य परायणता और नैष्ठिकता के परिणाम आह्लादकारी और आश्वस्तिकारक हुए हैं। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अभियान्त्रिकी, व्यापार, वाणिज्य, उत्पादन, निर्यात, मानव संसाधन, अन्तरिक्ष विज्ञान, सामरिकी, आदि अनेकानेक क्षेत्रों में भारत की प्रगति-गाथा विस्मयकारी एवं आनन्दप्रद है। भारत अपनी आर्थिक विपन्नता से बाहर निकलकर विश्व की तीव्रतम गतिमान अर्थ-व्यवस्था बन गया है और विश्व की शीर्ष आर्थिक महाशक्तियों में सम्मिलित हो गया है। विश्व भर से विभिन्न वस्तुओं के आयात की दुर्दशा से बाहर निकलकर भारत अनेक वस्तुओं का विश्व का प्रमुख निर्यातक बन गया है। विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश के मानव संसाधन की वैश्विक मान्यता में निरन्तर वृद्धि हो रही है। अन्तरराष्ट्रीय संगठनों में भारत की सक्रियता, स्वीकार्यता और प्रतिष्ठा में अतुलनीय उत्कर्ष हुआ है। भारत की वैश्विक संघर्षों में मध्यस्थता की क्षमता और आवश्यकता को सर्वत्र स्वीकृति मिल रही है। यह भारत के सर्वतोमुखी उदय, उन्नति और उत्कर्ष का अद्भुत समय है। भारत नवोत्थान के नित नए क्षितिक्षों का स्पर्श कर रहा है।
भारतवर्ष के समक्ष 2047 तक विकसित भारत बनने के लक्ष्य में अनेक चुनौतियाँ भी उपस्थित हैं। इनमें बहुत सी आन्तरिक हैं तो अनेक बाह्य भी हैं। परन्तु भारतवर्ष अपनी अग्रस ज्योतिमान जिजीविषा शक्ति से सदैव संयुक्त एवं सम्पन्न रहा है। हजारों वर्षों के आक्रमणों तथा पराधीनता के बाद भी भारत का स्वत्व निरन्तर प्रदीप्त रहा है। भारत इन बाधाओं का सामना करने को तत्पर भी है। और इनसे पार पाने में सक्षम भी है। यह भारत का काल है, यह भारत की पुनर्प्रतिष्ठा का अवसर है, यह भारत का गवाक्ष हैं जो विश्व को दृष्टि, दिशा तथा प्रकाश प्रदान करने को उद्यत है। हम सब सौभाग्यशाली है जो इस काल के साक्षी हैं। हमें सब प्रकार से विकसित भारत @ 2047 के इस राष्ट्रीय लक्ष्य और सामूहिक संकल्प की सिद्धि के लिए कटिबद्ध होना है। इस राष्ट्र के परम वैभव की प्राप्ति हमारा स्वप्न भी है और धर्म भी है।
लेखक महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार के पूर्व कुलपति है।




