• अनुवाद करें: |
विशेष

राष्ट्रीय शिक्षा नीति: भारतीयता का पुनरुत्थान

  • Share:

  • facebook
  • twitter
  • whatsapp

यूनेस्को की डेलर्स समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि किसी भी देश की शिक्षा का स्वरूप वहां की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरूप होना चाहिए। महात्मा गांधी, महर्षि अरविन्द, गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानंद, आचार्य विनोबा भावे आदि महापुरूषों ने भी यही विचार अपने-अपने शब्दों में व्यक्त किए थे परन्तु स्वतंत्रता के 73 वर्ष तक यह बात हमारे नीति नियंताओं को समझ नहीं आयी। आनन्द की बात है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को भारतीयता केन्द्रित बनाने का प्रयास किया गया है। 

भारत केन्द्रित शिक्षा नीति का तात्पर्य है कि देश की शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से चरित्रवान एवं व्यक्तित्व के समग्र विकसित छात्रों का निर्माण हो जिसके माध्यम से देश एवं समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति हो तथा वह छात्र राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय चुनौतियों के समाधान करने में सक्षम हो। इस शिक्षा नीति में काफी मात्रा में इस बात का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। 

इस शिक्षा नीति की प्रस्तावना में ही लिखा है कि ‘प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और सत्य की खोज को भारतीय विचार परम्परा और दर्शन में सदा सर्वाेच्च मानवीय लक्ष्य माना जाता था। प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा विद्यालय के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान अर्जन करना मात्र नहीं बल्कि आत्मज्ञान और मुक्ति के रूप में माना गया था।’ तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसे प्राचीन भारत के विश्व-स्तरीय संस्थानों ने अध्ययन के विविध क्षेत्रों में शिक्षण और शोध के ऊंचे प्रतिमान स्थापित किये थे और विभिन्न पृष्ठभूमि और देशों से आने वाले विद्यार्थियों और विद्वानों को लाभान्वित किया था। इसी शिक्षा व्यवस्था ने चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, चक्रपाणि, माधव, पाणिनी, पतंजलि, नागार्जुन, गौतम, पिंगला, शंकरदेव, मैत्रेयी, गार्गी और थिरुवल्लुवर जैसे अनेक महान विद्वानों को जन्म दिया। इन विद्वानों ने वैश्विक स्तर पर ज्ञान के विविध क्षेत्रों जैसे गणित, खगोल, धातु एवं चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा, सिविल इंजीनियरिंग, भवन-निर्माण, नौकायान-निर्माण और दिशा ज्ञान, योग, ललित कला, शतरंज इत्यादि में प्रामाणिक रूप से मौलिक योगदान किये। भारतीय संस्कृति और दर्शन का विश्व में सबसे बड़ा प्रभाव रहा है। वैश्विक महत्व की इस समृद्ध विरासत को आने वाली पीढ़ियों के लिए न सिर्फ संरक्षित रखने की जरूरत है बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था द्वारा उस पर शोध कार्य होने चाहिए, उसे ओर समृद्ध कर नए-नए उपयोग भी सोचे जाने चाहिए।

 ‘इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विजन भारतीय मूल्यों से विकसित शिक्षा प्रणाली है।’ नीति का विजन छात्रों में भारतीय होने का गर्व न केवल विचार में बल्कि व्यवहार, बुद्धि और कार्यों में भी और साथ ही ज्ञान, कौशल, मूल्यों और सोच में भी होना चाहिए जो मानवाधिकारों, स्थायी विकास और जीवनयापन तथा वैश्विक कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हो, ताकि वे सही मायने में वैश्विक नागरिक बन सके।

नीति में कहा है कि संस्कृति का प्रसार करने का सबसे प्रमुख माध्यम कला है। कला-सांस्कृतिक पहचान, जागरूकता को समृद्ध करने और समुदायों को उन्नत करने के अलावा व्यक्तियों में संज्ञानात्मक और सृजनात्मक क्षमताओं तथा व्यक्तिगत प्रसन्नता को बढ़ाने के लिए जानी जाती है। व्यक्तियों की प्रसन्नता / कल्याण, संज्ञानात्मक विकास और सांस्कृतिक पहचान वह महत्वपूर्ण कारण हैं जिसके लिए सभी प्रकार की भारतीय कलाएँ, प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल व शिक्षा से आरम्भ करते हुए शिक्षा के सभी स्तरों को प्रदान की जानी चाहिए। 

1986 की शिक्षा नीति में मंत्रालय का नाम बदलकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय कर दिया था। मनुष्य को संसाधन मात्र मान लेना भारतीय दृष्टि नहीं है बल्कि मनुष्य चेतना युक्त, संवदेनशील प्राणी है, उत्पादन का साधन मात्र नहीं। इस नीति में मंत्रालय का नाम बदलकर पुनः ‘शिक्षा मंत्रालय’ कर दिया है। 

इस नीति की महत्वपूर्ण बात है समग्रता, सर्वांगीण एवं एकात्म दृष्टि (क्रोम्प्रेहेन्सिव, होलेस्टीक एवं इन्टीग्रेटेड एप्रोच) ही भारतीय दृष्टि है। पिछले डेढ़ सौ वर्ष की शिक्षा के कारण हमें हर बात टुकड़ो-टुकड़ों में सोचने की आदत हो गई है। उदाहरण के लिए पर्यावरण, नैतिक मूल्य, कौशल विकास, शारीरिक शिक्षा, योग आदि सभी स्वतंत्र विषय के रूप में पढ़ाने का प्रयास किया जाता है। एक तरफ एन.सी.ई.आर.टी. छात्रों पर वस्ते का बोझ कम करने की बात करती है, दूसरी तरफ हम विषयों को बढ़ाते जाते हैं। यह सारे विषय आवश्यक हैं कि नहीं यह समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है। परन्तु सब अलग-अलग विषय पृथक कर देने से सारे विषय छात्रों को पढ़ाये नहीं जा सकते जिससे छात्र कुछ विषयों से वंचित रह जाते है। 

इस नीति में सभी स्तर पर समग्रता की दृष्टि है। वालक के जन्म से शोध कार्य (Ph.D.) तक का विचार किया गया है। अभी तक पाठ्यचर्या के स्तर पर पाठ्यक्रम एवं सह-पाठ्यक्रम गतिविधियां, इस प्रकार की सोच है। सह-पाठ्यक्रम को द्वितीय श्रेणी का माना जाता है जिसके अंक (नम्बर) नहीं होते। इस कारण से छात्र या अभिभावक इसमें रूचि नहीं रखते। इस नीति में दोनों को समान स्तर पर लाने की बात कही गई है। साथ ही सभी स्तर के पाठ्यक्रम में भारतीय ज्ञान परम्परा के समावेश की बात भी कही गई है। इसी प्रकार पूर्व प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा के स्तर पर ढांचागत बदलाव के पीछे भी समग्रता की दृष्टि दिखाई देती है। साधारणतः 6 वर्ष का बालक 80 प्रतिशत बाते सीख लेता है। इसको ध्यान में रखकर 0-3 वर्ष तथा 4 से 8 वर्ष तक की संरचना में बालक के समग्र विकास पर विशेष ध्यान दिया है। बालक खेल खेल में, गतिविधियों के द्वारा सीखे जिससे उनमें रचनात्मकता, सृजनात्मकता, खोज प्रवृति आदि का विकास हो सके इस प्रकार का पाठ्यक्रम तैयार करने की बात कही गई है।

इस नीति के पृष्ठ 24 के बिन्दु 4.27 में कहा गया है कि ‘भारत का ज्ञान’ में आधुनिक भारत और उसकी सफलताओं और चुनौतियों के साथ प्राचीन भारत का ज्ञान और उसका योगदान शामिल होगा, और शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, आदि के संबंध में भारत की भविष्य की आकांक्षाओं का स्पष्ट भाव शामिल होगा। इन तत्वों को पूरे विद्यालयीन पाठ्यक्रम में जहाँ भी प्रासंगिक हो वहां वैज्ञानिक तरीके से और सटीक रूप से शामिल किया जाएगा। विशेष रूप से भारतीय ज्ञान प्रणाली को सीखने के जनजातीय, स्वदेशी और पारंपरिक तरीकों को जोड़ा जाएगा और गणित, खगोल विज्ञान, दर्शन, योग, वास्तुकला, चिकित्सा, कृषि, इंजीनियरिंग, भाषा विज्ञान, साहित्य, खेल के साथ-साथ शासन, राजव्यवस्था, संरक्षण आदि विषयों को शामिल किया जाएगा। जनजातीय औषधीय प्रथाओं, वन प्रबंधन, जैविक खेती, प्राकृतिक खेती, आदि में विशिष्ट पाठ्यक्रम भी उपलब्ध कराए जाएंगे। भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर एक आकर्षक पाठ्यक्रम भी विकल्प के रूप में माध्यमिक विद्यालय में छात्रों के लिए उपलब्ध होगा। मस्ती और स्वदेशी खेलों के माध्यम से विभिन्न विषयों को सीखने के लिए विद्यालयों में प्रतियोगिताएं आयोजित की जा सकती हैं। पूरे विद्यालय पाठ्यक्रम के दौरान विज्ञान और अन्य क्षेत्रों में प्राचीन और आधुनिक भारत के प्रेरणादायक व्यक्तित्वों पर वीडियो, वृत्तचित्र आदि दिखाए जाएंगे। छात्रों को सांस्कृक्तिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों के अंतर्गत विभिन्न राज्यों का दौरा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। 

इस नीति में एक शब्द का बारम्बार प्रयोग किया है स्थानीयता, स्थानीय भाषा, कला, कारीगरी, सभ्यता आदि। स्थानीयता के साथ-साथ राज्य, राष्ट्र, अन्तर्राष्ट्रीय एवं प्रकृति तक का समन्वित विचार किया गया है। जब स्थानीयता की बात करते है तब स्वदेशी, आत्मनिर्भरता एवं विकेन्द्रित व्यवस्था इसका आधार बनता है। प्राचीन भारतीय व्यवस्था के यही आधार स्तंभ माने गये थे। 

नीति के पृष्ठ 7 के बिन्दु 9 में ‘सभी पाठ्यक्रम शिक्षण-शास्त्र और नीति में स्थानीय संदर्भ की विविधता और स्थानीय परम्परा के लिए सम्मान की बात कही गई है। साथ ही विन्दु 5. 6 में कहा गया है ‘विद्यालयों/विद्यालय संकूल को छात्रों को लाभान्वित करने और स्थानीय ज्ञान और विशेषज्ञता को बढ़ावा देने के लिए, विभिन्न विषयों जैसे पारम्परिक स्थानीय कला, व्यावसायिक शिल्प, उद्यमिता, कृषि या कोई अन्य विषय जहाँ स्थानीय विशेषज्ञता मौजूद है, में स्थानीय प्रतिष्ठित व्यक्तियों या विशेषज्ञों को ‘विशेष प्रशिक्षक’ के रूप में रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। इसके साथ ही इस नीति में अनेक स्थान पर पर्यावरण संरक्षण की बात भी कही गई है। 

शिक्षा अधिगम (पैडागॉजी) के स्तर पर भी समग्रता एवं भारतीयता के समावेश हेतु नीति में प्रयोग आधारित अधिगम अर्थात स्वयं करके सीखना, प्रत्येक विषयों में भारतीय कला, खेल एवं संस्कृक्ति के एकीकरण की बात कही गई है। साथ ही कक्षा 6 से 8 के छात्रों हेतु ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ गतिविधि के द्वारा भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं की एकता एवं एकात्मता के बारे में जान सकेंगे।

इस शिक्षा नीति में कहा गया है कि संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन एवं प्रसार के लिए, हमें उस संस्कृति की भाषाओं का सरंक्षण करना होगा। साथ ही नीति स्वीकार करती है कि ‘भारत की भाषाएं विश्व में सबसे समृद्ध, वैज्ञानिक, सुन्दर एवं अधिक भाववाहक है, जिनमें प्राचीन और आधुनिक साहित्य के विशाल भंडार है। इस हेतु भारतीय भाषाओं के शिक्षण और अधिगम को विद्यालय और उच्चतर शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर एकीकृत करने की आवश्यकता है।’

नीति में कहा गया है कि कम से कम कक्षा 5 तक एवं यदि संभव है तो कक्षा 8 तक मातृभाषा / स्थानीय भाषा क्षेत्रीय या घर की भाषा में शिक्षा दी जाए। त्रिभाषा सूत्र के उचित क्रियान्वयन की बात के साथ संस्कृत का त्रिभाषा सूत्र में समावेश किया गया है। भाषा शिक्षण के अवरोध मिटाने हेतु तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी की सहायता ली जाएगी। इस हेतु एप्स, गेम्स आदि विकसित करने की बात कही गयी है। ऑनलाईन शिक्षा हेतु ई-सामग्री एवं साफ्टवेयर भारतीय भाषाओं में तैयार किए जाएंगे। 

उच्च शिक्षा संस्थानों के अधिक से अधिक पाठ्यक्रम मातृभाषा अथवा द्विभाषी माध्यम से उपलब्ध कराने के प्रयास की बात कही है। विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषा के विभागों के सृदृढ़ीकरण के साथ देश में शास्त्रीय भाषा के संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों का विस्तार किया जाएगा। पाली, प्राकृत एवं  फारसी के राष्ट्रीय संस्थान एवं संविधान की 8 वीं अनुसूची की 22 भाषाओं की अकादमी स्थापित करना तथा राष्ट्रीय अनुभाद संस्थान स्थापित करने आदि की बातें कहीं गई हैं। 

इस प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में सभी स्तरों पर भारतीय संस्कृति, परम्परा, मूल्य, लोकविद्या, भाषाएँ आदि की बात कही गयी है, यह भारत के लिए आनन्द एवं गौरव का विषय है और देश के समग्र नवोत्थान का आधार है। साथ ही यह नीति भारतीय ज्ञान-परंपरा, सांस्कृतिक मूल्यों, स्थानीय भाषाओं, कौशल एवं नवाचार को शिक्षा की मुख्यधारा में स्थापित कर राष्ट्र को आत्मनिर्भर, सशक्त और जागरूक बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है। प्रारम्भिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक लचीलापन, बहुविषयकता, कौशल विकास, अनुसंधान और प्रौद्योगिकी के प्रभावी समन्वय से यह नीति नए भारत के निर्माण का सशक्त साधन बनती है। शिक्षा के भारतीयकरण और वैश्विक प्रतिस्पर्धा की तैयारियों के साथ राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, राष्ट्र के बौद्धिक और सांस्कृतिक उदय का मार्ग भी प्रशस्त करती है।


लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली में राष्ट्रीय सचिव है।