सांस्कृतिक विविधताओं को उजागर करते पर्व -
नीलम भागी, लेखिका
भारत के सभी मंदिरों में भगवान गर्भ ग्रह में स्थापित रहते हैं पर हमारे जगन्नाथ जी मंदिर से बाहर गुढ़िंचा मंदिर मासी माँ के यहां जाते हैं। 27 जून को बहन सुभद्रा की नगर भ्रमण की इच्छा पूरी करने के लिए अपने भाई बलदेव के साथ अलग-अलग रथों में बैठ कर भक्तों को दर्शन देते हुए गए। वहां आठ दिन रहते हैं। दसवें दिन वापिस आते हैं जिसे बोहुडा यात्रा कहते हैं। ऐसा मानते हैं जैसे भगवान मथुरा से वृंदावन गए थे। भगवान तो सबके हैं लेकिन मंदिर में प्रवेश केवल हिन्दुओं को दिया जाता है। जिनके मन में भगवान के दर्शन करने की लालसा है। वे रथ यात्रा में जाकर मंदिर से बाहर भगवान के दर्शन कर सकते हैं।
अंतिम पूजा 24 जुलाई तक मनाया जाने वाला तेलंगाना का राज्य महोत्सव बोनालु हैदराबाद, सिकंदराबाद तेलंगाना के अलावा भारत के कई अन्य हिस्सों में आषाढ़ के एक महीने तक बहुत श्रद्धा से मनाया जाता है। आशाढ़ के प्रत्येक रविवार महाकाली के मंदिर से बाजे गाजे के साथ जलूस निकलता है। त्योहार के पहले और अंतिम दिन देवी येलम्मा के लिए विशेष पूजाएं की जाती हैं। मन्नत पूर्ति पर तो देवी को धन्यवाद देने के लिए बहुत जोर शोर से मनाया जाता है। 200 साल से बोनालू पारंपरिक लोक उत्सव की शुरुआत हुई थी। श्रद्धालुओं का मानना है कि एक बार प्लेग फैला था जिसका कारण देवी का रुष्ट होना है। उसके बाद से बोनालू में देवी को अच्छी फसल के लिए धन्यवाद करते हैं। अच्छी वर्षा और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं। वर्षा के कारण होने वाले संक्रमण से बचाने की प्रार्थना करते हैं। तेलंगाना राज्योत्सव पवित्र बोनालू उत्सव को भव्यता के साथ मनाने और भक्तों को उत्तम सुविधा उपलब्ध कराने के लिए राज्य सरकार की ओर से नई मंदिर समिति का गठन किया गया है।
गुप्त नवरात्र का प्रयोग तन्त्र शक्ति उपासना के लिए होता है इसलिए इसे आषाढ़ गुप्त नवरात्र कहते हैं। इसे उत्तरी राज्यों में मनाया जाता है। 26 जून से शुरू हैं, 4 जुलाई को समापन होगा। आषाढ़ मास में वर्षा का आगमन होता हैं इसलिए 1950 से जुलाई के पहले सप्ताह में सरकार देशभर में ‘वन महोत्सव’ (पेड़ों का त्योहार) का आयोजन करती है। इस दौरान स्कूलों कॉलेजों, प्राइवेट संस्थानों द्वारा पौधारोपण किया जाता है। जिससे लोगों में पेड़ों के प्रति जागरूकता पैदा होती है।
दश कूप सम वापी, दश वापी समोहृदः।
दशहृदसमः पुत्रो, दशपुत्रसमो द्रुमः।
दस कुओं के बराबर एक बावड़ी है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है। मत्स्य पुराण का यह कथन हमें पेड़ लगाने और उनकी देखभाल करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
जिस उत्साह से वन महोत्सव पर वृक्षारोपण किया जाता हैं। उसी तरह उनका संरक्षण भी किया जाना चाहिए। हमें बच्चों को भी बचपन से ही पर्यावरण से जोड़ना चाहिए। 3 जुलाई को शुरू होने वाली अमरनाथ तीर्थयात्रा में जाना भी हमारे यहां उत्सव माना जाता है। पहली बार यह 38 दिनों की अवधि के लिए है। पृथ्वी का सम्मान करने के लिए आदिवासी उत्सव खर्ची पूजा 3 जुलाई, त्रिपुरा का एक सप्ताह तक मनाया जाने वाला महत्वपूर्ण त्योहार है। इस त्योहार पर 14 देवताओं को शाही पुजारी नदी पर पवित्र स्नान करा कर वापिस मंदिर में स्थापित करते हैं। लोग देवताओं के साथ पृथ्वी की भी पूजा करते हैं। इसके दो सप्ताह बाद 19 जुलाई को केर पूजा, इस प्रक्रिया का अंतिम भाग है। इसमें वास्तु देवता के संरक्षक देवता केर का सम्मान किया जाता है। देवशयनी एकादशी, थोली एकादशी, हरिशयनी एकादशी 6 जुलाई को है। इस दिन से सभी प्रकार के मांगलिक कार्यक्रम, विवाह आदि नहीं किए जाते हैं। मान्यताओं के अनुसार इसी दिन से भगवान विष्णु 4 महीनों के लिए योग निद्रा में जाते हैं। चौमासा शुरु हो जाता है और देवी देवता विश्राम को चले जाते हैं। इस अवधि में अत्यधिक वर्षा के कारण संत समाज एक ही स्थान पर रूक कर व्रत, ध्यान और तप करते हैं। गुरु पूर्णिमा 10 जुलाई को भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दुओं और बौद्धों द्वारा अपने गुरुओं को कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। यह आध्यात्मिक और अकादमिक गुरुजनों को समर्पित परम्परा है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को खास माना जाता है। इस दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। जीवन में गुरू का बहुत महत्व है। तुलसीदास जी रामचरित मानस में लिखते हैं
गुरू बिन भवनिधि तरे न कोई,
जो बिरंचि संकर सम होई।।
अर्थात् कोई स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, शंकर के समान ही क्यों न बन जाए। बिना गुरू के उद्धार नहीं हो सकता। यही कारण है कि पूर्णावतार श्री राम, कृष्ण ने भी गुरू बनाए थे। अतः ऐसे गुरू की तलाश में रहना चाहिए जो हमारे अवगुणों को दूर करने में हमारी मदद करे। इस दिन अपने गुरू को यथासम्भव दक्षिणा देते हैं। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। गुरु वेदव्यास ने वेदों को लिखा, जिसे ब्रह्मा ने पढ़ा। उन्होंने पुराण भी लिखे। यह भी माना जाता है कि उन्होंने इस दिन ब्रह्म सूत्रों को पूरा किया। उनके जन्म दिन पर उसी दिन से एक दिन गुरुओं को समर्पित है। गुरु या शिक्षक वह होता है जो हमारे जीवन में मार्गदर्शक की तरह काम करता है।
11 जुलाई से सावन शुरू है और सावन में धरती हरियाली से ढक जाती है। नई बहू को पहले सावन में मैके भेज दिया जाता है। रिवाज है कि पहला सावन सास बहू इक्ट्ठे नहीं रहतीं हैं। हमारे लोकगीतों में भी हरियाली, सावन के झूले, रिमझिम वर्षा की फुहारों में झूलती गाती सखियां होती हैं। पहले छोटी आयु में बेटियों की शादी हो जाती थी। वह पहला सावन पुरानी सखियों के साथ मना जातीं हैं। श्रावण मास में भगवान शंकर की पूजा का विशेश महत्व है। सावन केे पहले सोमवार 14 जुलाई से शिवभक्त कांवड लेने जा सकते हैं। फिर हरिद्वार या गोमुख से यात्रा आरम्भ होती है। कंधे पर कांवड़ में गंगा जल होता है और ये यात्रा कांवड़ यात्रा कहलाती है। जो कांवड़ लेने जाते हैं वे भगवा भेश में होते हैं। कोई शिवजी का गण बना होता है। सजा हुआ कावंड उठाए कांवड़िए का एक ही नाम होता है ‘भोला’। यात्रा में भोले कंघी, तेल, साबुन का इस्तेमाल नहीं करते हैं। मार्ग में कांवड़ को धरती से नहीं छूना है। कांवड़ शिविर में उसे टांगते हैं और आराम करते हैं। यात्रा में इनके आपस में पारिवारिक संबंध भी बन जाते हैं। जो कांवड़ लेने नहीं जाते वे कांवड़ शिविर में सेवा करने जाते हैं। सावन की शिवरात्रि 23 जुलाई को शिवजी का जलाभिषेक किया जाता है। उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और हिमाचल में साल में तीन बार मनाया जाने ने वाला पर्व हरेला (16 जुलाई) का सावन के महीने में बहुत महत्व है। पर्व के लिए पकवान बनाए जाते हैं उत्तराखंड में उड़द के पकौड़े बनाना जरूरी होता है। हरेला पर्व के दिन प्रकृति की रक्षा का संकल्प लेकर पौधे रोपे जाते हैं।
बेहदीनखलम (हैजा के दानव को भगाना) महोत्सव 11 से 14 जुलाई, 3 दिन तक चलने वाला मेघालय का त्योहार है। फसल बोने के बाद भगवान से अच्छी वर्षा, समृद्ध फसल के लिए प्रार्थना की जाती है। भगवान को बुलाने के लिए पारंपरिक पोशाक में सांस्कृतिक कार्यक्रम किए जाते हैं। अंतिम दिन 14 जुलाई को फुटबॉल मैच खेला जाता है। ऐसा मानना है कि विजेताओं की समृद्ध फसल पैदा होगी। सिंधारा तीज 27 जुलाई, जिसे हरियाली तीज भी कहते हैं। सावन में आने वाले इस त्यौहार में प्रकृति ने हरियाली की चादर ओढ़ी होती है। इस दिन को भोलेनाथ और माता पार्वती के पुनर्मिलन का दिन माना जाता है। यह महिलाओं का उत्सव है। सावन की बौछारों में हरे भरे पेड़ो पर झूले पड़ जाते हैं। कहीं कहीं यह उत्सव तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन मायके से सिंधारा में घेवर मिठाई, मेहंदी, चूड़ियां आदि सुहाग की चीजे आतीं हैं। दूसरे दिन हरी हरी मेहंदी हाथ पैरों में लगाई जाती है। अगले दिन सौभाग्यवती महिलाएं पकवान बनाती हैं और हरी पोशाक पहने, श्रृंगार करके माता पार्वती की पूजा करती हैं। सास को बायना देकर उनसे आर्शीवाद लेकर सपरिवार भोजन करती हैं। कहीं कहीं पर इससे पहले दिन से निर्जला व्रत रखती हैं। नई बहू को मैके भेज दिया जाता है। तीज पर ससुराल से बहू के लिए सिंधारा जाता है। 27 जुलाई से हिमाचल के चंबा जिले में सावन की रिमझिम फुहारों के बीच में मिंजर मेले का आयोजन किया जाता है। सात दिन तक चलने वाले इस मेले में लगता है जैसे पुराने जमाने में आ गए हों। महिलाएं पुरुष पारंपरिक पोशाकों में अपने लोक नृत्य करते हैं। फसल उत्सव है। गेहूँ, धान, मक्की और जौ की बालियों को स्थानीय भाषा में मिंजर कहते हैं। इस मेले में सबसे पहले भगवान लक्ष्मीनारायण को मिंजर अर्पित की जाती है। उसके बाद अखंड चंडी महल में भगवान रघुवीर को इसे चढ़ाया जाता है। ऐतिहासिक चौगान में ध्वज चढ़ाने के बाद मिंजर का आगाज होता है। नाग को हमारे यहां देवता की तरह पूजा जाता है। नागपंचमी (29 जुलाई) पर इनकी पूजा का विषेश दिन होता है। हमारे पूर्वजों ने इनकी पूजा करके हमें बताया है कि सभी सांप जहरीले नहीं होते हैं। इनको देखते ही मारना नहीं चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म सावन महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को हुआ था। इस वर्ष 31 जुलाई को उनकी 528वीं जयंती है। इनके द्वारा रचित श्री रामचरितमानस और हनुमान चालीसा को घर में रखना शुभ मानते हैं। तुलसी जयंती को देश भर में संगोष्ठी और सेमिनार आयोजित किए जाते हैं। हरियाली धरती का सौन्दर्य है। उसी से हम सबका जीवन संभव है। और हमारा कर्त्तव्य है कि इसकी हरियाली को बनाये रखें। हमारे उत्सव हमें बताते हैं कि प्रकृति का महत्व हमारे जीवन के हर रंग में है।