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दीये की लौ से जापान तक : बाराबंकी की पूजा बनीं आत्मनिर्भर भारत की मिसाल

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बाराबंकी, उत्तर प्रदेश

जब सपनों के पीछे जज्बा हो और कदमों में संकल्प की दृढ़ता , तब दीये की टिमटिमाती लौ भी जापान की प्रयोगशालाओं तक रोशनी पहुँचा सकती है। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी की बेटी पूजा पाल ने यह साबित कर दिखाया है। मिट्टी, गरीबी और अभावों के बीच पली-बढ़ी इस संकल्पशील बिटिया ने एक ऐसा वैज्ञानिक मॉडल बनाया , जिसने न केवल भारत के तिरंगे को जापान में लहराया, बल्कि आत्मनिर्भर भारत और पर्यावरणीय नवाचार की सोच को भी नई उड़ान दी। छप्पर वाले घर में दीये की रोशनी में पढ़ती पूजा के पास न बिजली थी, न शौचालय—लेकिन विचारों में ऊर्जा थी और आँखों में उजाला। खेतों में उड़ती धूल को देख पूजा ने एक ‘धूल-रहित थ्रेशर मशीन’ बना डाली, जो न केवल किसानों को राहत दे, बल्कि पर्यावरण को भी दूषित होने से बचाए। यह सिर्फ एक मॉडल नहीं, ग्रामीण भारत की जमीनी जरूरतों को समझकर खड़ा किया गया स्थानीय समाधान था - कम लागत, अधिक उपयोगिता और शत-प्रतिशत देसी सोच । यही सतत विकास की असली परिभाषा है। पूजा का यह आविष्कार स्थानीय से निकलकर राज्य, फिर राष्ट्रीय विज्ञान मेले तक पहुँचा और फिर वही बेटी भारत सरकार द्वारा जापान के लिए चयनित हुई—अपने गांव, अपने स्कूल और अपने देश का मान बढ़ाने के लिए। यह उस भारत की कहानी है जहाँ प्रतिभा सुविधाओं की मोहताज नहीं, बल्कि साधनों की सीमाओं को भी अवसर बना देती है । पूजा की यह यात्रा सिर्फ विज्ञान की नहीं, अपितु स्वावलंबन, पर्यावरणीय जागरूकता और नारी शक्ति की भी है। जापान से लौटने के बाद पूजा अब अपने गांव के बच्चों को पढ़ाना चाहती है—उन्हें वह रास्ता दिखाना चाहती है, जो उसने कांटों से तय किया। पूजा पाल सिर्फ एक नाम नहीं, वह प्रतीक हैं—एक हरित, आत्मनिर्भर और नवोन्मेषी भारत की।

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