वर्तमान सामाजिक समस्याओं के समाधान में पंच परिवर्तन का महत्व
परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है। समय, परिस्थिति और समाज के साथ मान्यताएँ बदलती रहती हैं। यह बदलाव कभी धीमे-धीमे होता है तो कभी युगांतकारी स्वरूप में। आज का भारत भी एक ऐसे ही निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में चमत्कारिक प्रगति करने के बावजूद हम अपने जीवन में अजीब-सी खालीपन और बेचैनी महसूस करते हैं। भौतिक विकास के साथ-साथ समाज को जिन मूल्यों और आदर्शों की जरूरत थी, वे धीरे-धीरे पीछे छूटते चले गए। पर्यावरण असंतुलन, सामाजिक विघटन, परिवारों का टूटना, नैतिक मूल्यों का पतन, उपभोक्तावाद, अंधानुकरण और आत्मकेंद्रित जीवनशैली ये सब हमारी तेज प्रगति की छाया में जन्मी समस्याएँ हैं। ये समस्याएँ केवल भारत की नहीं, पूरे विश्व की चिंता बन चुकी हैं। किंतु भारत की विशेषता यह है कि उसने हमेशा केवल भौतिक उन्नति ही नहीं, बल्कि जीवन की आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति को भी महत्व दिया है। जब भी दुनिया किसी संकट में पड़ी है, भारत ने अपनी सांस्कृतिक विरासत और जीवन-दर्शन के आधार पर मार्ग दिखाया है। आज भी भारत के पास अपने संकटों से ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व को दिशा देने की क्षमता है। इसी संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी ने समाज के सामने ”पंच परिवर्तन“ की संकल्पना रखी। यह कोई क्षणिक विचार नहीं, बल्कि जीवन की जड़ों तक पहुँचने वाला मार्गदर्शन है। भागवत जी ने स्पष्ट किया कि यदि हमें समाज और राष्ट्र की दशा सुधारनी है तो यह कार्य किसी बाहरी शक्ति या विदेशी विचारधारा से नहीं होगा, बल्कि यह परिवर्तन भीतर से आएगा। पंच परिवर्तन का विचार व्यक्ति से शुरू होकर परिवार, समाज, प्रकृति और राष्ट्र तक विस्तृत है। सबसे पहले परिवर्तन व्यक्ति के भीतर होना चाहिए। जब व्यक्ति संयम, अनुशासन, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और सादगी से जीना सीखता है, तो उसका यह आचरण उसके परिवार को प्रभावित करता है। एक सुसंस्कारित और समरस परिवार ही स्वस्थ समाज की नींव रखता है। समाज की एकता और समरसता से ही राष्ट्र शक्तिशाली बनता है। यही विचार पंच परिवर्तन का सार है। हमारे देश के इतिहास में अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने दिखाया कि बदलाव की शुरुआत व्यक्ति से होती है। महात्मा गांधी इसका उज्ज्वल उदाहरण हैं। उन्होंने अपने जीवन में सत्य और अहिंसा को अपनाया और वही आचरण करोड़ों भारतीयों की प्रेरणा बना। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि आत्मबल और आचरण की शक्ति किसी भी हिंसक आंदोलन से अधिक प्रभावशाली होती है। भारतीय परंपरा का आदर्श भी यही रहा है-”आत्म दीपो भव“ -पहले स्वयं को आलोकित करो, तभी संसार को प्रकाशमान कर पाओगे। व्यक्ति में यह परिवर्तन तभी संभव है जब वह उपभोग के मोह से मुक्त होकर सादगी और संयम को अपनाए। उपभोक्तावाद न केवल संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करता है, बल्कि व्यक्ति के मन को भी असंतोष और लालसा से भर देता है। संयमपूर्ण जीवन हमें अनावश्यक खर्चों और दिखावे से बचाता है और आत्मिक संतोष प्रदान करता है। यह दृष्टिकोण न केवल व्यक्ति बल्कि समाज और पर्यावरण के लिए भी हितकारी है। इसके बाद परिवार में परिवर्तन की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति में परिवार मात्र रक्त-संबंध नहीं, बल्कि संस्कारों का विद्यालय रहा है। यह वह स्थान है जहाँ बच्चे प्रेम, सहयोग, जिम्मेदारी और कर्तव्य का पाठ सीखते हैं। आज न्यूक्लियर फैमिली और पश्चिमी जीवनशैली के प्रभाव से परिवार बिखर रहे हैं। इस टूटन ने समाज में संवाद, अपनत्व और संस्कारों की जड़ें कमजोर की हैं।
मोहन भागवत जी ने परिवार को मजबूत बनाने के लिए कुटुम्ब प्रबोधन की संकल्पना प्रस्तुत की। इसमें उन्होंने छह बातें विशेष रूप से सुझाईं -परिवार में साथ मिलकर भजन और प्रार्थना करना ताकि आध्यात्मिक जुड़ाव बढ़े; दिन में कम-से-कम एक बार साथ भोजन करना जिससे संवाद और आत्मीयता कायम रहे; घर को ऐसा बनाना जिसमें संस्कृति और महापुरुषों की छवि झलके; घर की बातचीत में मातृभाषा का प्रयोग करना जिससे स्वाभिमान और अपनी जड़ों से जुड़ाव बना रहे; पहनावे में सादगी और संस्कार झलके; और समय-समय पर देश के ऐतिहासिक व तीर्थस्थलों का भ्रमण कर नई पीढ़ी को गौरवशाली परंपरा से परिचित कराना। ये सरल-से लगने वाले उपाय परिवार के वातावरण को बदलने की क्षमता रखते हैं।
तीसरा आयाम है समाज में समरसता की स्थापना। किसी भी राष्ट्र की शक्ति उसके समाज की एकता में निहित होती है। लेकिन दुर्भाग्यवश, हमारे समाज में जातिगत विभाजन की खाई गहरी हुई। यह विभाजन हमारे स्वाभाविक जीवन का हिस्सा नहीं था, बल्कि विदेशी आक्रमणकारियों और औपनिवेशिक शासकों ने इसे जान-बूझकर भड़काया। उन्होंने हमारी कमजोरियों का फायदा उठाकर हमें आपस में बाँट दिया। इससे न केवल समाज कमजोर हुआ बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर भी चोट पहुँची।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई। वे हिंदू धर्म के विरोधी नहीं थे, बल्कि उसमें फैली कुरीतियों को दूर करना चाहते थे। उनका मानना था कि सामाजिक न्याय और समानता के बिना राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता। उनका जीवन और संघर्ष हमें यह सिखाता है कि समाज में बदलाव केवल कानून या दंड से नहीं, बल्कि दृष्टिकोण बदलने से आता है। संघ ने भी स्थापना के समय से ही समाज को एकजुट करने के लिए ”समता, ममता और समरसता“ को अपनाया। यह दृष्टिकोण किसी पर दबाव डालने या टकराव पैदा करने का नहीं, बल्कि हृदय परिवर्तन करने का था। अनेक सेवा-कार्यों के माध्यम से संघ ने जाति और पंथ से ऊपर उठकर समाज के वंचित वर्गों तक शिक्षा, स्वास्थ्य और आत्मसम्मान पहुँचाया। वनवासी कल्याण आश्रम और सेवा भारती जैसे संगठनों ने देश के कोने-कोने में आदिवासी और वंचित समाज के लिए विद्यालय, छात्रावास, अस्पताल और अन्य कल्याणकारी संस्थाएँ स्थापित कर समाज को मजबूत करने का कार्य किया। चौथा आयाम है प्रकृति के साथ हमारे संबंधों में परिवर्तन। आधुनिक विकास की अंधी दौड़ ने हमें प्रकृति से दूर कर दिया है। जंगल कट रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं, हवा और मिट्टी प्रदूषित हो रही है। जलवायु परिवर्तन आज मानवता के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहा है। भारतीय संस्कृति ने हमेशा प्रकृति को माता का स्थान दिया है-”माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः“। इसलिए हमें प्रकृति के साथ उपभोग नहीं, सहजीवन का रिश्ता बनाना होगा।
मोहन भागवत जी का आह्वान-”वृक्ष लगाओ, पानी बचाओ, पॉलिथीन हटाओ“ -केवल पर्यावरण अभियान का नारा नहीं, बल्कि जीवनशैली का संदेश है। ऊर्जा की बचत, जल का विवेकपूर्ण उपयोग और हानिकारक रसायनों से बचाव - ये बातें केवल सरकार के प्रयासों से नहीं, बल्कि आम लोगों की आदतों में बदलाव से संभव होंगी। ”चिपको आंदोलन“ की महिलाओं ने जिस तरह वृक्षों को बचाने के लिए अपने शरीरों से उन्हें ढँक लिया, वह दिखाता है कि प्रकृति-संरक्षण एक सामूहिक संकल्प से ही सफल हो सकता है।
पंच परिवर्तन का अंतिम आयाम राष्ट्र-जीवन में परिवर्तन है। राष्ट्र कोई भौगोलिक इकाई मात्र नहीं है; यह इतिहास, संस्कृति और परंपराओं का जीवंत प्रवाह है। राष्ट्र तभी शक्तिशाली बनेगा जब उसके नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होंगे और व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को प्राथमिकता देंगे। जब समाज संगठित, आत्मनिर्भर और कर्तव्यनिष्ठ होगा, तभी राष्ट्र समृद्ध और सुरक्षित बनेगा।
हमारे स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास बताता है कि लाखों सामान्य नागरिकों के छोटे-छोटे त्याग ने ही भारत को आजादी दिलाई। यह त्याग और समर्पण ही राष्ट्र-जीवन में परिवर्तन का आधार है। आज हमें फिर उसी भावना की आवश्यकता है। बिजली, पानी, प्राकृतिक संसाधन और देश की हर उपलब्धि को हम तभी बचा पाएंगे जब इन्हें राष्ट्र की धरोहर मानकर संभालेंगे।
अंततः, पंच परिवर्तन केवल एक सिद्धांत नहीं, बल्कि जीवन जीने की समग्र पद्धति है। यह हमें बताता है कि भौतिक सुख-सुविधाओं से परे जाकर ही जीवन सार्थक होता है। आत्मसंयम, परिवार में प्रेम और संस्कार, समाज में समरसता, प्रकृति के साथ संतुलन और राष्ट्रहित की भावना-ये सब मिलकर न केवल भारत को बल्कि पूरे विश्व को शांति, संतुलन और समृद्धि की ओर ले जा सकते हैं।
भारत की सनातन संस्कृति ने युगों-युगों तक विश्व को मार्ग दिखाया है। आज आवश्यकता है कि हम अपने भीतर झाँकें, अपनी जड़ों की ओर लौटें और पंच परिवर्तन के इन सिद्धांतों को जीवन में अपनाएँ। ऐसा करके भारत न केवल अपने संकटों से उबरेगा, बल्कि विश्व को भी एक नई दिशा देगा। यही वह पथ है, जिस पर चलकर भारत पुनः ”विश्वगुरु“ की भूमिका निभा सकता है।




