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संघ के शताब्दी वर्ष का विराट पथ संचलन

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संघ के शताब्दी वर्ष का विराट पथ संचलन 

राष्ट्र की चेतना को सजीव रखने वाले संगठनों का मूल्यांकन केवल वर्षों की गिनती से नहीं, बल्कि उनके द्वारा समाज में उत्पन्न आत्मविश्वास, अनुशासन और एकात्मता की भावना से किया जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसने 1925 में डॉ. हेडगेवार जी के नेतृत्व में नागपुर की एक छोटी शाखा से अपनी यात्रा प्रारंभ की थी, आज अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस अवसर पर देश के कोने-कोने में आयोजित ”विराट पथ संचलन“ केवल एक स्मरणोत्सव या प्रदर्शन मात्र नहीं, बल्कि एक सजीव प्रमाण हैं उस संगठनात्मक अनुशासन, आत्मीयता और राष्ट्रीय भाव का, जिसे संघ ने पिछले सौ वर्षों में भारतीय समाज की चेतना में गहराई तक स्थापित किया है और इसलिए आज वह समाज के प्रति उसकी अटूट निष्ठा का सजीव प्रतीक बन गया है।

संघ का यह शताब्दी वर्ष अपने आप में ऐतिहासिक है। यह वह समय है जब भारत विश्व पटल पर एक आत्मविश्वासी राष्ट्र के रूप में उभर रहा है। विज्ञान, तकनीक, अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में भारत की भूमिका निरंतर बढ़ रही है। ऐसे दौर में संघ का शताब्दी वर्ष एक नए आत्मबोध का क्षण है, जहां संगठन स्वयं को नहीं, बल्कि उस भारत के स्व के भाव  को पुनः स्थापित कर रहा है, जो इस भूमि की आत्मा में निहित है। विराट पथ संचलन इसी भाव का मूर्त रूप है, जब हजारों स्वयंसेवक, एक वेश में, एक स्वर में, एक ही लय में आगे बढ़ते हैं, तो वह दृश्य केवल संघ का नहीं, राष्ट्र की एकात्मता का प्रतीक बन जाता है। 

देश के विभिन्न प्रांतों में जब ये पथ संचलन निकले, तब नगरों की गलियाँ केसरिया रंग में रंग गईं, घरों की छतों से मातृशक्ति ने पुष्प वर्षा की, बच्चों ने ‘वंदे मातरम्’ के गीत गाये। हर नगर, हर मोहल्ला इस एकात्मता के साक्षात्कार का साक्षी बना। भोपाल, वाराणसी, नागपुर, इंदौर, दिल्ली, धारवाड़, मथुरा, पुणे, चेन्नई, लखनऊ हर जगह यह संचलन समान उत्साह और अनुशासन के साथ निकला। इन पथ संचलनों में कोई राजनीतिक प्रदर्शन नहीं था, कोई सत्ता की आकांक्षा नहीं थी, यह राष्ट्रभाव, शौर्य और अनुशासन का सार्वजनिक दर्शन था। छोटे-छोटे नगरों से लेकर महानगरों तक, संघ के गणवेशधारी स्वयंसेवकों की कतारें न केवल देखने योग्य थीं, बल्कि प्रेरणा देने वाली भी थीं। बच्चे, युवा, और वृद्ध  सभी आयु वर्गों के स्वयंसेवक अपने दंड और ध्वज के साथ पंक्तिबद्ध होकर जब ”भारत माता की जय“ का उद्घोष करते हुए बढ़ते, तो प्रत्येक दर्शक के मन में यह भाव जागता कि यह संगठन केवल एक संस्था नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का प्रवाह है। 

प्रत्येक स्वयंसेवक के लिए यह संचलन वर्षों की शाखा-प्रशिक्षण और आत्मसंयम का प्रतिफल था, एक साधना थी। यह आयोजन संघ के मूल उद्देश्य की पुनर्पुष्टि थी कि राष्ट्र सेवा केवल शब्दों या नारों से नहीं, बल्कि अनुशासित जीवन और समर्पित कर्म से संभव है। संघ का यह ”शताब्दी पथ संचलन“ स्वयंसेवकों के लिए आत्मपरीक्षण और आत्मप्रकाश का अवसर बना, एक आह्वान कि वे अपने भीतर के संगठन-भाव को और अधिक सशक्त करें।

इन आयोजनों की तैयारी भी अपने आप में एक विशाल अभ्यास थी, संघ की कार्यपद्धति की मिसाल थी। महीनों पहले से स्वयंसेवकों ने स्थानीय स्तर पर योजना बनाई। नगरों में मार्ग चिन्हित किए गए, नागरिक समितियां बनीं, प्रशासन से समन्वय स्थापित हुआ। समाज का हर वर्ग इस आयोजन का सहभागी बना। इस से स्पष्ट होता है कि संघ आज केवल शाखाओं तक सीमित नहीं, बल्कि शिक्षा, ग्रामोन्नति, महिला- सशक्तिकरण, पर्यावरण, स्वास्थ्य और सेवा के क्षेत्रों में भी व्यापक सामाजिक चेतना का संवाहक बन चुका है। संघ के पथ सञ्चलन के दृश्य इस बात का प्रमाण हैं कि संघ का कार्य अब केवल पुरुष-केन्द्रित नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग की सहभागिता से समरस रूप ले चुका है। 

कुछ स्थानों पर विदेशी नागरिकों ने भी इन पथ संचलनों को देखकर भारतीय संगठन शक्ति, अनुशासन और आत्मीयता की सराहना की। यह अपने आप में भारत की सॉफ्ट पावर का परिचायक है, जिसे बिना किसी राजनीतिक या धार्मिक नारे के, केवल एक समान वेश, संयमित चाल और सामूहिक निष्ठा के माध्यम से संघ द्वारा भारतीय संस्कृति की सजीवता के द्वारा परिचित कराया गया। यह अनुशासन, जो किसी भय से नहीं, बल्कि आत्म-संयम और राष्ट्र-निष्ठा से उत्पन्न होता है, भारतीय सभ्यता की विशेष पहचान है। 

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने कहा था, ”संघ का लक्ष्य मनुष्य बनाना है, और मनुष्य के माध्यम से राष्ट्र का उत्थान करना।“ शताब्दी वर्ष का यह संचलन उसी विचार का मूर्त रूप बना। जब लाखों स्वयंसेवक एक स्वर में, एक दिशा में आगे बढ़े, तो लगा मानो राष्ट्र की आत्मा स्वयं चल रही हो। यह आयोजन न केवल बीते सौ वर्षों की साधना का स्मरण था, बल्कि आने वाले शताब्दी की दिशा का भी संकेत भी है।

यह भी महत्वपूर्ण है कि संघ का यह शताब्दी आयोजन ऐसे समय में हो रहा है जब भारत विश्व के नेतृत्व की भूमिका में आगे बढ़ रहा है। जी-20, अंतरिक्ष विज्ञान, डिजिटल क्रांति, जलवायु परिवर्तन और वैश्विक संघर्षों के बीच भारत का दृष्टिकोण ‘विश्व को एक परिवार मानने’ वाला रहा है। संघ का मूलमंत्र ”वसुधैव कुटुम्बकम्“ की भावना अब केवल शास्त्रों तक सीमित नहीं रही, बल्कि वैश्विक नीति का मार्गदर्शक बन रही है। अतः शताब्दी वर्ष का पथ संचलन इस दृष्टि का द्योतक है, कि यह केवल राष्ट्रीय नहीं, बल्कि वैश्विक एकात्मता का भी प्रतीक है। 

इतिहास के संदर्भ में यदि देखें, तो संघ ने अनेक संकटों में देश को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया है, विभाजन के समय राहत कार्य, 1962, 1965 और 1971 के युद्धों में नागरिक सहायता, 1975 के आपातकाल में लोकतंत्र की रक्षा, 1990 के दशक में सामाजिक समरसता के प्रयास, और कोविड काल में सेवा भारती के माध्यम से चलाए गए राहत अभियान आदि ये सभी उदाहरण बताते हैं कि संघ का कार्यकाल मात्र वैचारिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक राष्ट्र-सेवा से जुड़ा रहा है। ऐसे में शताब्दी वर्ष का आयोजन उस निरंतर साधना की परिणति के रूप में देखा जाना चाहिए। 

विराट पथ संचलन का एक अन्य अर्थ यह भी है कि समाज में ‘संगठित जीवन’ की संस्कृति को पुनः स्थापित किया जाए। आधुनिकता और उपभोक्तावाद के इस दौर में, जहाँ व्यक्ति अपने दायित्वों से विमुख हो रहा है, संघ का यह अनुशासित प्रदर्शन हमें यह याद दिलाता है कि राष्ट्रीय जीवन का आधार केवल व्यक्तिगत सफलता नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना है। इस चेतना के बिना राष्ट्र केवल एक भौगोलिक इकाई रह जाता है; और संघ का यही उद्देश्य है, कि भारत केवल भूमि का नहीं, बल्कि भाव का राष्ट्र बने। 

यह भी उल्लेखनीय है कि शताब्दी वर्ष के पथ संचलनों में बड़ी संख्या में युवा वर्ग शामिल हुआ। यह इस बात का संकेत है कि नई पीढ़ी संघ की विचारधारा को केवल परंपरा के रूप में नहीं, बल्कि आधुनिक राष्ट्र-निर्माण की ऊर्जा के रूप में देख रही है। टेक्नोलॉजी, स्टार्टअप, सामाजिक मीडिया और आधुनिक शिक्षा से जुड़ी यह पीढ़ी जब शाखा और पथ संचलन के अनुशासन से जुड़ती है, तो यह भारत के भविष्य के लिए एक सकारात्मक संकेत है। 

संपूर्ण दृष्टि से देखा जाए तो संघ का विराट पथ संचलन भारतीय समाज की अदृश्य एकता का दृश्य रूप है। इसने यह संदेश दिया कि राष्ट्र का उत्थान केवल सरकारों या नीतियों से नहीं होता, बल्कि नागरिकों के जाग्रत और संगठित होने से होता है। संघ की यह कार्यपद्धति किसी के विरोध पर आधारित नहीं, बल्कि स्वयं के अनुशासन और समाज के उत्थान पर आधारित है। यही कारण है कि शताब्दी वर्ष के पथ संचलनों को केवल संघ का कार्यक्रम न मानकर, भारतीय संस्कृति की सामूहिक शक्ति का उत्सव कहा जाना चाहिए। 

आज जब भारत अपनी सभ्यता की पुनर्स्थापना के स्वर्ण युग की ओर अग्रसर है, तब संघ का यह विराट पथ संचलन उस यात्रा का आरंभिक स्वर है। इसमें दिखने वाली एकरूपता, आत्मविश्वास और संगठन-शक्ति केवल एक संस्था की नहीं, बल्कि एक राष्ट्र की आत्मा की अभिव्यक्ति है। यह आयोजन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनेगा कि जब समाज संगठित होता है, तो कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष का यह विराट पथ संचलन इतिहास के पन्नों में केवल एक आयोजन के रूप में नहीं, बल्कि एक युगचेतना के पुनर्जागरण के रूप में दर्ज होगा, जहाँ एक संगठन ने अपने अस्तित्व से परे जाकर पूरे राष्ट्र को उसकी आत्मा का स्मरण कराया। यही उस साधना का सार है जो संघ ने सौ वर्षों में सींची है

”हम हैं, तो राष्ट्र है; और राष्ट्र है, तो हम हैं।“ यह पथ संचलन, वास्तव में, भारत की अखंड यात्रा का प्रतीक है जो सहस्राब्दियों से चल रही है और आने वाले युगों तक प्रेरणा बनकर प्रवाहित होती रहेगी।

लेखक सरकार द्वारा ‘शिक्षक श्री’ पुरस्कार से विभूषित ख्यातिप्राप्त शिक्षाविद, शैक्षिक प्रशासक प्रोफेसर एवं राष्ट्रवादी चिन्तक हैं।