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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नारी उत्थान: शताब्दी की प्रेरक यात्रा

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नारी उत्थान: शताब्दी की प्रेरक यात्रा 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज अपनी शताब्दी यात्रा पर है। एक सदी की यह यात्रा केवल संगठन की विस्तार गाथा नहीं, बल्कि समाज-जीवन में परिवर्तन और राष्ट्र चेतना के पुनर्जागरण की कथा है। इस सौ वर्ष के कालखण्ड में संघ ने जहां राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक एकता का भाव जगाया, वहीं महिलाओं के जीवन, उनकी भूमिका और सम्मान को भी नई ऊंचाई दी। संघ के कार्य और विचार ने भारतीय नारी को केवल परिवार की धुरी भर नहीं माना, बल्कि समाज की दिशा देने वाली शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण सदैव स्पष्ट रहा है - नारी समाज की अर्धांगिनी नहीं, बल्कि उसकी जीवनशक्ति है। वह केवल घर की मर्यादा नहीं, बल्कि राष्ट्र की मर्यादा की रक्षक भी है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने प्रारंभ से ही माना कि यदि भारत को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाना है, तो नारी को उसके वास्तविक सामर्थ्य के साथ खड़ा करना आवश्यक है। इस सोच का ही परिणाम था कि संघ के प्रारंभिक वर्षों में ही महिलाओं के लिए अलग संगठन की आवश्यकता महसूस की गई, जिससे वे भी संगठन, अनुशासन और राष्ट्रभावना के साथ जुड़ सकें।

सन् 1936 में लक्ष्मीबाई केलकर, जिन्हें स्नेहपूर्वक मौसीजी कहा जाता है, ने इस विचार को साकार रूप दिया। उन्होंने ”राष्ट्र सेविका समिति“ की स्थापना की - जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से विकसित महिलाओं का स्वतंत्र संगठन बना। उस समय समाज में महिलाओं की भूमिका सीमित मानी जाती थी; ऐसे युग में समिति ने भारतीय नारी के भीतर छिपे नेतृत्व, अनुशासन और आत्मबल को जागृत किया। मौसीजी कहा करती थीं - ”हम नारी हैं, पर निर्बल नहीं; हम घर संभालते हैं, तो राष्ट्र भी संभाल सकते हैं।“ यही विचार महिलाओं के लिए नये क्षितिज खोलता गया।

राष्ट्र सेविका समिति ने घर-घर तक संगठन की भावना पहुंचाई। शाखाएं खुलीं, प्रशिक्षण वर्ग बने, और महिलाओं में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार हुआ। बालिकाओं के संस्कार वर्ग, परिवार शिक्षण कार्यक्रम, सेवा परियोजनाएं और ग्रामोदय कार्यों के माध्यम से महिलाओं ने समाज में ठोस योगदान दिया। आज समिति के हजारों केंद्र देशभर में सक्रिय हैं - जहां महिलाएं शिक्षा, स्वास्थ्य, आत्मरक्षा, स्वावलंबन और समाजसेवा के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। यह संगठन न केवल महिलाओं को सशक्त बना रहा है, बल्कि उन्हें समाज के नेतृत्व में लाने का कार्य भी कर रहा है। संघ और उससे प्रेरित संस्थाओं में अनेक महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने अपने कार्य से समाज में उदाहरण प्रस्तुत किया। लक्ष्मीबाई केलकर का नाम तो इतिहास में दर्ज है ही, परंतु उनके बाद आई प्रभा देशमुख ने महिला शिक्षा और संस्कार केंद्रों की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई। सुभद्रा भट्टी ने ग्रामीण स्वास्थ्य, आदिवासी बालिकाओं के छात्रावास और महिला स्वावलंबन के कार्यों से सेवा का नया अध्याय लिखा। चंद्रकांता जोशी जैसी सेविकाओं ने शिक्षा क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करते हुए विद्या भारती के अंतर्गत बालिकाओं के लिए वैचारिक शिक्षा की नई दिशा दी। इन महिलाओं ने यह प्रमाणित किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों से प्रेरित नारी केवल परिवार की नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र की निर्माता भी है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से प्रेरित अनेक संस्थाएं आज महिलाओं के जीवन में परिवर्तन ला रही हैं। विद्या भारती के विद्यालयों में लाखों महिला शिक्षक नई पीढ़ी को केवल पढ़ा नहीं रहीं, बल्कि उन्हें संस्कारित कर समाज के प्रति उत्तरदायी नागरिक बना रही हैं। वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावासों में सेविकाएं आदिवासी बालिकाओं के जीवन को शिक्षा और आत्मसम्मान से आलोकित कर रही हैं। सेवा भारती और महिला मंडल न्यास जैसे संगठनों ने महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता प्रशिक्षण, हस्तकला, स्वदेशी उत्पाद निर्माण और स्वास्थ्य सेवाओं की योजनाएं चलाकर सामाजिक सशक्तिकरण की ठोस मिसाल पेश की है। संघ की दृष्टि में नारी सशक्तिकरण का अर्थ केवल अधिकार प्राप्ति नहीं, बल्कि कर्तव्य चेतना है। संघ मानता है कि पुरुष और महिला प्रतिस्पर्धी नहीं, पूरक हैं। भारतीय संस्कृति में नारी को शक्ति कहा गया है - जो सृजन, पोषण और प्रेरणा की स्रोत है। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नारी दृष्टिकोण पश्चिमी नारीवाद से भिन्न है। वह नारी को ”स्वतंत्र व्यक्तित्व“ तो मानता है, पर साथ ही ”सामाजिक उत्तरदायित्व“ की वाहक भी समझता है। यही कारण है कि संघ के प्रशिक्षण में ”शक्ति“ और ”संस्कार“ दोनों समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं।

संघ की शाखाओं और सेविका समिति के शिविरों में जो अनुशासन, संगठन और आत्मबल सिखाया जाता है, वही आगे जाकर समाज में बदलाव का कारण बनता है। कई महिलाएं जो पहले झिझक और सीमाओं में बंधी थीं, आज समाजसेवी, शिक्षक, डॉक्टर, अधिकारी और प्रशासक बनकर राष्ट्र की सेवा कर रही हैं। उनके भीतर जो आत्मविश्वास जगा, वह इस बात का प्रमाण है कि संघ के संस्कार किसी को पीछे नहीं, बल्कि आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह शताब्दी यात्रा केवल अतीत का उत्सव नहीं, बल्कि भविष्य का संकल्प भी है। आज जब समाज परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, तब महिलाओं की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है। संघ ने इस भूमिका को समय से पहले पहचाना और उसे दिशा दी। अब आवश्यक है कि इस परंपरा को और व्यापक बनाया जाए - ताकि हर महिला अपने भीतर की शक्ति को पहचान सके और समाज को नई दिशा दे सके। नारी के उत्थान से ही राष्ट्र का उत्थान: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ वर्षों का इतिहास यह प्रमाण है कि संगठन का उद्देश्य केवल राजनीतिक या सामाजिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का है। इस पुनर्जागरण का सबसे सशक्त आधार ”नारी उत्थान“ ही है। आज जब राष्ट्र सेविका समिति की शाखाओं में हजारों महिलाएं एक साथ प्रार्थना करती हैं -”नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः“ - तब यह केवल एक उद्घोष नहीं, बल्कि भारतीय नारी की आत्मशक्ति का उद्घाटन है।

संघ की यह यात्रा बताती है कि जब नारी संगठित होती है, तो समाज सशक्त होता है; जब नारी शिक्षित और आत्मविश्वासी होती है, तो राष्ट्र समृद्ध होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बीते सौ वर्षों में यही किया - नारी को जगाया, जोड़ा और उठाया। और यही नारी अब इस राष्ट्र की नई दिशा लिखने के लिए तैयार है।