टिहरी, उत्तराखण्ड
जब अधिकांश युवा पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी या प्राइवेट नौकरी की तलाश में लग जाते हैं, तब टिहरी जनपद की रानीचौरी निवासी सुषमा बहुगुणा ने एमए और बीएड करने के बावजूद एक अलग राह चुनी — स्वरोजगार की। पति के बेरोजगार होने और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच उन्होंने न सिर्फ खुद के लिए अपितु गांव की कई अन्य महिलाओं के लिए भी एक मजबूत आर्थिक आधार तैयार किया। सुषमा ने कचरे और परंपरा को मिलाकर आत्मनिर्भरता की एक नई मिसाल पेश की है। चंबा विकासखंड के रानीचौरी गांव की सुषमा बहुगुणा ने वर्ष 2014 में गाय के गोबर और सूखे फूलों से धूप-अगरबत्ती बनाकर इस अनोखे सफर की शुरुआत की थी। इसके बाद उन्होंने चिप्स-कुरकुरे के खाली पैकेट और कांस की घास से सुंदर टोकरियाँ और डस्टबिन तैयार करना भी शुरू किया। आज उनके नेतृत्व में "आराधना महिला समूह" से जुड़ी 10 महिलाएं हर महीने लगभग 8,000 रुपये कमा रही हैं और समूह का वार्षिक टर्नओवर 11 लाख रुपये के पार पहुंच चुका है। इन महिलाओं ने न सिर्फ कचरे को उपयोगी वस्तुओं में बदला, बल्कि पर्यावरण की सफाई और धार्मिक आस्था को भी सहेजा है। विवाह व समारोहों में फेंके जाने वाले फूलों से सुगंधित धूप-अगरबत्तियाँ तैयार होती हैं, जो चंबा, टिहरी, ऋषिकेश, देहरादून आदि बाजारों में बिकती हैं। सुषमा बहुगुणा अब तक 500 से अधिक महिलाओं को आत्मनिर्भरता का प्रशिक्षण दे चुकी हैं। उनका मानना है कि थोड़ी सी तकनीक, इच्छा शक्ति और रचनात्मक सोच के साथ "वेस्ट से बेस्ट" बनाना संभव है। वह चाहती हैं कि सरकार और समाज मिलकर ऐसे नवाचारों को मंच दें, ताकि ग्रामीण भारत की महिलाएं न सिर्फ सशक्त बनें, बल्कि दूसरों को भी रास्ता दिखा सकें। यह कहानी है ग्रामीण जड़ों से जुड़ी एक ऐसी खुशबू की, जो अब स्वावलंबन की पहचान बन चुकी है।