स्वदेशी: भारत की अर्थनीति और संस्कृति का जीवंत प्रतीक
पिछले सौ वर्षों में दुनिया ने प्रौद्योगिकी, भौतिक वस्तुओं के उत्पादन और आर्थिक सेवाओं के विस्तार के मामले में अभूतपूर्व भौतिक प्रगति की है। अगर हम इस प्रगति को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में मापें, तो हम पाते हैं कि पिछले सौ वर्षों में दुनिया की जीडीपी कई गुना बढ़ गई है। विभिन्न चरणों में हुई औद्योगिक क्रांतियों ने इस भौतिक विकास में योगदान दिया है। आम तौर पर लोग अधिक और बेहतर गुणवत्ता वाली वस्तुओं का उपभोग कर रहे हैं। बुनियादी ढाँचे, ऑटोमोबाइल, विमानन, अंतरिक्ष, संचार आदि के क्षेत्र में प्रगति सबसे उल्लेखनीय रही है। लेकिन साथ ही, पर्यावरण क्षरण, आर्थिक असमानताओं और सामाजिक विघटन के कारण मानवता ने अपने अस्तित्व के मूल आधार को ही संकट में डाल दिया है। हमारा समाज और अर्थव्यवस्था उस स्तर पर पहुँच गए हैं जहाँ हम देखते हैं कि अगर इन बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया तो मानव सभ्यता ही नहीं सृष्टि से जीवन ही विलुप्त हो सकता है।
वर्तमान बुराइयों का मूल कारण यह है कि हमने यह मान लिया है कि यदि अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन बढ़ता है, यदि अधिक उपभोग होता है, ऊर्जा की खपत बढ़ती है और जीडीपी बढ़ती है, तो इसका मतलब है कि विकास हो रहा है। यह मान लिया गया था कि इस भौतिक प्रगति से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का स्वतः ही समाधान हो जाएगा, क्योंकि इस बढ़े हुए उत्पादन का लाभ स्वतः ही आम जनता तक पहुंचेगा और उनका जीवन बेहतर होगा। लेकिन हम जमीनी स्तर पर जो देखते हैं, कि असमानताएं तेजी से बढ़ रही हैं, जहां कुछ लोग विलासिता का आनंद ले रहे हैं और आम जनता गरीबी की चपेट में है। शायद, पर्यावरण के बिगड़ते हालात के बारे में कोई विचार नहीं किया गया। बाद में, जब यह महसूस किया गया कि पर्यावरण के लिए वास्तविक खतरा है, तो सुधार करने के बजाय, समाधान सुझाए जाने लगे, कार्बन क्रेडिट और कार्बन ट्रेडिंग के रूप में पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए बाज़ार समाधान ढूँढ़े जाने लगे, जहाँ प्रदूषक उन लोगों को भुगतान करेंगे जो कम प्रदूषण फैलाकर या वृक्षारोपण में योगदान देकर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करते हैं, और इस तरह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में संतुलन बनाए रखते हैं। लेकिन इन समाधानों से शायद ही कोई बदलाव आया; और हम जो देख रहे हैं वह यह है कि दशकों से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में निरंतर वृद्धि हो रही है, वैश्विक तापमान अभूतपूर्व रूप से बढ़ रहा है, और लगभग 2°ब् की वृद्धि हुई है, जिससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, जिससे समुद्र के आसपास की बस्तियाँ खतरे में पड़ रही हैं, वायु की गुणवत्ता बदतर हो रही है जिससे साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है, पानी और मिट्टी अभूतपूर्व रूप से प्रदूषित हो रहे हैं और इस प्रकार पृथ्वी रहने योग्य नहीं रह रही है। भौतिक प्रगति के साथ, मानवता को भौतिक प्रगति प्राप्त करने की लालसा और लालच के रूप में एक और झटका लगा, जिससे सामाजिक और पारिवारिक विघटन हुआ। मूल्यों में यह गिरावट व्यक्तिवाद के उदय के साथ और भी बढ़ गई।
वर्तमान व्यवस्था में, हमें इन समस्याओं का कोई समाधान नजर नहीं आता, और वर्तमान उत्पादन व्यवस्था के कारण मानवता विलुप्त होने, बढ़ती असमानताओं और अभावों के वास्तविक खतरे का सामना कर रही है। वर्तमान व्यवस्था एकाधिकार को जन्म दे रही है, जिससे समाजों में शोषण और गहरी अशांति फैल रही है। वैश्विक शक्तियों द्वारा प्रभुत्व की लालसा और डीप स्टेट द्वारा रची गई अशांति के कारण वैश्विक स्तर पर संघर्षों को मानवता के अस्तित्व के लिए एक बड़ा खतरा माना जा रहा है।यही नहीं पिछले कुछ समय से दुनिया ने भूमंडलीकरण के जिस रास्ते को अपनाया है, उसके कारण कुछ देश अपने आर्थिक लाभ के लिए, दूसरे देशों को निरंतर अपने ऊपर निर्भर करते हुए, अपने आर्थिक हित साधने की कोशिश कर रहे हैं। इसके चलते इन देशों पर आर्थिक निर्भरता बढ़ने के कारण अन्य देशों को नुकसान हो रहा है। उदाहरण के लिए जहां अतिरिक्त क्षमता के बल पर पर दुनिया के दूसरे देशों में अपना सामान डंप कर रहा है और वैश्विक मूल्य शृंखला में रेयर अर्थ मैटीरियल की आपूर्ति को रोक कर उसे हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है तो दूसरी ओर अमेरिका विभिन्न देशों पर टैरिफ बढ़ाकर उन्हें नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है।
स्वदेशी का पुनरुत्थान: इन परिस्थितियों में स्वदेशी, आत्मनिर्भरता और स्वदेशी विकास का दर्शन, एक बार फिर भारत के राष्ट्रीय विमर्श का केंद्रीय विषय बन गया है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आर्थिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ यह आंदोलन अब सतत, समतामूलक और सांस्कृतिक रूप से निहित विकास के एक व्यापक दृष्टिकोण के रूप में विकसित हो रहा है। आज, भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां वैश्विक परिवर्तन, तकनीकी आत्मनिर्भरता और घरेलू नीतिगत सुधार स्वदेशी सिद्धांतों के पक्ष में संरेखित हो रहे हैं।
भारत की अर्थव्यवस्था और संस्कृति का सजीव प्रतीक है स्वदेशी: स्वदेशी मात्र एक नारा या आर्थिक नीति नहीं है - यह भारत की सभ्यता के जीवनदर्शन का सजीव अभिव्यक्ति है। संस्कृत में निहित आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान की भावना पर आधारित, स्वदेशी एक समग्र दृष्टि प्रस्तुत करता है, जो अर्थव्यवस्था, संस्कृति और नैतिकता तीनों को एक सूत्र में बांधता है। यह व्यक्ति और समाज दोनों को प्रेरित करता है कि वे विदेशी प्रणालियों की अंधी नकल करने के बजाय अपने देश की उत्पादकता, स्थानीय उद्यमिता और राष्ट्रीय कल्याण को प्राथमिकता दें। इतिहास में स्वदेशी भारत के स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा बन गया। यह न केवल औपनिवेशिक आर्थिक शोषण के विरुद्ध एक आंदोलन था, बल्कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का सकारात्मक कार्यक्रम भी था। चरखा, ग्रामोद्योग और देशी हस्तशिल्प आर्थिक लोकतंत्र और नैतिक पुनर्जागरण के प्रतीक बन गए। आर्थिक दृष्टि से स्वदेशी का उद्देश्य एक ऐसी आत्मनिर्भर व्यवस्था स्थापित करना है, जिसमें उत्पादन का उद्देश्य केवल लाभ न होकर जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति हो। यह विकेन्द्रीकृत उद्योग, छोटे उद्यम और भारत की परिस्थितियों के अनुरूप तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देता है। सांस्कृतिक दृष्टि से स्वदेशी भारतीय ज्ञान परंपरा, शिल्पकला और जीवनमूल्यों में निहित उस गौरव का प्रतिनिधित्व करता है, जो भौतिक प्रगति के साथ-साथ सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय संतुलन पर भी बल देता है। इक्कीसवीं सदी में भी स्वदेशी की प्रासंगिकता बनी हुई है। वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं की अस्थिरता और बढ़ते आर्थिक राष्ट्रवाद के युग में भारत का स्वदेशी मार्ग एक टिकाऊ विकल्प प्रस्तुत करता है - ऐसा मॉडल जो केवल मुनाफे पर नहीं, बल्कि श्रम-सम्मान, पर्यावरण-संवेदनशीलता और सामुदायिक कल्याण पर आधारित है। ”वोकल फॉर लोकल“ और ”मेक इन इंडिया“ जैसे अभियान इस स्थायी दर्शन की आधुनिक अभिव्यक्तियां हैं। इस प्रकार, स्वदेशी भारत की अर्थव्यवस्था और संस्कृति का एक सजीव प्रतीक है - जो अतीत को भविष्य से, परंपरा को नवाचार से, और व्यक्ति के कल्याण को राष्ट्र की प्रगति से जोड़ता है।
आज स्वदेशी के लिए अनुकूल वातावरण: आत्मनिर्भर भारत पर सरकार का जोर स्वदेशी आदर्शों के प्रति नई प्रतिबद्धता को दर्शाता है। मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया और पीएम गति शक्ति जैसी पहलों का उद्देश्य घरेलू उत्पादन, नवाचार और लॉजिस्टिक्स दक्षता को बढ़ाना और विदेशी वस्तुओं और प्रौद्योगिकी पर निर्भरता कम करना है।
बदलती वैश्विक व्यापार गतिशीलता: कोविड-19 महामारी और अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों के दौरान उजागर हुई वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं की कमजोरी ने घरेलू लचीलेपन की आवश्यकता को और अधिक मजबूत कर दिया। दुनिया भर के देश आयात पर अत्यधिक निर्भरता पर पुनर्विचार कर रहे हैं, जिससे भारत के लिए स्वदेशी सिद्धांतों पर आधारित अपने स्थानीय विनिर्माण, कृषि और सेवाओं को बढ़ावा देने का अवसर पैदा हो रहा है।
बढ़ती राष्ट्रीय चेतना: भारतीय युवाओं में आर्थिक राष्ट्रवाद की भावना बढ़ रही है। उपभोक्ता न केवल उनके आर्थिक मूल्य के लिए, बल्कि राष्ट्रीय गौरव की अभिव्यक्ति के रूप में भी भारत में निर्मित उत्पादों को तेजी से पसंद कर रहे हैं। यह बदलाव परिधान, प्रौद्योगिकी, हस्तशिल्प और खाद्य प्रसंस्करण जैसे क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है।
तकनीकी सशक्तिकरण और डिजिटल पहुंच: भारत में डिजिटल बुनियादी ढांचे का विस्तार स्वदेशी उद्यमियों और छोटे उत्पादकों के लिए नए साधन प्रदान करता है। ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म, डिजिटल भुगतान और ओएनडीसी (डिजिटल कॉमर्स के लिए खुला नेटवर्क) जैसी सरकार द्वारा संचालित पहल स्थानीय उत्पादकों को सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचने में सक्षम बनाती हैं- जिससे वैश्विक एकाधिकार का प्रभुत्व कम होता है।
सतत् विकास और पर्यावरण जागरूकता: स्वदेशी दर्शन स्वाभाविक रूप से पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देता है-स्थानीय उत्पादन को प्रोत्साहित करना, परिवहन उत्सर्जन में कमी लाना और समुदाय-आधारित संसाधन प्रबंधन। जैसे-जैसे दुनिया शोषणकारी वैश्वीकरण के स्थायी विकल्पों की तलाश कर रही है, स्वदेशी विकास के एक नैतिक और पारिस्थितिक मॉडल हो प्रादुर्भाव हो रहा है।




