भारतीय ज्ञान परंपरा का आभामंडल
यह आभा केवल आलोक नहीं, दिखाती है मानवता की राह
भारतीय ज्ञान परंपरा का आभामंडल समन्वय, संवाद और सह-अन्वेषण की उज्ज्वल धारा है, जिसमें विज्ञान, दर्शन और अध्यात्म एक ही चेतना में प्रवाहित होते हैं। वेदांत, योग, आयुर्वेद, खगोल-विज्ञान, तर्कशास्त्र और भक्ति, सब मिलकर भारत को ज्ञान-राष्ट्र बनाते हैं। गुरु-शिष्य परंपरा ने शिक्षा को केवल कौशल नहीं, बल्कि संस्कार और विवेक का माध्यम बनाया। आज जब विश्व पर्यावरण संकट, मानसिक तनाव और तकनीकी असंतुलन से जूझ रहा है, भारतीय ज्ञान ही राह दिखा रहा है। वसुधैव कुटुम्बकम्, योग, आयुर्वेद और टिकाऊ जीवनशैली आधुनिक मानवता के लिए प्रकाश-स्तंभ बने हैं। नवभारत को अपनी जड़ों से शक्ति लेकर भविष्य का नेतृत्व करना है। यही भारतीय ज्ञान परंपरा की वास्तविक आभा है।
भारतीय सभ्यता के इतिहास में ज्ञान बौद्धिक उपक्रम का नाम नहीं रहा, बल्कि सम्पूर्ण जीवन का आधार रहा है। आज जब नवभारत अपने आत्मबोध, आत्मविश्वास और आत्मसंज्ञान के नए क्षितिजों की ओर अग्रसर है, तब भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनर्पाठ और पुनर्प्रतिष्ठापन अत्यंत आवश्यक हो गया है। संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत द्वारा प्रस्तुत नवोत्थान की नई क्षैतिज अवधारणा इसी गहन प्रक्रिया का प्रतिफल है, जिसमें भारत को भविष्य की विश्वयात्रा के लिए अपनी जड़ों से शक्ति लेने का संदेश दिया है। भारतीय ज्ञान परंपरा का आभामंडल केवल अतीत का अवशेष नहीं, बल्कि भविष्य का पथप्रदर्शक प्रकाश स्तंभ है, जिसकी आज समूचे विश्व को आवश्यकता है।
इसकी मूल आत्मा समन्वय में निहित है। संसार की अनेक ज्ञान परंपराएँ विरोध, संघर्ष और द्वैत पर आधारित रहीं, पर भारत ने ज्ञान को एक लंबे सह-अन्वेषी और संवादात्मक मार्ग से विकसित किया। यहाँ ज्ञान का अर्थ केवल सत्य की खोज नहीं, बल्कि खोजकर्ता की आत्म-परिवर्तन यात्रा भी है। यही कारण है कि वेदों से लेकर उपनिषदों, गीता, आगम-निगम, बुद्ध-जैन ग्रंथों, भक्ति-साहित्य, योग-सूत्रों और आधुनिक भारतीय मनीषियों तक यह ज्ञान-धारा अविरल बहती रही है। अद्वैत का ब्रह्मवाद भले ही सर्वाेच्च सत्य की घोषणा करता हो, पर उसके भीतर द्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत और शून्यवाद भी सह-स्थित हैं और इनमें कभी संघर्ष नहीं, संवाद है। इस समन्वयकारी मानसिकता ने भारत को वह आभा दी जिसने इसे हजारों वर्षों तक ज्ञान का स्रोत बनाया।
भारतीय ज्ञान की सबसे अद्भुत विशेषता यह है कि यह ज्ञान जीवन से कटकर नहीं चलता। यहाँ दर्शन, विज्ञान, अध्यात्म, कला, चिकित्सा, कृषि, स्थापत्य, गणित आदि सब एक ही ज्ञान-नद में मिलते हैं। पाश्चात्य दृष्टिकोण में जहां ‘विज्ञान’ और ‘आध्यात्म’ दो परस्पर विरोधी धु्रव बन गए, वहीं भारत में आयुर्वेद का चिकित्सा-विज्ञान चेतना के सिद्धांत पर चलता है, योग विज्ञान शरीर, मन और प्राण को एकीकृत करता है और वास्तुशास्त्र ऊर्जा के वैज्ञानिक सिद्धांतों को आध्यात्मिक संरचनाओं से जोड़ता है। इसी संगम ने भारतीय ज्ञान को दार्शनिक नहीं, बल्कि उपयोगी और व्यवहारिक भी बनाया।
पुरातन ग्रंथों में सूत्रबद्ध ज्ञान के पीछे जो वैज्ञानिक पद्धति रही है, वह आधुनिक अनुसंधान पद्धतियों से कमतर नहीं है। चरक संहिता का प्रेक्षण सिद्धांत, सुश्रुत का शल्य-शास्त्र, आर्यभट की गणनाएँ, भास्कराचार्य का कलन, पिंगल का छंद-गणित, कणाद का परमाणुवाद ये सब मिलकर बताते हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा में तार्किकता, प्रयोग, अनुशीलन और विवेचना सभी कुछ शामिल थे। इसलिए उसे ‘आभामंडल’ कहना किसी गौरवगाथा की अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि उस उज्जवल ज्ञानदीप का स्वरूप है जिसने समय के अंधकार में भी प्रकाश बनाए रखा।
भारत में ज्ञान का सबसे सशक्त आधार गुरु-शिष्य परंपरा रही है। गुरुकुल प्रणाली ने ज्ञान को केवल बौद्धिक प्रक्रिया नहीं रहने दिया, ज्ञान यहां चरित्र-निर्माण का माध्यम बना। उपनिषद संवाद हैं और संवाद सिर्फ बातचीत नहीं, बल्कि अनुभव-संपन्न मार्गदर्शन है, जहां गुरु ज्ञान नहीं थोपता, बल्कि शिष्य के भीतर पहले से विद्यमान जिज्ञासा को जाग्रत करता है। आज जब शिक्षा पद्धति में मात्र सूचना का बोझ बढ़ता जा रहा है, भारतीय ज्ञान परंपरा हमें याद दिलाती है कि शिक्षा का लक्ष्य ‘विमुक्ति’ है संकीर्णताओं, भ्रम और अज्ञान से मुक्ति। यही मुक्तिदृष्टि भारतीय ज्ञान की चमक को विशिष्ट बनाती है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज संसार अजीब विरोधाभासों से घिरा है, तकनीक बढ़ रही है, पर मनुष्य भीतर से खोखला हो रहा है; विज्ञान आगे जा रहा है, पर पर्यावरण संकट बढ़ रहा है; स्वास्थ्य सेवाएँ बढ़ रही हैं, पर मानसिक तनाव की महामारी फैल रही है। ऐसे समय में भारत की समग्र और संतुलित दृष्टि मानवता के लिए दिशा-दर्शक बन सकती है। योग को विश्वभर में जो स्वीकार्यता मिली, वह केवल योगासन का प्रभाव नहीं था; यह भारतीय ज्ञान का वह आयाम है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक इकाई माना गया। आयुर्वेद का ‘प्राण’ आधार, प्रकृति के साथ संतुलित जीवन का सिद्धांत और ‘दोष-धातु-मल’ का विश्लेषण बताता है कि स्वास्थ्य शरीर का नहीं, बल्कि संपूर्ण व्यक्ति का विषय है।
भारतीय ज्ञान परंपरा का सामाजिक आयाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। हमारी सांस्कृतिक स्मृतियां ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना में रची-बसी हैं। विश्व को एक परिवार की तरह देखना केवल नैतिक उपदेश नहीं, बल्कि वैश्विक नीति के लिए एक वैज्ञानिक आधार भी है, क्योंकि जब तक राष्ट्र परस्पर सहयोगी नहीं बनते, तब तक वैश्विक समस्याओं का समाधान संभव नहीं। यह भावना आज G20, जलवायु संवादों और वैश्विक मानवीय सहकार में नए रूप में प्रकट हो रही है। भारत की यह दृष्टि पश्चिम के शक्ति आधारित वैश्विक मॉडल से भिन्न है और इसलिए विश्व को आकर्षित करती है।
भारत की ज्ञान-सम्पदा में प्रकृति के प्रति आदर का भाव है। ‘ईशावास्यमिदं सर्वम्’ का संदेश मानव और प्रकृति को दो अलग तत्व नहीं मानता। इसी दृष्टि से नदियां माँ, पृथ्वी धरणी, वन देवता और पर्वत देवालय माने गए। पर्यावरण संरक्षण भारत में वैज्ञानिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक कर्तव्य रहा। आज जब आधुनिक ‘इको स्पिरिचुअलिटी’ या ‘ग्रीन फिलॉसफी’ की चर्चा होती है, तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि भारत सदियों पहले जीवन को प्रकृति के साथ सामंजस्य में जीने की पद्धति विकसित कर चुका था।
नई शिक्षा नीति 2020 ने भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनः राष्ट्रीय जीवन में प्रतिष्ठित करने का ऐतिहासिक अवसर प्रदान किया है। भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा, भारतीय ज्ञान प्रणाली (IKS) को पाठ्यक्रमों में शामिल करना, कौशल और नैतिक मूल्यों को शिक्षा का समान भाग बनाना और विश्वविद्यालयों को शोध नवाचार के साथ-साथ सांस्कृतिक पुनर्स्थापना का केंद्र बनाना, ये वे कदम हैं जिनके माध्यम से भारत अपनी ज्ञान-परंपरा को वर्तमान और भविष्य से जोड़ रहा है। यह केवल अकादमिक सुधार नहीं है; यह राष्ट्रीय मन के निर्माण की प्रक्रिया है।
आज के संदर्भ में नवोत्थान का अर्थ केवल आर्थिक वृद्धि, तकनीकी प्रगति या राजनीतिक स्थिरता नहीं है। नवोत्थान का अर्थ है, भारत के विचार, भारत की पहचान, भारत की आत्मा को पुनः प्रखर करना। मोहन भागवत जी की क्षैतिज दृष्टि यही बताती है कि भारत को बहुआयामी विकास चाहिए। सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक। भारतीय ज्ञान की आभा इसी बहुआयामी उन्नति में छिपी है। जब ज्ञान केवल ‘कौशल’ नहीं, ‘संकल्प’ बनता है तो राष्ट्र का उत्थान अनिवार्य हो जाता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा का आभामंडल केवल प्रकाश नहीं देता, बल्कि दिशा भी देता है। यह बताता है कि विकास मनुष्य-केंद्रित हो, तकनीक नैतिकता से संचालित हो और राजनीति समाज-सेवा की भावना से प्रेरित हो और शिक्षा को संस्कृति से जुड़कर आगे बढ़ना चाहिए। आज जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता, रोबोटिक्स, जैव-प्रौद्योगिकी और डिजिटल संसार हमारे जीवन को नए रूप में ढाल रहे हैं, तब भारतीय ज्ञान की संतुलित और संयमित दृष्टि पहले से अधिक आवश्यक हो गई है।
भारत का भविष्य तभी उज्ज्वल होगा जब हमारी विश्वविद्यालय प्रणालियां शोध को समन्वयवाद की भारतीय दृष्टि के साथ आगे बढ़ाएं। हमें ऐसे युवा चाहिए जो परंपरा को समझते हों और नवाचार को अपनाते हों; जो विज्ञान में दक्ष और साथ ही मूल्य-चेतना से संपन्न हों; जो वैश्विक प्रतिस्पर्धा में सक्षम हो और साथ ही अपनी सांस्कृतिक पहचान पर गर्व कर सकें। भारतीय ज्ञान परंपरा युवाओं में आत्मबल जगाती है जिससे वह करियर के साथ चरित्र का निर्माण करता है।
आज की दुनिया में भारत की भूमिका ज्ञान-राष्ट्र की है। हम दुनिया को सिर्फ वस्तुएं या तकनीक नहीं दे रहे, बल्कि जीवन-दृष्टि दे रहे हैं। योग, आयुर्वेद, ध्यान, भारत का दर्शन, भारत का सांस्कृतिक मन, ये सब मिलकर एक नई विश्व चिंता का निर्माण कर रहे हैं। यह भारत की वह पहचान है जिसे पुनः घोषित करने का समय आ गया है।
भारतीय ज्ञान परंपरा का आभामंडल हमें निरंतर स्मरण कराता है कि हमारे पास केवल गौरवशाली अतीत नहीं, बल्कि उज्ज्वल भविष्य भी है। यह भविष्य तभी सार्थक होगा जब हम अतीत को जड़ता में नहीं, बल्कि प्रेरणा में बदलें; जब हम परंपरा को रूढ़ि न बनाकर विकास का आधार बनाएँ; जब हम आधुनिकता को अंधानुकरण नहीं, बल्कि सृजनात्मक उन्नति का साधन बनाएं। भारत का नवोत्थान इसी समन्वय का नाम है जहाँ परंपरा और परिवर्तन, इतिहास और भविष्य, विज्ञान और आध्यात्म, सभी एक साथ चलते हैं।
अंततः भारतीय ज्ञान परंपरा का आभामंडल एक आह्वान है, आत्मा की ओर लौटने, विवेक की ओर जागने और समाज के लिए समर्पित होकर कार्य करने का। यह उस राष्ट्र की पुकार है जिसने विश्व को अनादि काल से प्रकाश दिया है और आज भी दे सकता है। नवभारत का निर्माण तभी संभव होगा जब हम इस आभामंडल को केवल स्मृति में न रखें, बल्कि उसे जीवन, समाज, शिक्षा और शासन में उतारें। यही भविष्य का भारत होगा, एक ऐसा भारत जो अपनी जड़ों से शक्ति लेकर वैश्विक परिवर्तन को नेतृत्व दे सके। यही भारतीय ज्ञान परंपरा की वास्तविक आभा है और यही वह प्रकाश है जिसकी ओर 21वीं सदी का भारत उत्साहपूर्वक बढ़ रहा है।
लेखक पंडित दीनदयाल उपाध्याय शेखावाटी, विश्वविद्यालय, सीकर में कुलगुरु है।




