संघ गंगा के तीन भगीरथ – नवभारत को प्रेरित करने वाली कलाकृति
कुछ कलाकृतियाँ शाश्वत सत्य को बताते हुए भी अत्यंत प्रिय और हृदयस्पर्शी लगती हैं, क्योंकि उन्हें सत्यता का स्पर्श मिला होता है। बचपन में शाखा में जाने के कारण मुझे संघ की स्व-अनुशासन और उदारता की नीतियों का अनुभव था ही। संघ की यात्रा का इतिहास भी काफी हद तक पता है। बचपन में शाखा में जाने के कारण मेरे मन में राष्ट्रीय विचारों का बीजारोपण बचपन से ही हो गया था, इसलिए “संघ गंगा के तीन भगीरथ”, नाटक देखने की उत्सुकता थी। हाल ही में सोलापुर के हुतात्मा स्मारक में इस नाट्य प्रदर्शन को देखने का अवसर मिला। महानुभावों की भूमिका निभाते समय कलाकारों की परख होती है और उसमें कुछ कमी रहने की संभावना रहती ही है। परंतु इस नाटक में ऐसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ। नाट्य संहिता, कम से कम सामग्री में किया गया प्रतीकात्मक नेपथ्य, भारत और संघ के इतिहास के 28 प्रसंगों को गूंधता हुआ गतिशील कथानक, अत्यंत सुंदर और सटीक निर्देशन, अप्रतिम प्रकाश-व्यवस्था और आवश्यकतानुसार अत्यंत प्रभावशाली संगीत, निर्देशकों द्वारा पात्रों का अत्यंत सटीक चयन, मेकअप डायरेक्टर द्वारा विचारपूर्वक किया गया मेकअप, उच्च गुणवत्ता वाले अभिनय से साकार हुई तीन भगीरथों की प्रतिमाओं को और ऊँचा उठाने वाला, उनके कर्तृत्व को और उज्ज्वल करने वाला सुंदर अभिनय – इन सभी बातों ने नाटक को अत्यंत उच्च स्तर पर पहुँचा दिया। पराधीनता से स्वतंत्रता की ओर आते हुए भारत का इतिहास देखें तो संघ और संघर्ष, दो समानार्थी नाम हैं, ऐसा ही कहना पड़ेगा। किसी भी राष्ट्र में राष्ट्र-विचारों में वैचारिक संघर्ष होना अटल है। परंतु राष्ट्र की प्रगति ही हिन्दुत्व है, ऐसे दूरदृष्टि वाले विचार से संघ की यात्रा प्रस्तुत नाटक में पग-पग पर महसूस हो रही थी।
कलाकृति की एक स्वतंत्रता होती है, उसे न लेते हुए सत्य को जैसा है वैसा प्रस्तुत करना और कलाकृति को रंगना कठिन ही होता है। संघ के इतिहास में हजारों प्रेरक प्रसंग आए होंगे, परंतु उनमें से क्या चुनना है? इस बारे में लेखक और निर्देशक को निश्चित रूप से पता था, इसलिए कलाकृति की प्रभावशीलता सौ गुना बढ़ गई। बल्कि, सबसे प्रभावशाली प्रसंगों का चयन करके भारत का हित किसमें है, इसे ठीक से समझकर कथानक की रचना की गई थी। संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी, श्री गुरुजी, बालासाहेब देवरस जी – इन तीनों पात्रों को श्रोताओं ने हूबहू अनुभव किया। इन तीनों विभूतियों के चरणों की ओर स्वतः ही ध्यान जा रहा था कुल मिलाकर, जब हमारा देश वर्तमान में वैश्विक महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहा है, तब नवयुवकों में ‘भारत देश’ किस प्रकार होना चाहिए? यह सटीक अवधारणा नए सिरे से स्थापित करने के लिए इस नाटक का प्रदर्शन भारत के प्रत्येक जिले और बड़े शहरों में साल में एक बार तो होना ही चाहिए और संघ विचारधारा जमीनी स्तर तक पहुँचनी चाहिए, ऐसा लगता है। विशुद्ध सेवाभाव, राष्ट्रहित और प्रखर राष्ट्रीयता, इन भूमिकाओं के प्रसार के लिए ऐसे नाटकों की अत्यंत आवश्यकता है। हुतात्मा स्मृति मंदिर में प्रत्येक प्रसंग को मिलने वाली दाद, मिलने वाली तालियाँ, महापुरुषों का आगमन होते ही उनके दर्शन से चमकती आँखें, यह अनुभव करने लायक ही है। प्रत्येक प्रसंग हमारी आँखों के सामने घटित हो रहा है, इतनी वास्तविकता यह नाट्यकृति निश्चित रूप से निर्मित करती है।