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संघ दर्शन

जब ब्रह्मतत्व में विलीन हुए श्री गुरुजी

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जब ब्रह्मतत्व में विलीन हुए श्री गुरुजी

संघ यात्रा - 5

भारत मृत्युंजय भारत है। कालचक्र के आघातों से टकराकर फिर से उठ खड़ा होता है। अमृत का पुत्र है भारत! प्रत्येक संकट के बाद यह बात और अधिक पुष्ट हो जाती है। 1962 और 1965 में चीन और पाकिस्तान द्वारा थोपे गये युद्धों की विभीषिका से आगे निकलकर पुनर्नवा भारत फिर से आगे की यात्रा पर अग्रसर हो चुका था और संघ भी राष्ट्र के परम वैभव प्राप्ति के लक्ष्य हित समर्पण भाव से आगे बढ़ रहा था। वर्ष 1963 में श्री गुरुजी नेपाल के प्रवास पर गये थे तो उन्होंने नेपाल नरेश महाराजा महेंद्र शाह से भारत-नेपाल संबंधों एवं हिन्दू हितों के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की थी।  नेपाल प्रवास के दौरान उन्होंने नेपाल नरेश को भारत में संघ के उत्सव में आने का निमंत्रण भी दिया जिसे नेपाल नरेश ने सहर्ष स्वीकार किया। 14 जनवरी 1965 को संघ के मकर संक्रांति कार्यक्रम में नेपाल नरेश आमंत्रित थे किन्तु दुर्भाग्य से भारत सरकार ने किन्हीं कारणों से उन्हें भारत आने को मना कर दिया। इससे नेपाल नरेश बहुत आहत हुए थे और उन्होंने पत्र में श्री गुरुजी को हिन्दू समारोह में एक हिन्दू के नाते भाग लेने से वंचित किये जाने को लेकर अपना क्षोभ व्यक्त किया था।  1966 में बिहार राज्य में भयंकर सूखा पड़ा जिसमें हजारों स्वयंसेवक सेवा भाव से सूखे से प्रभावित अपने बंधु-बांधवों के लिए राहत कार्य में जुटे। उस समय स्वयंसेवकों का निस्वार्थ सेवा भाव देखकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने मुक्त कंठ से स्वयंसेवकों की प्रशंसा की। इसी वर्ष प्रयागराज कुम्भ में प्रथम हिन्दू सम्मेलन आयोजित किया गया, श्री गुरुजी और अनेक संतों धर्माचर्यों ने इस आयोजन को सफल बनाया। इस अवसर पर चारों शंकराचार्य एक ही मंच पर उपस्थित थे। इस सम्मेलन में 11 प्रस्ताव पारित किए गए जिनमें विशेष रूप से घर वापसी, मंदिरों का वैभव, गौ रक्षा, संस्कृत भाषा और विदेशों में रह रहे हिंदुओं की सुरक्षा जैसे विषयों पर पारित प्रस्ताव प्रमुख थे। 

1967 में महाराष्ट्र प्रांत में संघ का प्रांतिक शिविर लगा जिसमें 10000 स्वयंसेवकों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। 1967 में केरल में कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले संयुक्त मोर्चा मंत्रिमंडल के आने पर मुस्लिम लीग ने अलग मुस्लिम बहुल जिले की मांग की। ऐसे में कम्युनिस्ट नेताओं और मुस्लिम लीग के राष्ट्रविरोधी गठबंधन में निहित खतरे को भांपते हुए स्वतंत्रता सेनानी के. केलप्पन के नेतृत्व में सत्याग्रह आंदोलन चला जिसमें भारतीय जनसंघ और संघ के स्वयंसेवकों की विशेष भूमिका रही। 1968 में मध्य प्रदेश के शाजापुर में भी प्रांतिक शिविर का आयोजन किया गया।  इस दौरान संघकार्य विस्तार हित कठोर दैनिकचर्या और निरंतर प्रवास के चलते श्री गुरुजी का शरीर कमजोर हो रहा था किन्तु उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति के सामने उनका शारीरिक कष्ट पराजित हो जाता था। पूर्व में 1960 के समय से ही चिकित्सकों ने उनके शरीर की जांच कर उनके शरीर में गंभीर रोग होने की आशंका जताई थी किंतु श्री गुरुजी संघकार्य को विस्तार देने में समर्पित थे, धीरे-धीरे उनका रोग बढ़ता गया और 1970 में उन्हें कैंसर होने की पुष्टि हुई। उनके रोग की स्थिति लगातार बिगड़ रही थी और वह निरंतर कार्य कर रहे थे। 

1971 में विदर्भ में प्रांतिक शिविर का आयोजन हुआ जिसमें 10,000 से अधिक स्वयंसेवकों की उपस्थिति रही। दूसरी ओर देश विभाजन के बाद से ही पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं की स्थिति दोयम दर्जे की थी। यहां तक कि पाकिस्तानी सरकार बंगाली मुसलमानों पर भी अत्याचार कर रही थी। लाखों  बांग्लादेशियों ने भारत में शरण ले ली थी। एक लाख से अधिक बांग्लादेशी नागरिकों ने मुक्तिवाहिनी का गठन कर पाकिस्तानी सेना से लोहा ले रखा था। श्री गुरुजी के निर्देश पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के केंद्रीय कार्यकारी मंडल ने 11 जुलाई 1971 को ‘बांग्लादेश (पूर्वी पकिस्तान) में पाकिस्तान का पिशाच नृत्य’ नामक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा गया था कि,”बांग्लादेश (पूर्वी पकिस्तान) से हिन्दुओं के समूल विच्छेद का कार्य पाकिस्तान ने प्रारंभ कर दिया है इसके परिणाम स्वरुप 70 लाख हिन्दू भारत आ चुके हैं और शीघ्र ही और हिन्दुओं के भी आने की संभावना है।“ 17 अक्टूबर 1971 को ‘बांग्लादेश के प्रति भारत का कर्तव्य’ नाम से दूसरा प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें स्पष्ट उल्लेख था कि, ”यदि पाकिस्तान भारत पर आक्रमण करने का दुस्साहस करता है तो सरकार को उसे दृढ़ता से सबक सिखाना होगा।“ इन्ही परिस्थितियों में 3 दिसम्बर 1971 को भारत-पाक युद्ध की घोषणा हो गयी और 4 दिसम्बर 1971 को नागपुर में श्री गुरुजी ने कहा, ”राष्ट्रहित सर्वाेपरि है और व्यक्ति, दल आदि का विचार गौण है इसलिए आज जब अपना राष्ट्र युद्ध स्थिति में घसीटा गया है, प्रत्येक स्वयंसेवक और संघ प्रेमी व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के नाते तथा संघ के नाते देश की रक्षा के सभी कार्यों में सरकार को मनरूपूर्वक सहायता किया जाना स्वाभाविक ही है।“ 7 और 16 दिसम्बर को भी इन विषयों को लेकर उन्होंने प्रेरक उद्बोधन दिए। इस युद्ध में भारत की गौरवपूर्ण विजय हुई। जीत से प्रफुल्लित श्री गुरुजी ने तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम को पत्र लिखकर बधाई दी और जीत के लिए देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की प्रशंसा भी की। 1 जनवरी 1972 को कोलकाता में एक जनसभा में श्री गुरुजी ने इस युद्ध में बलिदान हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित की। 

पूर्व में 1963 में अखिल भारतीय स्वामी विवेकानन्द शताब्दी समारोह समिति और विवेकानन्द शिला स्मारक समिति पंजीकृत हो चुकी थी, जिसके तत्वावधान में संघ प्रचारक एकनाथ रानाडे के कुशल निर्देशन में  स्मारक का कार्य गतिशील था। इस पुनीत कार्य हेतु हजारों स्वयंसेवकों ने देशभर से 1-1 रुपये की सहयोग राशि एकत्र की। 02 सितम्बर 1970 को विवेकानन्द शिला स्मारक की प्राण प्रतिष्ठा हेतु राष्ट्रपति वी.वी. गिरि द्वारा उद्घाटन सम्पन्न हुआ।  इस समय तक श्री गुरुजी का स्वास्थ्य बहुत अधिक गिर चुका था। 4 फरवरी 1973 को बेंगलुरु में उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवकों को संबोधित किया तथा ‘विजय ही विजय’ कहकर अपनी बात समाप्त की, यही वाक्य सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवकों के लिए उनका अंतिम वाक्य बन गया। 5 जून 1973 को श्री गुरुजी ने अपनी नश्वर देह त्याग दी। 

6 जून को उनकी अंत्येष्टि से पूर्व श्री गुरुजी द्वारा अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख पांडुरंग पंत क्षीरसागर को दिए गये तीन पत्रों को खोला गया, पहले पत्र में बाला साहब देवरस को संघ के तृतीय सरसंघचालक का दायित्व दिए जाने का उल्लेख था। दूसरे पत्र में श्री गुरुजी ने कहा था कि संघ के संस्थापक पूज्य डॉ. हेडगेवार जी के अतिरिक्त किसी और का स्मारक न बनाया जाए। तीसरे पत्र में उन्होंने लिखा था, ”मुझसे  जाने-अनजाने में यदि किसी के हृदय को ठेस पहुंची हो तो मैं सबसे करबद्ध क्षमा याचना करता हूं।’’ श्री गुरुजी का विदा होना संघ  के लिए एक बड़ा आघात था।  1974 में छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की त्रिशताब्दी मनाई गई। राजनीतिक हठवादिता और अहम के चलते 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत की जनता पर ‘आपातकाल’ थोप दिया। इंदिरा गांधी ने तानाशाही रवैय्या अपनाते हुए अपने इस अनैतिक कृत्य में संघ को अपने रास्ते का रोड़ा मानते हुए 4 जुलाई को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। संघ पर लगाया गया यह दूसरा प्रतिबंध था। इस प्रतिकूल समय में भी आपातकाल के विरुद्ध आंदोलन में संघ के स्वयंसेवकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। हजारों स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया और जेल गए। अनेक वरिष्ठ स्वयंसेवकों सहित सरसंघचालक बाला साहब देवरस को गिरफ्तार कर लिया गया। इस परीक्षाकाल में स्वयंसेवकों ने इस जन आन्दोलन को कुचलने की कांग्रेस की मंशा को कैसे धूल-धूसरित किया ।

इस अंक में इतना ही अगली शृंखला में बात करेंगे संघ यात्रा के अगले दशक की...