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छत्रपति शिवाजी जयंती पर विशेष : सनातन धर्म योद्धा

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भारत की पवित्र माटी में जन्मे छत्रपति शिवाजी महाराज साहस, राजकौशल और कुशल प्रशासक की सनातन प्रतिमूर्ति थे। उन जैसा योजनाकार और संगठनकर्ता और और कहीं नहीं दिखता। उन्होंने अनेक उतार-चढ़ावों का सामना किया, लेकिन कभी भी मर्यादा का हनन नहीं किया। उन्होंने पूरी निष्पक्षता के साथ राज किया। इन्हीं गुणों के कारण वे आज भी समूचे भारत और भारतवासियों के दिल में बसे हैं। सच कहें तो आधुनिक भारत के निर्माण में उनका अभूतपूर्व योगदान है। वे हमारे नायक हैं।

आज भी शिवाजी की संगठन कुशलता का उदाहरण दिया जाता है। उस समय मराठा अलग-अलग रहते थे, अलग-अलग ही लड़ाई भी लड़ते थे। शिवाजी ने अनुभव किया कि मराठों में जोश और स्वदेशाभिमान तो है, पर एकता नहीं होने के कारण वे सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए शिवाजी ने उन्हें एक-एक करके संगठित किया। उसके बाद तो मराठों की विजय पताका फहरने लगी। शिवाजी की राजकीय व्यवस्था और सेना खड़ी करने की क्षमता अद्भुत थी। उनकी न्याय व्यवस्था तो ऐसी थी कि दुश्मन भी इस मामले में उनकी तारीफ करते थे।

छत्रपति शिवाजी हर व्यक्ति से कुछ न कुछ सीखने की कोशिश करते थे। उनसे जुड़ा एक प्रसंग बताता है कि वे अपने आलोचकों से भी सीख लेते थे। यह उन दिनों की बात है जब शिवाजी मुगलों के विरुद्ध छापामार युद्ध लड़ रहे थे। एक रात वे थके-हारे एक वृद्धा की झोंपड़ी में जा पहुंचे। उनके चेहरे को देखकर वृद्धा बोली, ‘‘सिपाही, तेरी सूरत शिवाजी जैसी लगती है। तू भी उसी की तरह मूर्ख है।’’ शिवाजी ने कहा, ‘‘शिवाजी की मूर्खता के साथ-साथ मेरी भी कोई मूर्खता बताएं।’’ वृद्धा ने उत्तर दिया, ‘‘वह दूर किनारों पर बसे छोटे-मोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की बजाए बड़े किलों पर धावा बोल देता है और फिर हार जाता है।’’ वृद्धा की इस बात से शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण समझ में आ गया। उन्होंने वृद्धा से सीख प्राप्त कर पहले छोटे-छोटे लक्ष्य बनाए और उन्हें प्राप्त करने के लिए मेहनत करने लगे। उन्होंने छोटे किलों को जीतने पर ध्यान लगाया और परिणाम जीत के रूप में आने लगा। इससे उनके साथ-साथ उनके सैनिकों का भी मनोबल बढ़ा। इस मनोबल की बदौलत ही वे बड़े किलों को जीत पाए। ज्यों-ज्यों जीत मिलती गई, उनकी शक्ति बढ़ती गई।

छत्रपति शिवाजी चाहते थे कि मराठों के साम्राज्य का विस्तार हो और उनका अलग से एक राज्य हो। अपने इसी सपने को साकार करने के लिए उन्होंने 28 वर्ष की आयु में अपनी एक अलग सेना एकत्रित करनी शुरू कर दी और अपनी योग्यता के बल पर मराठों को संगठित किया तथा एक अलग साम्राज्य की स्थापना भी की। उन्होंने जहाजी बेड़ा बनाकर एक मजबूत नौसेना की स्थापना की। इसलिए उन्हें भारतीय नौसेना का जनक कहा जाता है।

शिवाजी ने राज्य की चिरकालीन दृढ़ता के लिए अनेक संस्थाओं का निर्माण करवाया। औरंगजेब की प्रचंड शक्ति का सामना कर विजय प्राप्त करने में इन संस्थाओं का बहुत उपयोग हुआ। इस कारण मराठे स्वसंरक्षण और राज्यवर्धन, ये दोनों काम कर सके।

एक दिन सूर्यास्त के बाद शिवाजी ने द्वारपाल से द्वार खोलने के लिए कहा। द्वारपाल ने साफ-साफ कहा कि सूर्यास्त के बाद द्वार नहीं खुलेगा। इस कारण शिवाजी को बाहर ही रात गुजारनी पड़ी। सुबह होते ही उन्होंने द्वारपाल को दरबार में बुलाया और द्वार न खोलने का कारण पूछा। द्वारपाल ने जवाब दिया, ‘‘महाराज जब आप ही अपने आदेश का पालन नहीं करेंगे तो प्रजा क्या करेगी?’’ द्वारपाल की कर्तव्यनिष्ठा और निर्भीकता से शिवाजी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उसे अंगरक्षक बना लिया।

समर्थ गुरु रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। एक दिन उन्होंने दरवाजे के बाहर से शिवाजी से भिक्षा की मांग की। शिवाजी ने कहा, भिक्षा मांग कर आपने हमें लज्जित किया। गुरु रामदास ने कहा, ‘‘आज मैं गुरु के रूप में नहीं, बल्कि भिक्षुक के नाते भिक्षा मांगने यहां आया हूं।’’ शिवाजी ने एक कागज पर कुछ लिखकर गुरु के कमंडल में डाल दिया। उसमें लिखा था- सारा राज्य गुरुदेव को अर्पित है। गुरु रामदास ने कागज फाड़ दिया और कहा, ‘‘मैं तुम्हारे अंदर का अहंकार निकाल नहीं पाया हूं। तुम राजा नहीं, एक सेवक हो। जो चीज तुम्हारी है ही नहीं उसे तुम मुझे दे रहे हो।’’ गुरुदेव ने आगे कहा, ‘‘वत्स! यह राज-पाट, धन-दौलत सब जनता की मेहनत का फल है। इस पर सबसे पहले उनका अधिकार है। तुम एक समर्थवान सेवक हो। एक सेवक को दूसरे की चीज को दान देना राजधर्म नहीं है।’’ शिवाजी ‘‘गुरुदेव की भावना को समझ गए और उनसे क्षमा मांग कर बोले, गुरुदेव! अब कभी भूल नहीं होगी।’’

 


सोर्स : पाञ्चजन्य