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दिल्ली की दूषित आबोहवा एक शहर के खराब होते फेफड़ों का सच

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दिल्ली की दूषित आबोहवा एक शहर के खराब होते फेफड़ों का सच  

सर्दियों की शुरुआत के साथ दिल्ली- एनसीआर की हवा हर वर्ष एक अलग रूप धारण करने लगती है। जैसे-जैसे तापमान नीचे उतरता है और सूर्य की किरणें कमजोर पड़ती हैं, हवा की गति भी सुस्त होती जाती है। लेकिन मौसम का यह परिवर्तन सिर्फ ठंड का अहसास नहीं लाता, वह अपने साथ धुआँ, धूल और जहरीले कणों का ऐसा भारी मिश्रण भी लेकर आता है, जो इस महानगरीय क्षेत्र को एक बार फिर धुंध के आवरण में ढँक देता है। नवंबर 2025 इसका ताजा उदाहरण रहा, जब शहर के कई हिस्सों में वायु गुणवत्ता सूचकांक 450 से ऊपर दर्ज किया गया। कई इलाकों में च्ड 2.5 का स्तर 300 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ऊपर पहुंच गया, जो कि स्वास्थ्य मानकों की तुलना में पांच गुना ज्यादा था। ऐसी हवा में सांस लेना केवल जोखिम नहीं, बल्कि स्वास्थ्य के लिए घातक स्थिति है। यह कोई एक-दो दिनों की समस्या नहीं, बल्कि हर वर्ष दो से तीन महीनों की वह स्थायी आपदा है जिससे दिल्ली-एनसीआर को गुजरना पड़ता है।

पिछले एक दशक में किए गए अधिकांश राष्ट्रीय और वैश्विक सर्वेक्षण बताते हैं कि दिल्ली का प्रदूषण ग्राफ लगातार ऊँचाई पर टिका हुआ है। वायु गुणवत्ता मॉनिटरिंग डेटा दिखाता है कि दिल्ली-एनसीआर का औसत च्ड 2.5 स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय सुरक्षित सीमा से कई गुना अधिक है। हालिया सर्वे में भारत के 293 शहरी केंद्रों का विश्लेषण किया गया, जिनमें से 88 प्रतिशत ने पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन की वार्षिक सीमा पार कर दी थी। इस सूची में दिल्ली दूसरे स्थान पर दर्ज हुई, जहां च्ड 2.5 का औसत स्तर लगभग 87 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पहुंचा, जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की दीर्घकालिक स्वास्थ्य संकट की गंभीरता को दर्शाता है। वैश्विक सर्वेक्षणों में भी दिल्ली बार-बार दुनिया के सबसे प्रदूषित महानगरों में स्थान पाती रही है। 2025 के विश्लेषण में इसे शीर्ष दस सबसे प्रदूषित शहरों में गिना गया, जबकि 2024 की कई रिपोर्टों ने इसे ‘गंभीर प्रदूषण’ श्रेणी में स्थिर बताया। इन आंकड़ों का निष्कर्ष साफ है दिल्ली का प्रदूषण किसी मौसमी उतार-चढ़ाव की कहानी नहीं, बल्कि एक स्थायी, जड़ जमाए हुए पर्यावरणीय संकट का प्रमाण है।

दिल्ली की हवा आखिर हर साल इतनी जहरीली क्यों बन जाती है? इसका जवाब किसी एक वजह में नहीं मिलता। यह समस्या संरचनागत, प्राकृतिक और आर्थिक कारणों के ऐसे सम्मिश्रण का परिणाम है जो वर्षों से इस क्षेत्र की हवा को जकड़े हुए हैं। शहर की आबादी लगातार बढ़ रही है, सड़कें विस्तार ले रही हैं, निजी वाहनों की संख्या हर साल तेजी से बढ़ती जा रही है, औद्योगिक इकाइयां फैलाव ले रही हैं और साथ ही पड़ोसी राज्यों की कृषि-प्रणालियां भी दिल्ली की हवा को प्रभावित कर रही हैं। मौसम की भूमिका इन सभी कारकों को और विकराल रूप दे देती है।

दूसरी ओर देखें तो दिल्ली की हरियाली को शहर के ”फेफड़े“ कहा जाता है, लेकिन वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि राजधानी का वास्तविक हरित आवरण अब भी पर्याप्त नहीं है। कुल क्षेत्रफल के मुकाबले दिल्ली में वन आवरण लगभग 13 प्रतिशत और वृक्ष आवरण मिलाकर कुल हरियाली करीब 25 प्रतिशत है। देखने में यह संख्या ठीक लगती है, लेकिन इनमें बहुत घना जंगल बेहद कम है और ज्यादातर क्षेत्र बिखरी हुई या खुली हरियाली के रूप में दर्ज है। यानी पेड़ हैं, पर उतने सघन और प्रभावी नहीं कि लगातार बढ़ते प्रदूषण के बोझ को संतुलित कर सके। 

शहर के भीतर सबसे अधिक प्रदूषण वाहनों से आता है। लाखों कारें, स्कूटर, बसें और भारी वाहन रोजाना सड़कों पर उतरते हैं। जैसे-जैसे ट्रैफिक का दबाव बढ़ता है, वाहनों की गति धीमी पड़ती है और उत्सर्जन बढ़ता जाता है। पुराने डीज़ल वाहनों का धुआँ और भारी ट्रकों का उत्सर्जन हवा में घुलते हुए जहरीले कणों की मात्रा को और बढ़ा देता है। कई अध्ययनों में यह साफ हुआ है कि दिल्ली के प्रदूषण में लगभग 35 से 40 प्रतिशत योगदान अकेले वाहनों का है। यह समस्या केवल बढ़ते उत्सर्जन की नहीं, बल्कि शहर की जीवन-व्यवस्था की है जिसमें निजी वाहनों का उपयोग लगातार बढ़ा है।

लेकिन दिल्ली सिर्फ अपने ही धुएं से नहीं जूझती। हर साल अक्टूबर-नवंबर में पंजाब और हरियाणा के खेतों में पराली जलाने की प्रक्रिया तेजी पकड़ लेती है। धान काटने के बाद खेतों को जल्दी तैयार करने के लिए किसानों के पास पराली जलाना ही आसान विकल्प बचता है। यह धुआँ उत्तर-पश्चिमी हवाओं के साथ दिल्ली की ओर बढ़ता है और जैसे ही तापमान गिरना शुरू होता है, हवा भारी होने लगती है। हवाई परतों के नीचे बैठ जाने के कारण पराली का धुआँ जमीन के पास ही अटक जाता है और शहर के ऊपर स्मॉग (धुंध) की मोटी परत बन जाती है। यह स्थिति वह समय होता है जब दिल्ली की वायु गुणवत्ता खतरनाक स्तर से भी नीचे गिरकर ”अत्यंत गंभीर“ श्रेणी में पहुंच जाती है।

शहर की धूल एक अलग और महत्वपूर्ण कारक है। दिल्ली-एनसीआर एक विशाल निर्माण-क्षेत्र में तब्दील हो चुका है। मेट्रो परियोजनाएं, फ्लाईओवर, सड़क विस्तार, नए औद्योगिक क्षेत्रों का विकास, इन सभी गतिविधियों से भारी मात्रा में मिट्टी और धूल हवा में फैलती रहती है। कई निर्माण स्थलों पर धूल नियंत्रण के लिए तय दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया जाता। खुली निर्माण सामग्री, टूटी-फूटी सड़कें, खाली पड़े भूखंड और मालवाहक वाहनों की आवाजाही हवा में भारी मात्रा में च्ड 10 कण घोल देते हैं। हल्की हवा होने पर यह धूल घंटों हवा में तैरती रहती है और धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र में फैल जाती है, जो वायु गुणवत्ता को और खराब करती है।

औद्योगिक क्षेत्रों में भी कई पुरानी तकनीकें और कम गुणवत्ता वाले ईंधन उपयोग में लाए जाते हैं। इससे निकलने वाला सल्फर, नाइट्रोजन और कार्बन का घना मिश्रण हवा को और अधिक दूषित कर देता है। शहर के आसपास के औद्योगिक क्षेत्रों- बवाना, नरेला, गाजियाबाद, फरीदाबाद और गुरुग्राम से निकलने वाला प्रदूषण दिल्ली की हवा में घुलकर पूरे क्षेत्र के लिए चुनौती बढ़ाता है। इसके साथ ही कचरे का खुला जलना भी वातावरण को विषाक्त करने में बराबर की भूमिका निभाता है। प्लास्टिक और रबर का जलना हवा में जहरीली गैसों का ऐसा मिश्रण घोलता है, जो स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित करता है।

दिल्ली की हवा को जहरीला बनाने में एक और बड़ा कारक है शहर के कचरा-पर्वत। गाजीपुर, भलस्वा और ओखला की लैंडफिल साइटें अब वर्षों पुराने ऐसे कचरा-ढेर बन गई हैं जिनसे उठती गैसें हवा को लगातार विषाक्त करती रहती हैं। इन ढेरों में जमा जैविक पदार्थों के विघटन से मीथेन गैस बनती है, जो अत्यधिक ज्वलनशील होती है और जिसमें न तो रंग होता है और न गंध इसलिए इसका रिसाव पकड़ना मुश्किल होता है। जब तापमान बढ़ता है, तो इन लैंडफिल साइटों में अचानक आग लग जाती है और यह आग कई दिनों तक जलती रहती है। इससे निकलने वाला धुआँ न केवल आसपास के क्षेत्रों, बल्कि पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हवा को खतरनाक स्तर पर पहुंचा देता है। 

इन लैंडफिल साइटों पर बढ़ते खतरों को देखते हुए वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने हाल ही में कई तकनीकी उपाय लागू करने का निर्णय लिया है। शुरुआती चेतावनी प्रणाली, इंफ्रारेड तापमान निगरानी और मीथेन डिटेक्टर लगाने जैसी व्यवस्थाएं इस दिशा में कदम हैं। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तविक समाधान निगरानी में नहीं, बल्कि इन ढेरों के अस्तित्व को समाप्त करने में है। जब तक कचरे का पृथक्करण, पुनर्चक्रण (त्मबलबसपदह) कम्पोस्टिंग और ईंधन-निर्माण बड़े पैमाने पर नहीं होता, तब तक दिल्ली की हवा को साफ करने की कोई भी कोशिश अधूरी ही रहेगी।

गौरतलब है कि वर्ष 2017-18 के मुकाबले 2024-25 में च्ड10 स्तर लगभग 15 प्रतिशत कम हुआ, लेकिन यह गिरावट भी दिल्ली की हवा को सुरक्षित दायरे में लाने के लिए पर्याप्त नहीं है। हवा में तैरते सूक्ष्म कणों का स्तर अब भी राष्ट्रीय मानकों से तीन से चार गुना अधिक है। यही कारण है कि दिल्ली हर वर्ष शरद और शीत ऋतु में प्रदूषण की ‘अत्यंत गंभीर’ श्रेणी में पहुंच जाती है। 

वायु गुणवत्ता बिगड़ने के इस संकट में दिल्ली सरकार ने प्रशासनिक स्तर पर एक और महत्वपूर्ण निर्णय लिया है। दिल्ली सरकार ने दिल्ली-एनसीआर के निजी कार्यालयों से अनुरोध किया है कि वे अपने कुल कर्मचारियों में से कम से कम पचास प्रतिशत को वर्क-फ्रॉम-होम व्यवस्था दें। इस कदम का उद्देश्य केवल कार्यालय-प्रबंधन नहीं है, बल्कि सड़कों पर वाहनों की संख्या कम करना भी है। यदि लाखों लोग घर से काम करें तो पिक ऑवर में ट्रैफिक का दबाव कम होगा, वाहनों से निकलने वाला धुआँ घटेगा और हवा में घुलने वाले जहरीले कणों की मात्रा कम होगी। कार्यालय समय में परिवर्तन और यातायात नियंत्रण के बाद भी जब प्रदूषण के स्तर में पर्याप्त सुधार नहीं देखा गया, तब यह निर्णय संकेत देता है कि प्रशासन अब केवल प्रतिक्रिया देने के बजाय प्रदूषण को पहले-पहल रोकने की कोशिश कर रहा है।

इस पूरे परिदृश्य में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली-एनसीआर का प्रदूषण केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं है; यह एक सामाजिक, स्वास्थ्य और प्रशासनिक चुनौती है। इसे हल करने के लिए तात्कालिक उपायों से ज्यादा आवश्यक है वैज्ञानिक दृष्टिकोण, दीर्घकालिक नीति और राजनीतिक इच्छाशक्ति। हर गुजरते साल यह संकट और गहरा होता जा रहा है। शहर की सांसें तभी स्वच्छ होंगी जब सरकार, उद्योग, किसान और नागरिक सभी मिलकर अपनी भूमिका गंभीरता से निभाएंगे।