संगठित हिंदू समाज एवं चरित्र निर्माण से राष्ट्र निर्माण के पुण्य ध्येय को समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष का प्रारंभ भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का कालजयी उद्धघोष है और हजारों वर्षों से चली आ रही भारत की गौरवशाली परंपरा का पुनरुत्थान व अनादि राष्ट्र चेतना का पुण्य अवतार भी है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के सातवें श्लोक में कहा कि-
‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम’
जिस प्रकार धर्म की रक्षा हेतु व धर्मनिहित राष्ट्र निर्माण हेतु विभिन्न युगों में भगवान विभिन्न रूपों में जन्म लेते रहे हैं और धर्म आधारित विचार देते रहे हैं। ऐसे ही राष्ट्र निर्माण हेतु विजयादशमी के दिन एक पावन विचार के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ। जिसे हम सभी सामान्यतः संघ के नाम से जानते हैं।
राष्ट्र सर्वाेपरि, सनातन संस्कृति की रक्षा और संगठित समाज निर्माण के पावन उद्देश्यों को लेकर 1925 में विजयादशमी के पवित्र दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जिस बीज को नागपुर में बोया था, वह आज एक वटवृक्ष बनकर भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व में अपनी छाया फैला चुका है। जिसने ‘विचार से विजय’ अपनी 100 वर्षों की यशस्वी, अद्वितीय और प्रेरणादायक यात्रा को जन जन के बीच लोकप्रिय बना दिया है। आज जब संघ अपने ‘परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्’ के पावन विचार के ध्येय मार्ग पर बढ़ रहा है तब यह अवसर है उसके विचार, संघर्ष, विकास और विजय की गौरवगाथा को आत्मसात करने का संघ का कार्य ही आचरण शुद्धि का है और राष्ट्र निर्माण के लिए व्यक्ति निर्माण का मंत्र लेकर पिछले 100 वर्ष से कार्य चल रहा है।
समाजव्यापी तथा सर्व समावेशी हिंदू संगठन का लक्ष्य लेकर यह ईश्वरीय अनुष्ठान अनेक बाधाओं को पार कर निरंतर गतिमान है। विजयादशमी युगाब्ध 5127 तदनुसार 2025 से संघ का शताब्दी वर्ष प्रारंभ हो गया है अपने स्वभाव के अनुसार ही इस अवसर पर कार्य विस्तार तथा दृढ़ीकरण के साथ ही समाज मन में अनुशासन सकारात्मक विमर्श प्रसार हेतु पंच परिवर्तन व्यवहार में उतारने का संकल्प परम पूजनीय सरसंचालक जी द्वारा सभी स्वयंसेवकों को दिया गया है।
पंच परिवर्तन के पांच आयाम हैं -
1. कुटुंब प्रबोधन
2. सामाजिक समरसता
3. पर्यावरण
4. नागरिक कर्तव्य
5. स्व का बोध
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि पंच परिवर्तन कार्यक्रम को सुचारू रूप से लागू कर समाज में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। स्व के बोध से नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होंगे। नागरिक कर्तव्य बोध अर्थात कानून की पालना से राष्ट्र समृद्ध व उन्नत होगा। सामाजिक समरसता व सद्भाव से ऊंच-नीच जाति भेद समाप्त होंगे। पर्यावरण से सृष्टि का संरक्षण होगा तथा कुटुम्ब प्रबोधन से परिवार बचेंगे और बच्चों में संस्कार बढ़ेंगे। समाज में बढ़ते एकल परिवार के चलन को रोक कर भारत की प्राचीन परिवार परंपरा को बढ़ावा देने की आज महती आवश्यकता है।
1-परिवार प्रबोधन: परिवार हमारे संस्कार की पाठशाला है। परिवार किसी भी व्यक्ति की शिक्षा का केंद्र बिंदु है। संघ का मानना है कि हमारा परिवार एक आदर्श परिवार हो जिससे कि हमारे पड़ोसी भी प्रेरित हों विश्व भी प्रेरित हो। संघ का संकल्प है कि पहले हम परिवार में प्रबोधन अपनाएंगे फिर 2026 तक अन्य परिवारों तक लेकर जायेंगे। रामायण, महाभारत सब आदर्श परिवारों की कहानी है और लोग उन्हें मानते भी हैं एक आदर्श परिवार कैसा होना चाहिए यह हमारे शास्त्रों में भी वर्णित है भीषण से भीषण स्थिति में भी अपने कर्तव्य और धर्म का पालन कैसे करें यह सब हमारे शास्त्रों में हमें देखने के लिए मिलता है। सम्पूर्ण विश्व के सामने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का आदर्श, योगिराज श्री कृष्ण का आदर्श, धर्मराज युधिष्ठिर का आदर्श आदि सब देखने के लिए मिलता है। वर्तमान परिदृश्य में हम भारतीय तो पाश्चात्य परिवारों का अनुसरण कर रहे हैं जबकि पाश्चात्य देश भारतीय परिवारों को आदर्श मानते हुए अपने परिवार को भारतीय परिवार के अनुसार बदलते जा रहे हैं। अतः आज परिवार प्रबोधन समय की मांग है। एक आदर्श में परिवार के सदस्य अपने परिवार के सभी सदस्यों की चिंता करने वाले हों। वह अपने समाज की, मानवता की और जब प्रश्न आएगा तब विश्व की चिंता करने वाला राष्ट्र समर्पित परिवार हो। इसके लिए सर्वप्रथम तो हमें अपने परिवार में स्वभाषा, स्वभूषा, स्वभवन स्वभ्रमण, स्वभजन और स्वभोजन यह छ बातें अपने परिवार में अपनानी चाहियें। अपने परिवार में मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का आग्रह होना चाहिए। अपने पारंपरिक पोशाक का अभिमानपूर्वक समय पहनना चाहिए। अपने घर का वायुमंडल देशभक्ति का धार्मिक तथा सात्विक होना चाहिए। अपने कुल की उपासना पद्धति का नियम का पालन होना चाहिए। फास्ट फूड या जंक फूड से बचकर पौष्टिक, परंपरागत एवम घर में बने भोजन की आदत डालें। भ्रमण करते समय तीर्थ स्थान ऐतिहासिक और देशभक्ति पूर्ण स्थान का भी ध्यान रखें। देवयज्ञ, पितृयज्ञ मनुष्ययज्ञ, भूतयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ इन पांच यज्ञों को नए रूप में पुनर्जीवित करना होगा। सप्ताह में एक दिन तय करके सब लोगों को शाम को निश्चित रूप से इकट्ठा होना। एक साथ भोजन करना, श्रद्धापूर्वक भजन करना आनंद से घर में बना हुआ भोजन ग्रहण करना अपनी परंपरा और पूर्वजों के बारे में नई पीढ़ी को बताना तथा उनके प्रश्नों और जिज्ञासा के लिए भी समय देना। मितव्ययता के बारे में बच्चों को बताना। सामाजिक समरसता के लिए बच्चों को प्रेरित करना। पर्यावरण संरक्षण के लिए भी प्रेरित करना और परिवार प्रबोधन के द्वारा ‘दिशि-दिशि फैला तमस हटेगा’ ‘भारत विश्व गुरु बनेगा’ जैसे उद्देश्य की ओर बढ़ना हिंदू जगेगा तो विश्व जगेगा उद्देश्य को आत्मसात करना।
2. सामाजिक समरसता- सामाजिक समरसता को संघ की विचारधारा का केंद्रीय बिंदु माना गया है। संघ का मानना है कि हिंदू समाज की स्वाभाविक विशेषता समरसता रही है, लेकिन समय के साथ जाति-भेद, ऊँच-नीच और अस्पृश्यता जैसी विकृतियाँ उत्पन्न हुईं, जिससे समाज के कुछ वर्गों को अन्याय और अपमान सहना पड़ा। इस बुराई को त्याज्य मानते हुए संघ का आग्रह है कि समाज में सब समान हैं-इस भावना से सभी को जोड़कर एकत्व (unity) की स्थापना की जाए। जब हम सामाजिक समरसता शब्द का उच्चारण करते हैं तो हमारा सामना भारत की भाषाई विविधता या सांप्रदायिक विविधता से नहीं बल्कि जातीय असमानता से होता है। हमारे यहां न केवल अनेक जातियां हैं बल्कि जातिगत भेदभाव भी हैं। जो कि समाज के लिए हानिकारक है। जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए हमें सभी जाति के लोगों के लिए सद्भावना रखनी होगी तभी हम ऊंच-नीच भेदभाव भूलाकर शोषण मुक्त समता युक्त समाज का निर्माण कर सकते हैं। अतः सामाजिक समरसता का अनुपालन समय की आवश्यकता है।
3. पर्यावरण संरक्षण - पर्यावरण का हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है इसके बिना मनुष्य एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता हरे-भरे पेड़ पौधे हमारे जीवन का भी वरदान है। प्रकृति के बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती जल पृथ्वी वायु अग्नि आकाश इन पांच तत्वों से ही मनुष्य का जीवन है और जीवन के अंत में इन्हीं पंच तत्वों में विलीन होना पड़ता है। कहा भी गया है कि-
जल थल पावक गगन समीरा ।
पंचतत्व रचित यह अधम शरीरा।।
पर्यावरण प्रदूषण आज न केवल भारत की परंतु बल्कि संपूर्ण विश्व की एक गंभीर समस्या है। इसके लिए अपनी जीवन शैली पर्यावरण अनुकूल होनी चाहिए। हम भौतिक सुख के पीछे भागते हुए और आराम पाने के लिए अनजाने में प्रकृति का दोहन करते आ रहे हैं यदि हम अपने प्रयासों में जीवन शैली नहीं बदलेंगे तो गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इसके लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाएं। बच्चों के जन्मदिन पर पेड़ लगाने की परंपरा को शुरू करें और साथ ही साथ उसके संरक्षण पर भी। प्लास्टिक से बनी चीजें का परहेज करें। जल का जितना कम से कम उपयोग हो उतना प्रयोग करें। प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम प्रयोग करें।पृथ्वी को माता मानकर पर्यावरण संरक्षण हेतु जीवनशैली में बदलाव करना और इसके लिए सामान्य जनमानस में विचार डालना हमको वेदों से प्राप्त शिक्षा के रूप में प्राप्त है। माता भूमि का मतलब है जन्म स्थान या अपना देश। भारतीय संस्कृति में जन्म भूमि को माता माना जाता है और उस पर बहुत सम्मान दिया जाता है। उक्त है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गाऽदपि गरियसी। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी भूमि को माता कहा गया है। वेद और पुराणों में भी पृथ्वी को माता का स्थान दिया गया है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है, ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ यानी धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं। हिन्दू धर्म में भूमि को भूदेवी, धरणी, और वसुंधरा के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक, वास्तु देव भूमि के देवता हैं। प्रकृति की शुचिता और पवित्रता बनाए रखना हमारा संवैधानिक दायित्व है। संघ मत में ऐसा मानना है कि हम इसके संरक्षण हेतु कितने प्रकार से कार्य कर सकते हैं इसको ध्यान में रख कर आज शताब्दी वर्ष में कार्य करना और समाज को प्रेरणा देना है।
4. स्वदेशी और आत्मनिर्भरता - स्वदेशी का मतलब विदेशी सामान इस्तेमाल न करना भर नहीं है विनोबा जी कहते हैं कि स्वदेशी का अर्थ है आत्मनिर्भरता और अहिंसा। संघ ने इसमें एक शब्द जोड़ी है वह है सादगी। संघ का एक और मत है कि जीवन में मितव्ययिता को अपनाए अर्थात् जितना जरूरी हो उतना ही सामान खरीदे। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2020 को लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए आत्मनिर्भर भारत पर जोर दिया और कहा कि आत्मनिर्भर भारत शब्द नहीं, 130 करोड़ देशवासियों के लिए मंत्र है। प्रधानमंत्री ने कहा कि आत्मनिर्भर भारत का आशय केवल आयात कम करना ही नहीं, हमारी क्षमता, रचनात्मकता और कौशल को भी बढ़ाना हैं। हमें मेक इन इण्डिया के साथ साथ मेक फॉर वर्ल्ड की व्यापक संकल्पना के साथ आगे बढ़ना होगा। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में स्वदेशी की सोच ने ही स्वराज का मार्ग प्रशस्त किया। स्वदेशी केवल कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा यह आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन का सूचक बन गया। स्वदेश से तात्पर्य स्वदेशी वस्तुओं, स्वदेशी सरकार तथा स्वदेशी व्यवस्था की स्थापना से था। इसे ही आज संघ पुनः मंत्र रूप में लेकर स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से जन जन तक पहुँचने को संकल्पित है। आज की आवश्यकता अनुसार लोकल को वोकल करने की बात को कह रहा है। स्वामी विवेकानन्द ने विदेशों में भारतीय संस्कृति की महानता को, धर्म के विदेशी स्वरूप को स्पष्ट और तार्किक रूप में रखा। जिससे कि भारतीयों में अपने देश व संस्कृति को लेकर एक आत्मनिर्भरता की भावना विकसित और समृद्ध हुई। आज पुनः समाज को उसी दिशा की तरफ उन्मुख करने का प्रयत्न है ।
5. नागरिक कर्तव्य - लोकतंत्र की सफलता और स्थिरता नागरिकों की भागीदारी और कर्तव्य के प्रति सजगता पर निर्भर करती है। जब नागरिक अपने कर्तव्य के प्रति संवेदनशील होते हैं और उसकी इमानदारी से पालन करते हैं तो समाज में सकारात्मक बदलाव आते हैं और देश की प्रगति होती है समाज की प्रगति सुरक्षा और समृद्धि के लिए नागरिक को कर्तव्य के प्रति संवेदनशील तथा कटिबद्धता आवश्यक है।
नागरिकों के मौलिक कर्तव्य-
1. संविधान का पालन करना उसके आदर्श और संस्थानों, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना।
2. हमारे राष्ट्रीय संग्राम को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को विकसित करना और उनका पालन करना।
3. भारत की संप्रभुता, एकता अखंडता का संरक्षण करना।
4. देश की रक्षा और आह्वान किया जाने पर राष्ट्रीय सेवा करना।
5. धर्म, भाषा क्षेत्र वर्ग के मतभेदों को दूर करना तथा भारत के लोगों के बीच एकता और भाईचारे को बढ़ावा देना।
6. महिलाओं की गरिमा को कम करने वाली प्रथाओं को त्यागना हमारी विविधता पूर्ण सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करना।
7. अनुशासन बनाए रखना व नियमों का पालन करना।
प्रत्येक नागरिक का धर्म है कि सामाजिक कर्तव्यों का निर्वहन करे और राष्ट्रहित में योगदान दें। नागरिक कर्तव्य, एक समृद्ध और लोकतांत्रिक समाज में रहने के लिए आवश्यक तत्त्व होते हैं। ये कर्तव्य, नागरिकों की ज़िम्मेदारियां और अधिकार होते हैं। नागरिक कर्तव्यों को पूरा करना एक प्रकार से सरकार और जनमानस के बीच होने वाले अनुबंध का सम्मान होता है। आज के संदर्भ में संवैधानिकता कर्तव्यों को निम्न बिंदुओं के रूप में देखा जाता है, जिसके अनुपालन हेतु ही संघ का ऐसा आग्रह है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा बताए गए उपर्युक्त पंच परिवर्तन जीवन पांच सूत्र हैं जो समाज में अनुशासन वो सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए अति आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है कि पहले अपने व्यवहार में परिवर्तन लाएं फिर अपने परिवार में और फिर अपने समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास करें। पंच परिवर्तन से ही एक सुसंस्कृत परिवार, समृद्ध समाज एवं समुन्नत राष्ट्र का निर्माण संभव है।
लेखिका किसान पी.जी. कॉलेज,सिंभावली (हापुड़) चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में एसोसिएट प्रोफेसर है।




