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आजादी का अमृत महोत्सव

भारतीय संस्कृति के प्रति संघ का दृष्टिकोण

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·       संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति।

·       राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रत्येक कार्य में भारतीय संस्कृति परिलक्षित होती है।

·       अंधानुकरण आत्मिक पराधीनता की ओर ले जाता है।

·       हमारी संस्कृति हिमालय के समान उन्नत दृष्टि का एक शिखर है जिस पर पहुँचने की महत्वाकांक्षा अभी तक संसार के अन्य किसी ने नहीं की है।

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संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्दसंस्कृति संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, यही सभ्यता संस्कृति का अंग है।

शिवदत्त ज्ञानी जी द्वारा लिखितभारतीय संस्कृतिनामक पुस्तक, जो कि वर्ष 1944 में बम्बई से प्रकाशित हुई थी, उसमे संस्कृति का अर्थ स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि, ‘संस्कृतिशब्द संस्कृत भाषा कीसंस्कृधातु मेंक्तिन’  प्रत्यय लगाने से बनता है। इसका शाब्दिक अर्थअच्छी स्थिति‘ ‘सुधरी हुई स्थितिआदि का बोधक है। यह अर्थ तो व्याकरण की दृष्टि से हुआ। किन्तु इस का भावार्थ अधिक विशद और विस्तृत है।संस्कृतिसे मानव-समाज की उस स्थिति का बोध होता है, जिससे उसेसुधरा हुआ’, ‘ऊँचा’, ‘सभ्यआदि विशेषणों से विभूषित किया जा सकता है। देश-विदेश के आचार-विचार भिन्न रहने से, सुधार सम्बन्धी भावना भी भिन्न रहती है। इसीलिए अलग-अलग देशांे की संस्कृति में भिन्नता पाई जाती है। यदि इस पर अच्छी तरह विचार किया जाय, तो स्पष्ट होगा कि इस भिन्नता के अन्तर्गत एकता अवश्य है। इसलिए भिन्नता केवल बाध्य है, कि आंतरिक।

भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल है।

परमार्थ और सबका कल्याण, भारतीय संस्कृति के मूल में है। इसमें लोक कल्याण और लोक हित की भावना सर्वोपरि है। दूसरों के कल्याण और आनंद में स्वयं के सुख की अनुभूति होती है। सबका हित हमारी संस्कृति का मूल आधार है। प्राचीन नवीन में सामंजस्य स्थापित कर, पुराने को बनाए रखने नए विचारों को आत्मसात करने का सामर्थ्य होना, हमारी भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता है।

भारतीय संस्कृति विश्व के इतिहास में कई दृष्टियों से विशेष महत्त्व रखती है। यह संसार की प्राचीनतम संस्कृतियों में प्रमुख है। यह कर्म प्रधान संस्कृति है। भारतीय संस्कृति सर्वांगीणता, विशालता, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा अग्रणी स्थान रखती है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों के लिए गीता कही जाने वाली एक पुस्तक है "Bunch of Thoughts" जिसे संघ के द्वितीय संघसंचालक श्री माधवराव सदाशिव राव गोलवकरगुरुजीने लिखा है। इसका हिन्दी अनुवादविचार नवनीतपुस्तक के रूप में है। वर्ष 2000 मंे ज्ञान गंगा प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित यह पुस्तक श्री गुरुजी के विचारांे पर आधारित है। इसविचार नवनीत”  पुस्तक के पृष्ठ संख्या 36, 39, 40, 42 तथा 43 पर श्री गुरुजी के संस्कृति के सम्बंध में विचार दिये गये हैं। इनमें कहा गया है कि हमारी संस्कृति हिमालय के समान उन्नत दृष्टि का एक शिखर है जिस पर पहुँचने की महत्वाकांक्षा अभी तक संसार के अन्य किसी ने नहीं की है। तथा जिस भाव की अभिव्यक्तिएकसत विप्रा बहुधा वदान्तिवाक्य के द्वारा की गयी है अर्थात सत्य एक है। ऋषि उसे विविध प्रकार से बखानते है। अपनी संस्कृति के इन उदात्त वैशिष्ट्यों के पुनरुज्जीवन से ही हमारे समाज का सर्व साधारण व्यक्ति अपने राष्ट्र जीवन की दृष्टि से स्फूर्त होगा तथा आज के वैयक्तिक पारिवारिक एवं अन्य संकीर्ण विचारों के आवरण से बाहर आकर चारित्रय सेवा एवं बलिदान की भावना से उन्नत होगा। ऐसा कोई भी राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता जिसका औसत व्यक्ति बौना हो और जिनके बीच कुछ ही विशालकाय असामान्य व्यक्ति खड़े हों।

आज हम एक दूसरी पराकाष्ठा को देखते है कि नाच, गान, चलचित्र तथा नाटकों को ही संस्कृति का स्थान दिया जा रहा है। हलके मनोरंजन का एक दूसरा नाम संस्कृति हो गया है। हमारे देश में दुष्चरित्रता के दलदल में फँसे हुए अभिनेता एवं अभिनेत्री सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडलो में सम्मिलित किए जाते है। जिस देश में राम और सीता जैसे आदर्श चरित्र हुए है जिसने भूत काल में श्रेष्ठमत दार्शनिक एवं ऋषियों की और वर्तमान काल में विश्व के सहज सम्मान तथा प्रेमादर प्राप्त करने वाले विवेकानन्द और रामकृष्ण जैसे व्यक्तियों को अपने सांस्कृतिक प्रतिनिधि के नाते आते है। वहाँ से ऐसे व्यक्तियों का हमारे देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के नाते हो जाना हमारे पतन का एक भयावह दृश्य उपस्थित करता है।

हम यह भी देखते है कि हमारे प्रमुख सांस्कृतिक पुरुषभारत सुंदरी, विश्व सुंदरीजैसी की सौंदर्य प्रतियोगिताओं में निर्णायकों के रूप मे भाग लेते है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी संस्कृति के सम्बन्ध में उनकी जो कल्पना है उसमे नारीत्व के आदर्श सीता, सावित्री, पद्मिनी का कोई स्थान नहीं है।

पूज्यनीय गोलवकर जी का इस सन्दर्भ में कथन है किइन विसंगतियों को हमें अपने से दूर रखना होगा और अपनी संस्कृति के शाश्वत जीवनदायी तत्वों को सभी प्रकार से अधीन करना होगा।  हमारी संस्कृति प्रदर्शन का समर्थन नहीं करती है। उदाहरण स्वरूप भारतीय पति-पत्नी अपने प्रेम का प्रदर्शन सबके सामने नहीं करते इसके विपरीत पाश्चात्य लोग अपने प्रेम को नाटकीय ढंग से करते हैं। हमारी संस्कृति ने हमे सदैव यह शिक्षा दी है कि असंयत प्रदर्शनों की अपेक्षा संवेगो का संयमन अधिक शक्तिशाली और मोहक होता है।

संघ ने अपनी भारतीय संस्कृति को राष्ट्र के वर्तमान सन्दर्भ में ही नहीं अपितु अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी पुनः स्थापित करने कि महत्ता पर जोर दिया है। इस सन्दर्भ में संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिव राव गोलवकर जी का कहना है किहमें विदेशी वादों की मानसिक श्रंखलाओं और आधुनिक जीवन के विदेशी व्यवहारों तथा विदेशी फैशनो से अपने को अलग रखना होगा। परानुकरणों से बढ़कर राष्ट्र की कोई अन्य अवमानना नहीं हो सकती है और अंधानुकरण आत्मिक पराधीनता की ओर ले जाता है।

भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण आधार तत्व हैं पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। जिस प्रकार दोनों तटों के बीच बहती नदी जीवनदायिनी होती है, उसी प्रकार धर्म और मोक्ष के बीच बहता अर्थ और काम युक्त जीवन प्रवाह व्यक्ति समाज दोनों के लिए हितकारक होता है। जिस प्रकार तटों का उल्लंघन करते ही नदी विनाशकरी हो जाती है, उसी प्रकार की स्थिति मानव जीवन प्रवाह की भी है। दोनों सीमाओं के बीच की यही व्यवस्था मन की शांति जीवनोपभोग के बीच संतुलन स्थापित कर सकती है। समय की धारा के साथ तथाकथित प्रगतिशील समाज भी भारतीय संस्कृति के इस पुरातन तथा जीवंत तत्वज्ञान की शरण में आने को बाध्य होगा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत और हिंदुस्तान मंे कोई अंतर नहीं करता है, वह भारतीय संस्कृति और हिन्दू संस्कृति को एक ही मानता है और यह शाश्वत सत्य भी है। भारतीय संस्कृति के सम्बंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मा. श्री मोहन भागवत जी ने जनवरी 2016 में भारतीय श्रंग घोष शिविरस्वरांजलि -2016” के समापन समारोह के अवसर पर बेंगलुरु मे अपने सम्बोधन में कहा था किभारतीय संस्कृति या हिन्दू संस्कृति, यह हमारी पहचान के रूप में है। भारत महज जमीन के एक टुकड़े या खंड का नाम नहीं है। भूमि तो इस आधार पर घटती बढ़ती रहती है कि उसके साथ कैसा बर्ताव हो रहा है। समाज की प्रकृति उसकी संस्कृति है।उन्होने यह भी कहा है कियह हमारी भारतीय संस्कृति ही है जो हम सभी को एकजुट रखती है, इस तरह यह हमारी पहचान है और यही कारण है कि इसे हिन्दू राष्ट्र के रूप में जाना जाता है। बहुत सारे लोग इसे नहीं जानते और ही बहुत से लोग इसमे विश्वास करते हैं, लेकिन यह सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत है। हम सभी हिन्दू हैं क्योंकि हमने संस्कृति की यह प्रकृति अपनाई है। हमारी भारतीय संस्कृति ईश्वर के तौर-तरीके या धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं करती है। हम अपनेमूल्योंऔरविविधता में एकताको पैदा करने के लिए कार्य करते हैं।

अपने एक ट्वीट मे भारत के गृह मंत्री माननीय श्री अमित शाह जी ने भी कहा है कि, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सिर्फ एक संगठन नहीं बल्कि अनुशासन, देशभक्ति एवं भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। राष्ट्रवाद की नींव पर खड़ा यह वटवृक्ष अपने विचारों और मूल्यों से देश के युवाओं को निस्वार्थ भाव से देश के प्रति प्रेरित कर उनके व्यक्तित्व चरित्र का निर्माण कर रहा है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रीय आपदा के समय कभी यह नहीं देखता कि आपदा में फंसा हुआ व्यक्ति किस धर्म का है। आपदा के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक केवल और केवल राष्ट्र धर्म का पालन करता है, भारतीय संस्कृति और नागरिक समाज के मूल्यों को बनाए रखने के आदर्शों को बढ़ावा देता है।

भारतीय संस्कृति, समाज और राष्ट्र की मूल पहचानवसुधैवकुटुम्बकम्तथासर्वे भवंतु सुखिनःकी रही है। जो सबके सुख के लिए अपने सुख को तिलांजलि दे सकता है।यस्तुसर्वाणि भूतानि, सर्वभूतेषु आत्मनःही हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र का मूल है। इसका अर्थ है- इस सृष्टि में जितने भी जीव-अजीव हैं, सबमें हम हैं और हममें सब हैं। अर्थात् हम सब एक दूसरे में समाए हुए एक ही आत्मतत्व के अंग हैं। इसलिए किसी के बुरे की कामना वस्तुतः अपने ही लिए बुरे की कामना है। कोई किसी भी धर्म को मानता हो, किसी का रहन-सहन, वेश-भूषा, भाषा, पूजा-पद्धति कुछ भी हो, सब एक ही तत्व के अंग हैं। इसीलिए समाज के हर क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने संगठन खड़े किए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आस्तिकों के साथ नास्तिकों को भी अंगीकार किया है। संघ के लिए सभी हिंदू हैं और इस राष्ट्र के अंग हैं। राष्ट्र का अर्थ यहां उस जीवन दर्शन से है जिसे यहां के निवासियों ने जीवन शैली के रूप में अंगीकार किया है। इसका किसी भौगोलिक या राजनीतिक सीमा से लेना-देना नहीं है। राष्ट्र मूलतः एक सांस्कृतिक अवधारणा है। पश्चिम से निकला नेशन-स्टेट, यानी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा और भारतीय सभ्यता में राष्ट्र की अवधारणा के बीच यह मूलभूत अंतर है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहता है कि दुर्भाग्य से हम पश्चिम की अवधारणा वाले राष्ट्र-राज्य के दृष्टिकोण से विचार करते हैं, इसलिए हिंदू राष्ट्र की हमारी कल्पना के बारे में बहुत से लोग अपनी विकृत धारणा बना लेते हैं। जबकि हमारी हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में हिंदू राष्ट्रीयता का द्योतक हो जाता है, वह भी किसी भौगोलिक और राष्ट्रीय सीमा से परे है तथा भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिये कार्य करता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुख्य रूप से राष्ट्र को सर्वोपरि रखता है, भारतीयता में विश्वास रखता है इसलिए उसके प्रत्येक कार्य में भारतीय संस्कृति परिलक्षित होती है।

 

(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं)