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जो लोग संघ को
लकीर का फकीर या पुरानी परम्पराओं से चिपटा रहने वाला कूपमंडूक संगठन कहते हैं
उन्हें सरसंघचालक परम्परा के विकास का अध्ययन करना चाहिए
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सरसंघचालकों ने
स्वयं को विशिष्ट से सामान्य व्यक्तित्व की ओर क्रमशः अग्रसर किया
संघ एक विकासशील संगठन
है। यहां अनेक परम्पराएं स्वयं विकसित होती चलती हैं। पारिवारिक संगठन होने के
कारण यहां हर काम के लिए संविधान नहीं देखना पड़ता। बाहर से देखने वाले को शायद यह
अजीब लगता हो, पर जो लोग संघ और
उसकी कार्यप्रणाली को लम्बे समय से देख रहे हैं, वे इसकी वास्तविकता से परिचित हैं। उनके लिए यह सामान्य बात
है।
यदि हम सरसंघचालक परम्परा
को देखें, तो डाक्टर हेडगेवार को
उनके सहयोगियों ने बिना उनकी जानकारी के सरसंघचालक बनाया। डाक्टर हेडगेवार ने इस
अवसर पर कहा कि आपके आदेश का पालन करते हुए मैं यह जिम्मेदारी ले रहा हूं, पर जैसे ही मुझसे योग्य कोई व्यक्ति आपको मिले,
आप उसे यह दायित्व दे देना। मैं एक सामान्य
स्वयंसेवक की तरह उनके साथ काम करूंगा। जब डाक्टरजी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया,
तो उन्होंने अपने सहयोगियों से परामर्श कर अपने
लंबर-पंचर ऑपरेशन से पूर्व सबके सामने ही श्री गुरुजी को बता दिया कि मेरे बाद
आपको संघ का काम संभालना है। इस प्रकार संघ को द्वितीय सरसंघचालक की प्राप्ति हुई।
जब श्री गुरुजी को लगा कि
अब यह शरीर लम्बे समय तक साथ नहीं दे पाएगा तो उन्होंने भी अपने सहयोगी
कार्यकर्ताओं से परामर्श किया और एक पत्र द्वारा श्री बालासाहब देवरस को नवीन
सरसंघचालक घोषित किया। वह पत्र उनके देहांत के बाद खोला गया था। आदरणीय बालासाहब
ने श्री गुरुजी के देहांत के बाद यह जिम्मेदारी संभाली, इससे लोगों के मन में यह धारणा बनी कि यह जिम्मेदारी आजीवन
होती है तथा पूर्व सरसंघचालक अपनी इच्छानुसार किसी को भी यह दायित्व दे सकते हैं।
संघ विरोधी इसे एक गुप्त संगठन तो कहते ही थे, पर अब उन्होंने इसे अलोकतांत्रिक भी मान लिया। आदरणीय
बालासाहब ने पुरानी विधि से हटकर नये सरसंघचालक की नियुक्ति की। उन्होंने
स्वास्थ्य बहुत खराब होने पर अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सब प्रतिनिधियों के
सम्मुख श्री रज्जू भैया को नया सरसंघचालक घोषित किया। माननीय रज्जू भैया जी और फिर
माननीय सुदर्शन जी ने भी इसी विधि का पालन किया। इस प्रकार संघ में एक नयी परम्परा
विकसित हुई।
इस घटनाक्रम को एक और
दृष्टिकोण से देखें। जब माननीय बालासाहब ने दायित्व से मुक्ति ली, तब उनका स्वास्थ्य बहुत खराब था। वे पहिया
कुर्सी (wheel chair) पर ही चल पाते
थे। मुंह में बार-बार थूक भर जाता था। अतः बोलने में भी उनको बहुत कठिनाई होती थी।
उनके लिखित संदेश ही सब कार्यक्रमों में सुनाए जाते थे। अपनी दैनिक क्रियाएं भी वे
किसी के सहयोग से ही कर पाते थे। इस कारण उनकी दायित्व मुक्ति को सबने सहजता से
लिया। दूसरी ओर माननीय रज्जू भैया ने जब कार्यभार छोड़ा, तो वे प्रवास करने योग्य थे। सार्वजनिक रूप से बोलने में
उन्हें भी कठिनाई होती थी, पर व्यक्तिगत
वार्ता वे सहजता से करते थे। दायित्व से मुक्त होकर भी उन्होंने अनेक प्रान्तों का
प्रवास किया। अर्थात यदि वे चाहते, तो दो-तीन वर्ष
और इस जिम्मेदारी को निभा सकते थे, पर उन्होंने
उपयुक्त व्यक्ति पाकर यह कार्यभार छोड़ दिया।
जहां तक पांचवे सरसंघचालक
माननीय सुदर्शनजी की बात है, दायित्व मुक्ति
तक वे काफी स्वस्थ थे। प्रवास के साथ-साथ सार्वजनिक रूप से बोलने में उन्हें कोई
कठिनाई नहीं थी, फिर भी जब उन्हें
लगा कि श्री मोहन भागवत के रूप में एक सुयोग्य एवं ऊर्जावान कार्यकर्ता सामने है,
तो उन्होंने भी जिम्मेदारी छोड़ दी। स्पष्ट है
कि माननीय सुदर्शनजी ने वही किया, जो आद्य
सरसंघचालक डाक्टर हेडगेवार ने पदभार स्वीकार करते समय कहा था कि जब भी मुझसे अधिक
योग्य कार्यकर्ता आपको मिले, आप उसे सरसंघचालक
बना दें। मैं उनके निर्देश के अनुसार काम करूंगा। यह है एक परम्परा में विश्वास और
दूसरी परम्परा का विकास। पुरानी नींव पर नये निर्माण का इससे अधिक सुंदर उदाहरण और
क्या होगा ?
एक अन्य दृष्टि से विचार
करें। पूज्यनीय डाक्टर हेडगेवार के देहांत के बाद उनका दाह संस्कार रेशम बाग में
हुआ। आज वहां उनकी समाधि बनी है, जिसे ‘स्मृति
मंदिर’ कहते हैं। उसका बाह्य रूप मंदिर जैसा है, पर वहां पूजा-पाठ, घंटा, भोग, आरती, प्रसाद आदि कुछ नहीं है। वहां डाक्टर जी की भव्य प्रतिमा है, जो तीन ओर से खुली है। स्पष्ट है संघ में
व्यक्ति का महत्व होते हुए भी व्यक्ति पूजा के लिए कोई स्थान नहीं है। पूज्यनीय
श्री गुरुजी ने अपने देहांत से पूर्व तीन पत्र लिखे थे। दूसरे पत्र में ही
उन्होंने कह दिया था कि डाक्टर जी की तरह उनका कोई स्मारक न बनाएं। कार्यकर्ताओं
ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए स्मृति मंदिर के सामने उनका दाह संस्कार किया।
आज वहां यज्ञ ज्वालाओं के रूप में एक छोटा ‘स्मृति चिन्ह’ बना है।
पूज्यनीय श्री बालासाहब
देवरस इससे एक कदम और आगे गये। उन्होेंने कार्यकर्ताओं से पहले ही कह दिया था कि
रेशम बाग को हमें सरसंघचालकों का श्मशान स्थल नहीं बनाना है। इसलिए मेरा अंतिम
संस्कार सामान्य श्मशान घाट पर किया जाए। पूज्यनीय बालासाहब का देहांत पुणे में
हुआ, पर उन्होंने नागपुर में
अपने जीवन का काफी समय बिताया था। उनके अनेक मित्र व सम्बन्धी वहां थे जो उनके
अंतिम दर्शन कर श्रद्धांजलि देना चाहते थे, अतः उनके शरीर को नागपुर लाकर गंगाबाई घाट पर अग्नि को
समर्पित किया गया।
पूज्यनीय बालासाहब के ही
समान पूज्यनीय रज्जू भैया का देहांत भी पुणे में हुआ। उन्होंने कहा था कि जहां
उनका देहांत हो, वहीं अंतिम
संस्कार कर दिया जाए। अतः उनका दाह संस्कार पुणे में हुआ। स्पष्ट है कि सभी
सरसंघचालकों ने स्वयं को विशिष्ट से सामान्य व्यक्तित्व की ओर क्रमशः अग्रसर किया।
संघ और समाज एकरूप हो, यह बात संघ में
प्रायः कही जाती है। सरसंघचालकों ने अपने व्यवहार से इसे सिद्ध कर दिखाया।
किसी समय संघ पर मराठा, ब्राह्मणवादी और चितपावन ब्राह्मणवादी होने का आरोप भी लगाया जाता था, पर उत्तर प्रदेश के पूज्यनीय प्रो. राजेन्द्र सिंह और कर्नाटकवासी पूज्यनीय सुदर्शनजी के सरसंघचालक बनने के बाद इन लोगों के मुंह सिल गये। जो लोग संघ को लकीर का फकीर या पुरानी परम्पराओं से चिपटा रहने वाला कूपमंडूक संगठन कहते हैं उन्हें सरसंघचालक परम्परा के विकास का अध्ययन करना चाहिए। अभी संघ ने अपनी शताब्दी नहीं मनाई है, पर इसके बाद भी इस परम्परा में अनेक परिवर्तन हुए हैं। यह संघ की जीवंतता का प्रतीक है और इसी में संघ की ऊर्जा का रहस्य छिपा है।
(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं)