सबको साथ लेकर चलने की प्रक्रिया का नाम संघ है
‘संघ जैसा मैने देखा’ विषय पर मा. सूर्य प्रकाश टोंक जी से डॉ. नीलम कुमारी द्वारा लिए गए साक्षात्कार के मुख्य अंश-
सर्वप्रथम मैं आपसे जानना चाहूंगी आपके जीवन की विकास यात्रा के बारे में कि आप संघ के सम्पर्क में कैसे आये?
वैसे जीवन तो बहुत सामान्य है। लेकिन मैं कह सकता हूँ कि अगर मैं संघ के संपर्क में नहीं आया होता तो शायद जीवन में बदलाव न आता। संघ ने मुझे बहुत बदला। मुझे याद है मैं एक उदण्ड, मोहल्ले में खेलने वाला बालक था और संघ से परिचय संयोग से हुआ। 1963 में हाई स्कूल का एग्जाम देने के बाद क्रिकेट खेल रहा था, तभी मोहल्ले का एक लड़का मुझे शर्मा स्मारक के पीछे लगने वाली राम वाटिका शाखा में ले गया। मुझे पता नहीं था शाखा क्या होती है। वहां 25-30 विद्यार्थी खेल रहे थे, मैंने भी खेला और मेरे पाले की जीत हुई। स्थान नया था, खेल नया था, सब शालीनता से ”भईय्या“ कहकर संबोधित कर रहे थे। वहां गीत और प्रार्थना हुई। शाखा के विभाग कार्यवाह ने मेरा परिचय पूछा और बोले -”तुम बढ़िया खेलते हो, कल आओगे।“ मैंने हां कर दी। इस प्रकार मेरा परिचय संघ से हुआ।
आपका संघ से जुड़ाव एक दीर्घ और समृद्ध यात्रा रहा है तथा आपने विभिन्न दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन भी किया है। ऐसे में, आपकी दृष्टि में ‘संघ’ क्या है?
मैं अगर अपने से उसकी कोई असेसमेंट करने का प्रयत्न करूं तो संघ एक अलग प्रकार का संगठन है। समाज में किसी को भी छोड़ना नहीं चाहता और आज मैं जिस दायित्व पर हूं उसके बाद अगर मैं यह विचार करूं कि कौन सा ऐसा क्षेत्र है जिसकी आवश्यकता राष्ट्र की दृष्टि से, समाज की दृष्टि से, व्यक्तियों की दृष्टि से है, और संघ वहां नहीं है, ऐसा नहीं हो सकता। मैं इतने लंबे समय के अनुभव के बाद ये निश्चित रूप से आज कह सकता हूं कि संघ सबको साथ लेकर चलने की प्रक्रिया का नाम है ।
आपने बहुत सुंदर शब्दों में संघ को परिभाषित किया। अब हम आपसे जानना चाहेंगे कि ऐसा वो कौन सा मूल उद्देश्य था जिसको लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई?
संघ की स्थापना 1925 में विजयादशमी के दिन परम पूज्य डॉ. केशवराव बलीराम हेडगेवार जी ने की। उस समय न नाम निश्चित था, न कार्यप्रणाली और न ही दिशा स्पष्ट थी। केवल यह संकल्प था कि राष्ट्र को सशक्त और समाज को सबल बनाने के लिए परिवर्तन आवश्यक है। अगले पंद्रह वर्षों में डॉ. हेडगेवार ने स्वयंसेवकों को राष्ट्रचिंतन और सक्रिय कार्य के लिए प्रेरित किया तथा हिंदू समाज को संगठित, सबल और सक्रिय बनाने के लिए निरंतर प्रयास किया।
आप स्वयं एक सक्रिय स्वयंसेवक रहे हैं। आपके अनुभव में एक आदर्श स्वयंसेवक के व्यक्तित्व में कौन-कौन से गुण निहित होने चाहिए?
कहा जाता है कि यदि संघ को जानना है तो उसकी शाखा में आइए। वास्तव में संघ स्वयं कुछ नहीं करता, बल्कि उसके स्वयंसेवक ही सब कुछ करते हैं। संघ का उद्देश्य व्यक्ति के मन को राष्ट्रोन्मुख बनाना है और उसकी सभी गतिविधियां, क्रियाकलाप तथा प्रक्रियाएं शाखा के माध्यम से ही अभिव्यक्त होती हैं। शाखा में तैयार हुआ स्वयंसेवक अत्यंत व्यवस्थित, अनुशासित तथा देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होता है- यही एक आदर्श स्वयंसेवक के मूल गुण हैं।
एक स्वयंसेवक की प्रगति किसी संयोग का परिणाम नहीं, बल्कि संघ की विशेष पद्धति का फल है। आप अपने अनुभव से बताएं कि वह पद्धति क्या है और कैसे कार्य करती है?
जब मैं कक्षा 10 का विद्यार्थी था और स्वयंसेवक बना, तब मेरी यात्रा में दो व्यक्तियों ने विशेष भूमिका निभाई। एक गणित के गोल्ड मेडलिस्ट और नगर कार्यवाह प्रो. विनोद अग्रवाल थे, जो बाद में मेरठ के डीएन डिग्री कॉलेज के प्राचार्य बने। कुछ दिनों तक मैं शाखा नहीं गया तो वे स्वयं मेरे घर आए, हालचाल पूछा और गणित पढ़ाने के लिए अपने घर बुलाया। उन्होंने न केवल कठिन विषय को सरलता से समझाया बल्कि आत्मीयता से चाय भी पिलाई। इसी प्रकार नरेश जी, जो बाद में खड़गपुर आईआईटी में प्रोफेसर रहे, उन्होंने भी मेरे जीवन को संवारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वास्तव में संघ अपने किसी स्वयंसेवक को कभी छोड़ता नहीं, बल्कि उसे सँभालने, जोड़ने और संवारने का कार्य करता है- यही उसकी अनूठी कार्यपद्धति है।
आपदा और आपातकालीन परिस्थितियों में संघ के स्वयंसेवक सबसे पहले सेवा में जुटते नजर आते हैं। आप स्वयं इस भूमिका को किस रूप में देखते हैं?
1963 में स्वयंसेवक के रूप में मेरी यात्रा शुरू हुई और मात्र दो वर्ष बाद 1965 का युद्ध आ गया। उस समय भी शाखा ने हम सबमें यह संस्कार भरे कि राष्ट्रहित सर्वाेपरि है। चाहे रात के 12 बजे पार्क में इकट्ठा होना हो या कठिन परिस्थितियों में अनुशासन बनाए रखना हर स्वयंसेवक का मन देश के लिए प्राण अर्पित करने को तत्पर रहता था। यही संघ और स्वयंसेवकों की विशेषता है कि किसी भी आपातकाल में वे निःस्वार्थ भाव से सेवा और समर्पण के साथ खड़े दिखाई देते हैं।
आपके जीवन का ऐसा कोई विशेष स्मरण या अनुभव, जिसे आप हमारे साथ साझा करना चाहेंगे?
हालांकि आज सब कुछ सामान्य लगता है, लेकिन जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी हुईं जिन्होंने दिशा देने का काम किया। एक बार मैं कार्यवाह के नाते दायित्व निभा रहा था। यह घटना राम मंदिर आंदोलन से ठीक पहले की है। उस समय हम 10-12 कार्यकर्ता किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। विचारों में मतभेद था और मेरी राय बहुमत से अलग थी। अचानक एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने नाराज होकर अपनी डायरी उठाई और कहा - ‘जो तुम्हें ठीक लगे, वही करो’ और बैठक बीच में ही छोड़कर चले गए। वातावरण बिल्कुल शांत हो गया। मुझे यह बात गहरे तक लगी और लगा कि यह मेरा अपमान है। उसी क्षण मैंने तय कर लिया कि अब मैं शाखा नहीं जाऊँगा। कुछ दिन बाद अधीश जी, जो प्रचार विभाग से जुड़े थे और मेरठ कार्यालय में रहते थे, उन्हें इस घटना की जानकारी मिली। उन्होंने मुझसे बात की और कहा - ‘ऐसे संगठन में मतभेद तो होंगे ही, लेकिन व्यक्तिगत आहत होकर अलग होना उचित नहीं है।’ उन्होंने लगभग ढाई घंटे तक मुझसे धैर्यपूर्वक चर्चा की और मेरे भीतर जो भावनात्मक गाँठ बन गई थी, उसे खोल दिया। अंत में उन्होंने मुझे मनाया और कहा- ‘ठीक है, अब नेकर पहनकर स्कूटर निकालो, हम साथ चलते हैं।’ उसके बाद लगातार पांच-छह दिन तक वे मुझे स्वयं शाखा लेकर गए। वहां सारी प्रक्रिया मेरे साथ की, ताकि मैं सहज हो सकूँ। उनके इस व्यक्तिगत प्रयास ने मुझे दोबारा संघ से जोड़ा। यह उनके जीवन में निभाई गई अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनेक अनुषांगिक संगठन विभिन्न उद्देश्यों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं। ऐसे में संघ में प्रचार विभाग की आवश्यकता क्यों पड़ी?
मैंने गुरुजी को 1973 तक सत्संग चालक के रूप में कार्य करते हुए देखा है। 1967 में जब मैं लखनऊ में प्रथम वर्ष का छात्र था, तब उनके तीन बौद्धिक मेरे सामने हुए। उस समय बाबा साहब आपटे भी एक प्रचारक के रूप में उपस्थित थे। मुझे गुरुजी और आपटे जी से थोड़ी-बहुत बातचीत का अवसर मिला। उस बातचीत से मैंने महसूस किया कि संघ के लिए प्रचार या अखबारों में समाचार छपना कोई लक्ष्य नहीं था। स्वयंसेवक तो समाचार पत्रों और फोटोग्राफी से दूर ही रहते थे। लेकिन समय के साथ परिस्थितियां बदलीं। आज समाज और राष्ट्रीय जीवन में संघ की भूमिका महत्वपूर्ण है। तेजी से सूचना प्रसारित करने के लिए सही साधन जरूरी हो गए हैं। स्वयंसेवकों और समाज तक संघ के विचार स्पष्ट पहुंचें, इसके लिए पत्र-पत्रिकाएं और बाद में मीडिया का सहारा लिया गया। प्रारंभ में छोटी-छोटी ‘जागरण पत्रिकाएं’ इसी उद्देश्य से निकाली गईं।
आप ‘प्रेरणा विचार’ के माध्यम से हमारे दर्शकों और पाठकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
संघ अपने शताब्दी वर्ष (3 अक्टूबर 2025 से 12 अक्टूबर 2026) को समाज और राष्ट्र के उत्थान हेतु विशेष कार्यक्रमों के रूप में मनाने जा रहा है। उद्देश्य यह है कि समाज और संघ एकरूप होकर राष्ट्र जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं। मैं सभी स्वयंसेवकों से आग्रह करता हूं कि इस अवसर पर वे अपने जीवन में कम-से-कम एक कार्य ऐसा निश्चित करें जो राष्ट्रहित में हो। जब नागरिक अपने कर्तव्यों को समझकर समाज और परिवार में इस भावना से कार्य करेंगे तो स्वाभाविक रूप से राष्ट्र निर्माण का कार्य आगे बढ़ता जाएगा।