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क्यों बढ़ रही हैं पर्वतीय क्षेत्रों में आपदायें?

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क्यों बढ़ रही हैं पर्वतीय क्षेत्रों में आपदायें?  

बीते कुछ सालों से हिमालय का पर्वतीय अंचल आपदओं के कहर से दो-चार हो रहा है। वह चाहे 2013 की केदारनाथ की आपदा हो, 2021 में ऋषिगंगा की हो, सिक्किम की 2023 की ल्होनक में ग्लेशियर झील के फटने की हो, जोशीमठ की घटना हो, बीते दिनों धराली में बादल फटने की घटना हो या फिर किश्तवाड की घटना हो, इन सबके पीछे जलवायु परिवर्तन तो एक अहम कारण है ही, मानसून कहें या मौसम में आये अप्रत्याशित बदलाव, अरब सागर में गर्म होती हवायें, मध्य एशिया में तेजी से बढ़ता तापमान और दक्षिण -पश्चिमी हवाओं का उत्तर की ओर झुकाव और उत्तर भारत के हिमालयी क्षेत्रों में बारिश का तूफानी पैटर्न तो है ही, इसके अलावा सबसे बड़ा कारण प्रकृति में इंसानी दखल भी है जिसका खामियाजा हम भीषण तबाही के रूप में साल दर साल ऐसी आपदाओं के नतीजे के रूप में भुगत रहे हैं। इसे नकारा नहीं जा सकता।

असलियत यह है कि यह सब प्राकृतिक आपदायें हमारी नीतिगत विफलताओं का जीता-जागता सबूत हैं जबकि बरसों से समूची दुनिया के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और समय-समय पर जारी रिपोर्टें, शोध और अध्ययन चेतावनी दे रहे हैं कि पहाड़ों पर अवैज्ञानिक और अनियोजित निर्माण, पहाड़ों को काटकर या विस्फोट के जरिए नदियों पर जलविद्युत परियोजनाओं, रेल मार्ग का निर्माण, बेतहाशा खुदाई, नदी-नालों के कुदरती मार्गों में अवरोध पैदा करने से आपदाओं को हम खुद-ब-खुद निमंत्रण दे रहे हैं। किंतु विकास के नाम पर प्रशासनिक लापरवाही का आलम यह है कि संवेदनशील भूस्खलन वाले इलाकों में भी बहुमंजिला इमारतों, होटलों और सड़कों का निर्माण आज भी अनियंत्रित रूप से निर्बाध जारी है। यहां यह गौरतलब है कि जब धरती की सतह बार-बार खोदी जाती है, पहाड़ों का सीना बारम्बार चीरा जाता है, काटा जाता है, उस स्थिति में बारिश की हर बूंद उस नाजुक धरातल को चीरते हुए बहुत तेजी से बह निकलती है। नतीजतन मिट्टी की पकड़ ढीली पड़ती है और आपदा का आकार कईसौ गुणा बढ जाता है। यही वह अहम कारण है कि ऐसी स्थिति में पहाड़ों पर भूस्खलन का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।

वैज्ञानिक बार-बार चेता रहे हैं कि जलवायु में आ रहे बदलाव और पहाड़ों पर विकास के नाम पर अंधाधुंध निर्माण विनाश का कारण बन रहा है। आईपीसीसी की रिपोर्ट साफ-साफ कहती है कि ऊंचे इलाकों में एक डिग्री तापमान बढ़ने पर वर्षा की तीव्रता 15 फीसदी बढ़ जाती है। यह कि जब गर्म समुद्री हवा भारी नमी लेकर हिमालय से टकराती हैं तब पहाड़ उसे रोकते हैं। इससे क्यूम्यलोनिम्बस बादल बनते हैं जो 50,000 फीट ऊंचाई तक जा सकते हैं और जब ये फटते हैं तो अपने साथ पूरी की पूरी घाटी में भीषण तबाही लाते हैं। इस बारे में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और डी आर डी ओ की मानें तो हिमालय के ग्लेशियर हर साल औसतन 15 मीटर पीछे खिसक रहे हैं या पीछे हट रहे है। कहीं- कहीं कुछ इलाकों में ग्लेशियर के पीछे हटने की दर 20 मीटर से भी ज्यादा है। इनमें गंगा बेसिन 15.5 मीटर प्रति वर्ष, इंडस बेसिन 12.7 मीटर प्रति वर्ष और ब्रह्मपुत्र बेसिन 20.2 मीटर प्रति वर्ष खिसक रहे हैं, शामिल हैं। दरअसल जब-जब और जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं, उसके नीचे की जमीन अस्थिर होती जाती है। पिघलती बर्फ, दरकती चट्टानें और अचानक बनने वाली झीलें सबसे बड़ी चिंता का विषय है। इनके टूटने से भयंकर तबाही आती है, गांव के गांव बह जाते हैं और करोड़ों-करोड की हानि होती है सो अलग। एक रिपोर्ट की मानें तो साल 2018 तक कराकोरम और हिन्दू कुश जैसे इलाकों में 127 बडे ग्लेशियर संबंधित भूस्खलन रिकॉर्ड हुये हैं।

असलियत यह है कि हिमालयी क्षेत्र 13 राज्यों यथा उत्तराखंड, हिमाचल, सिक्किम सहित केन्द्र शासित प्रदेशों में फैला हुआ है। मानसून के दौरान इनको अधिकाधिक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। ये अपनी जटिल बनावट,नाजुक हालातों और लगातार बदल रही जलवायु परिस्थितयों की वजह से विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं यथा भूस्खलन, बाढ़, भूकंप, बादल फटने और ग्लेशियर के पिघलने की वजह से आने वाली बाढ के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। ये आपदायें आबादी क्षेत्र, बुनियादी ढांचे और जैव विविधता के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। बादल फटने और बाढ आने क दौरान किसी एक इलाके में बहुत ही कम समय में बहुत ज्यादा या यूं कहें कि भीषण तबाही का सामना करना पड़ता है। चूंकि इस इलाके में अधिकांश नदियां संकरी घाटियों से होकर बहती हैं, बादल फटने या ग्लेशियर झील के फटने के चलते पानी के तेज बहाव के साथ बड़ी मात्रा में मलवा भी आ जाता है। नतीजतन नदियों के रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं और निचले इलाकों में बाढ की स्थिति बन जाती है। एक आकलन के मुताबिक 2013 से लेकर 2022 के बीच पूरे देश में 156 आपदायें दर्ज हुयी जिनमें से 68 हिमालयी क्षेत्र में हुयीं। देखा जाए तो देश के भौगोलिक क्षेत्र में 18 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले इस क्षेत्र में आपदाओं की हिस्सेदारी करीब 44 फीसदी है। यही नहीं 1903 से लेकर अबतक इस क्षेत्र में दर्ज 240 आपदाओं में 132 बाढ़ संबंधी, 37 भूस्खलन की, 23 तूफान की, 17 भूकंप की व 20 से अधिक चरम तापमान की दर्ज हुयी हैं।

यह कटु सत्य है और विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन और पर्वतीय इलाकों में जारी विकास परियोजनाओं से इस इलाके में प्राकृतिक आपदाओं का खतरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। राष्ट्रीय औसत की तुलना में यह इलाका तेजी से गर्म हो रहा है। इससे आपदाओं के बढ़ने की आशंका और बलवती हुयी है। 2013 की केदारनाथ आपदा, 2021 में उत्तराखंड में हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट बहने से पानी के तेज बहाव से धौलीगंगा में चट्टानें और मलवा आने से 200 से ज्यादा की मौत हुयी थी। गौरतलब है कि हिमालयी इलाके में बरसों से जारी खनन से नदी तल का क्षरण हो रहा है। इसके चलते नदियां सूख रही हैं,नतीजतन बाढ़ और भूस्खलन का खतरा बढ़ रहा है। खनन से नदी तल की बजरी, रेत और पत्थर निकल जाने से नदी का तल गहरा हो जाता है। खनन से भूमि कटाव और भूस्खलन की घटनायें बढ़ जाती हैं। यही नहीं खनन से निकलने वाले रसायन मिट्टी और पानी को प्रदूषित करते हैं। खनन से वन्य जीवों के आवास खत्म हो रहे हैं जिससे जैव विविधता को काफी नुकसान हो रहा है। जलवायु परिवर्तन से हिमालयी ग्लेशियर पहले से ही पिघल रहे हैं। खनन से इसमें और तेजी आ रही है। खनन से जहां लोग अपने घरों से विस्थापित हो रहे हैं, वहीं स्थानीय लोगों की आजीविका, कृषि और पर्यटन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। खनन से पर्यावरण और सामाजिक, आर्थिक दोनों तरह के खतरे पैदा हो रहे हैं। इन खतरों को कम करने के लिए खनन गतिविधियों को नियंत्रित करने और टिकाऊ विकास को बढावा दिये जाने की बेहद जरूरत है।

हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हिमालय दुनिया की सबसे युवा पर्वत श्रृंखला है। भूगर्भीय दृष्टिकोण से यह अभी भी अधपकी है। यह अभी भी बदलाव के दौरान से गुजर रही है। यह जानते-समझते हुये भी हम वहां पर बेतहाशा कंक्रीट का निर्माण करते जा रहे हैं। बसावट कर रहे हैं। इसमें हमने नदियों के जलग्राही क्षेत्रों को भी नहीं बख्शा। जब हम वहां जाकर बसेंगे तो भूस्खलन, बाढ़, हिमस्खलन, भूकंप और बादल फटने जैसी प्राकृतिक घटनायें तो आयेगी हीं। इस सबके लिए हमंे तैयार रहना होगा और इससे बचाव की दिशा मे प्रकृति अनुरूप साधन अपनाने होंगे। प्रकृति की संवेदनशीलता के प्रति हमें अति संवेदनशील होना होगा। यदि हम प्रकृति से खिलवाड़ करेगे तो निश्चित है कि हमें ऐसी आपदाओं से आये-दिन दो-चार होना पड़ेगा। सरकार के साथ हमारी भी जबावदेही है। हमें व सरकार को भूविज्ञानियों, पर्यावरणविदों की संस्तुति को मानना होगा जिन्हें हम बराबर नकारते आ रहे हैं और जिसका खामियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं। हिमालयी पर्वतीय क्षेत्र में भौगोलिक पर्यावरणीय दृष्टि से अर्ली वार्निंग प्रणाली पर तत्काल काम करना होगा और क्षेत्र वार आपदा जोखिम की पहचान के साथ-साथ उसके न्यूनीकरण के लिए भी हर समय न केवल तैयार रहना होगा बल्कि उसके लिए प्राथमिकता के आधार पर काम भी करना होगा। यह जानते हुए कि पर्वतीय इलाकों में मैदानी इलाको की तरह काम नही हो सकता। इसके लिए अलग दृष्टिकोण की जरूरत है। इसमें हमें यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि प्रकृति की राह में यदि हम आये तो उसका खामियाजा भी हमें ही भुगतना होग।