भाषाई विवादों के पीछे विभाजनकारी षड्यंत्र
संत ज्ञानेश्वर और हिंदवी स्वराज्य प्रणेता छत्रपति शिवाजी महाराज की पुण्यभूमि में राजनीतिक वितंडावादियों ने ‘भाषा’ के नाम पर जिस अराजकता का परिचय दिया। हिंसा का मार्ग अपनाते हुए विभाजनकारी सोच का उत्पात मचाया। वस्तुत: ऐसा करने वालों के मूल में ‘मराठी अस्मिता’ का भाव नहीं है। बल्कि वे भारत की विराट पहचान को मिटाने की कुत्सित सोच से ग्रसित हैं। आप सोचिए कि जिस महान महाराष्ट्र की भूमि में – संत नामदेव, संत एकनाथ, संत तुकाराम महाराज, संत बहिणाबाई, संत जनाबाई, संत कान्होपात्रा और समर्थ रामदास, संत गाडगे जैसी महान विभूतियों ने राष्ट्रीय एकता और एकात्मता को स्थापित किया हो। मूल्यों, संस्कारों और आदर्शों का मार्ग दिखाया हो। उस भूमि से अगर अलगाव के उत्पाती कृत्य आ रहे हों तो यह निश्चित तौर पर महाराष्ट्र की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र ही सिद्ध होता है। जो ‘मराठी अस्मिता’ के नाम पर समाज में विभाजन फैला रहे हैं। विराट हिन्दू समाज को बांटने का षड्यंत्र कर रहे हैं। वे महाराष्ट्र के आदर्शों की कही या लिखी गई – ऐसी एक पंक्ति लाकर समाज के मध्य दिखा दें। जो किसी भी प्रकार के विभाजन की बात करती हो। ऐसे में क्या यह अक्षम्य अपराध नहीं है? क्या महाराष्ट्र की महान परंपरा को आघात पहुंचाने वालों को समाज स्वीकार करेगा?
ईश्वरीय निमित्त वश छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य स्थापना के 350वें वर्ष पर एक ग्रंथ के संपादन का सौभाग्य मिला। उस समय मैंने छत्रपति शिवाजी महाराज से जुड़े कई ग्रंथों का अध्ययन किया। विभिन्न विद्वानों के विचारों को पढ़ा और सुना। लेकिन एक भी अंश ऐसा नहीं पाया, जब छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्थानीयता, प्रांतीयता की परिधि में स्वयं को समेटा हो। उनके कार्यों और विचारों की दृष्टि सर्वदा अखिल भारतीय-अखंड भारत वर्ष पर ही केंद्रित रही। शिवाजी महाराज ने जब स्वराज्य की स्थापना की तो उसका नाम उन्होंने ‘महाराष्ट्र’ या मराठी राज्य नहीं किया। अपितु उसका नामकरण ‘हिंदवी स्वराज्य’ किया। उन्होंने स्वराज्य के संचालन के लिए जब ‘राज व्यवहार कोश’ का निर्माण कराया। उन्होंने अरबी फ़ारसी के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ और मराठी शब्दों का शब्दकोष बनवाया। इसी प्रकार शिवाजी महाराज की राजमुद्रा में ‘संस्कृत’ का प्रयोग किया गया। उनकी राजमुद्रा में लिखा था –
“प्रतिपच्चन्द्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववन्दिता ।
शाहसूनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते ।।”
अभिप्रायत: छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिस महान हिंदवी स्वराज्य की स्थापना की। राष्ट्रीय एकता और एकात्मता को स्थापित किया। अब उस पर ‘मराठी अस्मिता’ के नाम पर आघात किया जा रहा है। विराट हिन्दू पहचान को संकुचित और संकीर्ण दायरों में समेटने का अक्षम्य अपराध किया जा रहा है। ऐसा करने वाले वही लोग हैं, जिन्हें ‘मराठी मानुष’ ने चुनावों में सिरे से खारिज़ कर दिया है। क्योंकि महाराष्ट्र की जनता अपनी महान विरासत के साथ राष्ट्रीय विचारों के साथ एकात्म है। उसे किसी भी हाल में विभाजन स्वीकार नहीं है। ऐसे में विभाजनकारी मानसिकता से ग्रस्त लोग और राजनेता; समाज की एकता को खंडित करने में जुटे हैं। चाहे हिंदी हो, मराठी हो, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ हो या बंगाली हो, संस्कृत हो, मलयालम हो, कोंकणी, संथाली या उड़िया हो, चाहे पंजाबी हो या कश्मीरी, असमिया, बोडो या डोगरी हो, सिंधी, नेपाली हो। सभी भारतीय भाषाएं हमारी हैं। भारत की कोख से जन्मी हर भाषा, बोली और परंपरा हमारी अमूल्य विरासत है। ये किसी व्यक्ति विशेष या राज्य विशेष की संपत्ति नहीं है, बल्कि हर भारतीय का जीवन मूल्य और संस्कार है। इनमें राष्ट्र की महान परंपरा और संस्कृति का अविरल और अक्षुण्ण प्रवाह अंतर्निहित है। जो एक ही धुन सुनाता है जय-जय भारत, जय-जय भारत।
क्या हमारे महापुरुषों और भाषाओं ने किसी भी व्यक्ति, दल या समूह को ऐसे कोई अधिकार दिए हैं? क्या समाज ने कभी भी ऐसे विभाजन को स्वीकार किया है? क्या हमारे संविधान ने ऐसे किसी भी प्रकार के भेदभाव का प्रावधान किया है? इन सबका उत्तर है – नहीं। भारत के कोने-कोने में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपनी हर भाषा, बोली, परंपरा के प्रति गहरा आदर और श्रद्धा रखता है। उसे अपनी सभी भाषाओं और सभी परंपराओं से प्रेम है। उसके लिए कुछ भी अपना या पराया नहीं है। हमारे सभी श्रद्धा के केंद्र, आदर्श, महापुरुष और भाषाएं हमें एकता के सूत्र से बांधे हुए हैं। हम सबका मस्तक अपनी महान परंपरा के हर मानबिंदु के समक्ष श्रद्धा से नत होता है। यही तो भारतीय मूल्य और संस्कार हैं। हो सकता है, सभी को हर भाषा नहीं आती हो। किसी को सभी भारतीय भाषाएं आती हों। किसी को दो-चार या उससे अधिक भाषाएं आती हों। लेकिन इसका अर्थ तो ये नहीं कि – इस आधार पर कोई अपनी श्रेष्ठता का दावा करेगा? किसी के साथ अत्याचार या भेदभाव करेगा। यह तो असह्य है। इसे किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
भारत विभाजनकारी शक्तियां ‘हिंदी और हिन्दू’ के विरोध से अपना षड्यंत्र शुरू करते हैं और फिर हिंदुस्तान के विरोध में उतर जाते हैं। भारत विभाजनकारी शक्तियों का एक और अंतिम लक्ष्य है – भारत राष्ट्र का खंडन करना। इसके लिए वो कभी भाषा के आधार पर लड़ाएंगे। कभी जाति और महापुरुष के नाम पर लड़ाएंगे। कभी क्षेत्रवाद, बोली, पहनावों और परंपराओं के नाम पर समाज के मध्य विभाजन की दीवार खड़ी करेंगे। क्योंकि उन्हें पता है कि विराट हिन्दू समाज को छोटे-छोटे विभाजनों में फंसाकर आसानी से तोड़ा जा सकता है। लेकिन अगर एक और अंतिम पहचान ‘हिन्दू’ है तो षड्यंत्रकारी मुंह की खाएंगे। वे कभी भी हिन्दू समाज को कमजोर नहीं कर पाएंगे।
भाषाई आधार पर समाज में अलगाववाद फैलाने वालों का एजेंडा भारतीय भाषाओं-स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देना नहीं है। बल्कि हिंदी विरोध के नाम पर समाज में विभाजन उत्पन्न करना और ध्रुवीकरण करना है। ताकि उनकी राजनीतिक सत्ता बनी रहे और संपूर्ण हिन्दू समाज एकजुट न हो पाए। इतना ही नहीं भाषायी या क्षेत्रीय आधार पर अलगाववाद फैलाने वालों के पीछे कई सारी भारत विरोधी शक्तियां काम करती हैं। जो कभी राजनेताओं के माध्यम से, कभी समूहों के माध्यम से विभाजन उत्पन्न करती रहती हैं।
इसीलिए हम सबकी सतर्कता और सजगता की महती आवश्यकता है। हम देश के किसी भी हिस्से में रहें। जहां भी पृथकता और अलगाववाद के कुकृत्य हों। उनका हमें मुखरता के साथ प्रतिकार करना चाहिए। क्योंकि हम सब भारतवासी – भारत माता की संतान हैं। जो हमारी माता का अपमान करेगा। भारत माता को पीड़ा देने का अपराध करेगा। हम भला उसे कैसे छोड़ सकते हैं? हमारी परंपरा तो यही कहती है न कि – न्यायार्थ अपने बंधु को भी, दंड देना धर्म है।