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सनातन धर्म में हर पल पर्व होता है

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सनातन धर्म में हर पल पर्व होता है  

सनातन यानी शाश्वत, अविनाशी, अनादि, अनंत, नित्य, निरंतर इत्यादि। सनातन सत्य है कि मनुष्य उत्पत्ति धरती, आकाश, जल, अग्नि और वायु- इन पांच तत्वों से होती है। हर व्यक्ति में इन पांच तत्वों की निर्णायक उपस्थिति रहती है। किसी तत्व की थोड़ी कम, किसी की थोड़ी अधिक। व्यक्ति के गुण-धर्म इसके आधार पर ही भिन्न-भिन्न होते हैं। प्रकारांतर से देखें तो आकाश, धरती, जल, अग्नि और वायु का समुच्चय ही सनातन है। 

मनुष्य या व्यष्टि से होते हुए समाज या समष्टि तक की यात्रा बहुत सरल और सहज तब होती है, जब सुसंस्कारों के बीज सही तरह से बोए जाएं। कहने का अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति के जन्म मात्र से ही उसके समाज सापेक्ष निर्माण का आरंभ नहीं होता। कल जो खलनायक थे या आज जो दुष्ट हैं, वे अपने परिवार के ज्ञान-अज्ञान की सीमाओं या जन्म स्थान के विशिष्ट भूगोल या किसी और भौतिक कारण मात्र की वजह से ऐसे नहीं थे या हैं। उन्हें सही संस्कार नहीं मिले, इस कारण वे ऐसे थे अथवा हैं। यानी जीवन की उत्पत्ति के लिए पंच तत्व तो अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं, लेकिन सच्चरित्र व्यक्ति का निर्माण इतने भर से ही नहीं होता। इसके लिए समाज हितकारी संस्कार ही महत्वपूर्ण कारक है। मोटे तौर पर इसे इस तरह समझें कि हम पैदा तो निर्वस्त्र होते हैं, लेकिन जीवन भर निर्वस्त्र रहते नहीं। दुनिया में अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों अथवा विचारों के कारण व्यक्तियों की वेशभूषा अलग-अलग भले होती हो, लेकिन इसके पीछे का कारण सिद्धांततः एक ही होता है।  

हम भारतीयों को यह संस्कार विशेष ही शेष विश्व से अलग करता है। पंच तत्वों की चिरंतन सत्य अवधारणा के साथ सुसंस्कारों का तालमेल ही सनातन संस्कृति का निर्माण करता है। हर संस्कृति के खलनायकों की तरह सनातन संस्कृति के भी अपने मौलिक खलनायक हैं। सनातन संस्कृति आदि से अंत तक प्रकृति पर आधारित है, इसलिए भारतीय जीवन मूल रूप से उत्सवधर्मी है। हम धरती, आकाश, जल, अग्नि और वायु के साथ ही विशिष्ट सकारात्मक संस्कारों से बनते हैं, इसलिए प्रकृति का जितना सम्मान हमारी सनातन संस्कृति में किया जाता है, उतना किसी और संस्कृति में नहीं। 

धरती की कोख से जीवनदायी हरियाली फूटती है, तो हम उत्सव या त्यौहार मनाते हैं। अनंत आकाश का आभासी वितान जब हमारी कल्पनाओं में उड़ान के रंग भरता है, तो हम प्रफुल्लित होकर उत्सव मनाने लगते हैं। प्रकाश जब हमारे मन के अंधकार को पूरी चेतना के साथ जागृत करता है, प्रकाश का ताप जब धरती की गोद से उपजी अमरता भरी हरियाली की अल्हड़ उंगलियां थाम कर चेतना के ऊर्ध्वमुखी संसाधनों का विकास करता है, तब हम उत्सव मनाने लगते हैं। अग्नि का संहारक तेज जब नियंत्रित होकर हमारी क्षुधा के शमन के लिए रोटी-साग पकाता है, तब हम उत्सव मनाने लगते हैं और जब हरे-भरे पेड़ हवा के सहारे झूमने लगते हैं, अनमोल फूलों की मादकता भरी गंध जब हवा के रथों पर सवार होकर हमारे मन-मष्तिष्क को महकाने लगती है, तब हम उत्सव मनाने लगते हैं। 

धरती पर हम चलते हैं, घरों और गंतव्यों के चक्कर काटते हुए जीवन में निरंतर आगे बढ़ते हैं, धरती और आकाश हमें विस्तार देते हैं, प्रकाश देते हैं, अग्नि देते हैं, जल देते हैं, हवा देते हैं, क्षितिज हमारे जीवन का व्यावहारिक और सैद्धांतिक आधार है। हमें खाने को कुछ न मिले, तो हम मर जाते हैं, पीने को पानी न मिले, तो भी हम मर जाएंगे और यदि हवा न मिले, तब तो और जल्दी मर जाएंगे। हमें खाना, पानी और हवा एक साथ चाहिए, लगातार चाहिए। जब हमें यह लगातार यानी नित्य मिलता है, तब हम लगातार यानी नित्य उत्सव ही तो मनाते हैं। वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को मन में धारण किए हम सनातन धर्मी हर पल को ही उत्सव की तरह अनुभव करते हैं। 

सुबह सोकर उठने पर हम सभी जीवनदायी तत्वों को प्रणाम करते हैं। नित्यकर्म और स्नान के बाद हम ध्यान करते हैं, सूर्य को जल चढ़ाते हैं। भोजन के समय हम प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जताते हुए कोई भूखा न रहे, ऐसी कामना करते हैं। दिन भर जीवन के क्रम में हम प्रकृति के प्रति आदर भाव मन में रखते हैं। सोते समय भी हम सबके कल्याण की कामना करते हैं, तो हम हर समय जीवन का उत्सव ही तो मना रहे होते हैं। सनातन घरों में नित्य-प्रति होने वाला पूजा-पाठ हो या फिर किसी के जन्मदिन या किसी अन्य शुभ अवसर पर होने वाला धार्मिक कर्मकांड, होली हो, दशहरा-दीवाली हो या फिर और कोई घोषित सामूहिक पर्व, हम प्रकृति के प्रति अपने उद्भट प्रेम की ही अभिव्यक्ति कर रहे होते हैं। हम सदैव ऐसे ही रहें, यह कामना करते हैं। 

अक्टूबर महीना हमारे कई सामूहिक उत्सवों का समय होता है। हमें पूरी सनातन परंपरा से अपने सभी उत्सव मनाने चाहिए। लेकिन कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी को भी ध्यान में रखकर उचित आचरण करने चाहिए, क्योंकि हम मानते हैं सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।