निःस्वार्थ सेवा: संघ का
मूल सिद्धांत
इस प्रकार के विभिन्न
सेवा कार्यों के प्रति संघ का दृष्टिकोण विशुद्ध है। श्री गुरुजी को यह कदापि
पसन्द नहीं था कि कोई भी सेवा-कार्य जनता पर उपकार की भावना से किया जाए। वे
स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि “सेवा हिन्दू जीवन-दर्शन
की प्रमुख विशेषता है। निःस्वार्थ सेवा उसका स्वभाव ही है। जहां स्वार्थ है वहां
सेवा नहीं हो सकती। स्वार्थ का प्रवेश होते ही वह सेवा न रहकर व्यापार बन जाती
है।" लेकिन साथ ही श्री गुरुजी को यह भी उचित प्रतीत नहीं होता था कि जनता की
सेवा हेतु बार-बार दौड़ कर जाना पड़े। दिनाँक 26 अप्रैल 1950 को लिखे एक पत्र में वे
कहते हैं, "सहायता के लिए अपील
प्रकाशित करने को विवश करने वाली परिस्थिति स्थायी रूप से बन जाना अत्यन्त
दुर्भाग्य की बात है। यही नहीं, अपितु यह देश के लिए एक
कलंक है। ऐसी परिस्थिति निर्माण होने का किंचित भी अवसर न आए, इसी हेतु हम लोगों को प्रयास करना चाहिए।"
।। श्री गुरुजी : व्यक्ति
और कार्य; ना.ह. पालकर; डॉ. हेडगेवार भवन, नागपुर; पृष्ठ- 241 ।।