उत्सवों में प्रकृति पौराणिक परंपरा और लोकजीवन का संगम
भारत में उत्सव केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं वे प्रकृति, ऋतु, जल, वनस्पति और लोकजीवन के गहरे ताने-बाने से जुड़े हुए हैं। यहां हर पर्व एक कहानी कहता है कभी देवताओं की, कभी मनुष्य की, और कभी उस मिट्टी की जो जीवन देती है। कार्तिक मास के आगमन के साथ तो पूरे देश में भक्ति, उल्लास और रंगों का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
देवउठावनी एकादशी (1 नवम्बर): शुभता का आरंभ: कहते हैं, जब भगवान विष्णु चार महीने के शयन के बाद देवउठावनी एकादशी को जागते हैं, तो पृथ्वी पर मंगल कार्यों की शुरुआत होती है। इस दिन कर्नाटक राज्योत्सव और केरल पिरवी (केरल दिवस) भी मनाया जाता है एक भारत, विविध संस्कृतियों की सुंदर झलक। देवउठावनी के अगले दिन, 2 नवम्बर को तुलसी विवाह का भव्य उत्सव होता है। तुलसी माता का घर दीपों से सजाया जाता है, और भगवान सालिग्राम की बारात नाचते-गाते तुलसी जी के आंगन में पहुंचती है। यह विवाह धार्मिक ही नहीं, लोक आनंद का भी प्रतीक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि देवत्व केवल मंदिरों में नहीं पेड़, नदी, पौधे, हरियाली, सब में बसता है।
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कार्तिक पूर्णिमा और देव दीपावली (5 नवम्बर): कार्तिक मास की पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहा जाता है यह वह दिन है जब भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का संहार कर धर्म की पुनः स्थापना की थी। शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरुक्षेत्र, अयोध्या और काशी जैसी पवित्र नदियों में स्नान करना अत्यंत पुण्यदायी होता है। इस दिन को देव दीपावली के रूप में मनाया जाता है मानो स्वयं देवता गंगा तट पर दीप जलाकर दीपावली मनाते हैं। घरों में रंगोली सजी होती है, और सरयू, गंगा, यमुना के घाटों पर दीपों की अनगिनत कतारें धरती पर स्वर्ग की छटा बिखेर देती हैं। महाभारतकालीन कथा के अनुसार, युद्ध समाप्ति के बाद जब युधिष्ठिर युद्ध की विभीषिका से व्याकुल हुए, तो श्रीकृष्ण उन्हें और पांडवों को लेकर गढ़मुक्तेश्वर आए। वहां उन्होंने कार्तिक शुक्ल अष्टमी से चतुर्दशी तक गंगा तट पर यज्ञ किया और दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान किया। आज भी वहां दीपदान और गंगा स्नान की परंपरा जीवित है। इसी दिन भारत के वीर शहीदों को भी श्रद्धांजलि दी जाती है - यह दिन धर्म, भक्ति और देशभक्ति का अद्भुत संगम है।
गुरु नानक जयंती (5 नवम्बर): कार्तिक पूर्णिमा के ही दिन गुरु नानक देव जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। गुरुद्वारों में शबद कीर्तन की ध्वनि गूंजती है, और लंगर में सेवा का संदेश फैलता है। यह पर्व हमें सिखाता है ‘सेवा ही सर्वाेच्च साधना है।’

वन भोजन - प्रकृति संग समरसता का उत्सव: कार्तिक मास में ‘वन भोजन’ का आयोजन भी विशेष महत्व रखता है। गांव और शहरों के लोग किसी हरियाली भरे स्थान पर इकट्ठे होते हैं, घर का बना खाना लाते हैं और प्रकृति की गोद में बैठकर सब मिलजुलकर भोजन करते हैं। यहां कोई मंच नहीं, कोई औपचारिकता नहीं - जो गा सकता है, गाता है; जो सुना सकता है, सुनाता है। यह उत्सव हमें सिखाता है कि भोजन केवल पेट के लिए नहीं, आत्मीयता के लिए भी होता है।
गंगा महोत्सव, वाराणसी (5-7 नवम्बर): वाराणसी की धरती पर गंगा आरती की लहरों के साथ गंगा महोत्सव का आयोजन होता है। यह तीन दिनों तक चलने वाला शास्त्रीय संगीत और नृत्य का उत्सव है जहां घाटों पर सितार, तबला, कथक और शंख की ध्वनि एक साथ गूंजती है। यह केवल एक आयोजन नहीं, बल्कि गंगा माता के प्रति कृतज्ञता का उत्सव है।

पुष्कर ऊँट मेला (30 अक्तूबर-5 नवम्बर): रेत के विशाल मैदानों में फैला पुष्कर मेला राजस्थान की आत्मा का उत्सव है। सैकड़ों ऊँट पारंपरिक पोशाकों में सजाए जाते हैं, ऊँट नृत्य करते हैं, प्रतियोगिताएँ होती हैं, और लोकनर्तक अपने गीतों से वातावरण जीवंत कर देते हैं।
कालबेलिया नृत्य की थिरकन अब विदेशों में भी गूंजती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखों श्रद्धालु पुष्कर झील में स्नान कर ब्रह्मा मंदिर में दर्शन करते हैं। रात को अलाव के चारों ओर लोकगाथाएं सुनाई जाती हैं मानो रेत में इतिहास फिर से जाग उठता हो।
बाली जात्रा, कटक - समुद्री विरासत का उत्सव: ओडिशा की धरती पर कटक के गडगड़िया घाट (महानदी तट) पर एशिया का सबसे बड़ा मेला - बाली यात्रा लगता है। यह उत्सव भारत के 2000 वर्ष पुराने समुद्री व्यापार की स्मृति में मनाया जाता है, जब ओड़िया नाविक ‘साधवा’ नावों (बोइता) में जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, म्यांमार और श्रीलंका तक व्यापार करने जाते थे। परिवार की महिलाएं उनकी कुशल वापसी के लिए ‘बोइता वंदना’ करती थीं। कागज या केले के पत्तों से बनी नावों में दीप रखकर जल में प्रवाहित करती थीं। आज भी यह परंपरा हर घर, हर घाट पर निभाई जाती है। कटक का बाली यात्रा मेला सांस्कृतिक, व्यापारिक और लोकजीवन का अद्भुत संगम है। यहां लाखों लोग आते हैं हस्तशिल्प, लोककला, व्यंजन, चर्चा-मंडप और आधुनिक कार्यक्रम सब एक साथ। यहीं 2100 बच्चों ने 22,000 कागज की नाव बनाकर विश्व कीर्तिमान बनाया है जो गिनी बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है।
झिड़ी मेला, जम्मू - किसान आस्था का पर्व: जम्मू से 22 किमी दूर झिड़ी गाँव में लगने वाला झिड़ी मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा किसान मेला है। यह बाबा जित्तो और उनकी पुत्री बुआ कौड़ी की स्मृति में आयोजित होता है, जिन्होंने अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष किया था। यहां खेती-बाड़ी, बागवानी, डेयरी, रेशम उद्योग, खादी और ग्रामीण तकनीक से जुड़े स्टॉल लगते हैं। श्रद्धालु बाबा तालाब में स्नान कर मनोकामना पूरी करने की कामना करते हैं। कहा जाता है कि उस जल में स्नान से त्वचा रोग दूर होते हैं और निसंतान को संतान सुख मिलता है। आज भी किसान अपने खेत के पहले अन्न के दाने बाबा जित्तो को अर्पित करते हैं उनके प्रति कृतज्ञता के प्रतीक के रूप में।
रण उत्सव, कच्छ (1 नवम्बर-20 फरवरी): गुजरात का प्रसिद्ध रण उत्सव सफेद रेगिस्तान में रंगों, संगीत और लोककला का तीन महीने लंबा उत्सव है। यहां कलाकार, बुनकर, संगीतकार, लोकनर्तक और कारीगर सब एक मंच पर आते हैं। रेत में सजे टेंट सिटी में जब सूरज ढ़लता है, तो पूरा रण मानो सोने की झिलमिल रोशनी में नहाता है। यह उत्सव भारत की विविधता और सृजनशीलता का सजीव प्रतीक है।

सोनपुर मेला, बिहार (6 नवम्बर - 7 दिसम्बर): गंडक नदी के तट पर लगने वाला सोनपुर मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है। यह वही स्थान है जहां चंद्रगुप्त मौर्य, अकबर और वीर कुँवर सिंह जैसे योद्धाओं ने हाथी खरीदे थे। आज यह मेला धीरे-धीरे ऑटो एक्सपो और ग्रामीण व्यापारिक मेला बन गया है। यहां नौका दौड़, दंगल, सांस्कृतिक कार्यक्रम और हरिहरनाथ मंदिर की पूजा होती है। करीब 15 किमी तक फैले इस मेले में लोक संस्कृति और आधुनिकता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।

वंगाला उत्सव, मेघालय (7 नवम्बर): मेघालय के गारो जनजाति द्वारा मनाया जाने वाला यह फसल कटाई का उत्सव है। ‘वंगाला’ का अर्थ है - ‘सौ ढोल’। सूर्यदेव सलजोंग के सम्मान में ढोलों की गूंज और रंगीन वेशभूषा में पारंपरिक नृत्य होते हैं। यह उत्सव वर्षा और फसल दोनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है।
बूंदी महोत्सव, राजस्थान (18-20 नवम्बर): राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र का छोटा पर ऐतिहासिक नगर बूंदी अपनी स्थापत्य कला, झरनों और मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। हनुमान मंदिर, राधाकृष्ण मंदिर और नीलकंठ महादेव की भक्ति के कारण इसे ‘छोटी काशी’ भी कहा जाता है। बूंदी महोत्सव में विविध प्रतियोगिताएं, सांस्कृतिक कार्यक्रम और लोकनृत्य होते हैं। चंबल नदी तट पर दीपदान का दृश्य मन को छू जाता है।

माजुली महोत्सव, असम (21-24 नवम्बर): ब्रह्मपुत्र नदी के बीच स्थित माजुली द्वीप पर असम की सांस्कृतिक आत्मा झलकती है। संगीत, नृत्य और सत्र परंपरा का उत्सव मनाया जाता है, जो पूरे विश्व के संगीत प्रेमियों को आकर्षित करता है।
संगाई महोत्सव, मणिपुर (21 नवम्बर): राज्य के राजकीय पशु संगाई हिरण के नाम पर यह महोत्सव मणिपुर की संस्कृति, खेल, हस्तशिल्प और व्यंजनों का संगम है। यह न केवल पर्यटन आकर्षण है, बल्कि मणिपुर की संस्कृति-संरक्षा की पहल भी है।
विवाह पंचमी और श्रीराम-जानकी विवाह (25 नवम्बर): मिथिला की परंपरा में विवाह केवल दो आत्माओं का मिलन नहीं, बल्कि प्रकृति और नदी पूजन से आरंभ होता है। विवाह पंचमी से पहले कमला नदी पूजन की रस्म होती है, जिसे ‘मटकोर’ कहते हैं। लोककथा है कि सीता जी की सखी कमला देवी इसी पूजन से प्रकट हुई थीं। इस अवसर पर स्त्रियां लोकगीत गाती हैं ‘कहाँ माँ पियर माटी, कहाँ मटकोर रे...’ पांच सुहागिनें तेल, हल्दी, दही लेकर नदी तट की मिट्टी खोदती हैं और वही मिट्टी विवाह के उबटन में मिलाई जाती है। विवाह पंचमी पर अयोध्या से श्रीराम की बारात जनकपुर (नेपाल) पहुंचती है। आज भी पांच वर्ष में एक बार यह यात्रा पुनः आयोजित होती है, जब अयोध्या से जनकपुर तक भक्ति का सागर उमड़ पड़ता है।

स्कंद षष्ठी (25 नवम्बर): दक्षिण भारत में यह पर्व भगवान स्कंद (मुरुगन, कार्तिकेयन) को समर्पित है, जो भगवान शिव-पार्वती के पुत्र और गणेश जी के बड़े भाई हैं। छः दिनों तक उपवास और पूजा होती है, जो सूर्यसंहारम के दिन सम्पन्न होती है। अगले दिन तिरुकल्याणम का उत्सव मनाया जाता है। यह पर्व संतान-सुख और समृद्धि की कामना से मनाया जाता है। भारत के ये सभी उत्सव चाहे गंगा के घाटों पर जलते दीप हों या ओडिशा की नावों में झिलमिलाते दीपक एक ही संदेश देते हैं- प्रकृति, श्रद्धा और मानवता यही हमारे पर्वों का प्राण हैं। इनमें केवल आस्था नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन छिपा है जहाँ नदी स्नान, दीपदान, गीत और नृत्य के साथ संस्कृति का प्रवाह निरंतर बहता रहता है।
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