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संघ के कार्यकर्ता से भारत रत्न तक, लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने ‘भारत रत्न’ से किया सम्मानित

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने रविवार (31 मार्च 2024) को देश की राजधानी दिल्ली में भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को उनके आवास पर भारत पुरस्कार से सम्मानित किया। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, पूर्व उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू समेत कई नेता मौजूद रहे।

संघ के कार्यकर्ता से भारत रत्न तक

श्री लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर, 1927 को सिन्ध प्रान्त (पाकिस्तान) में हुआ था। कराची के सेंट पैट्रिक्स स्कूल में उनकी पढ़ाई हुई। उनकी देशभक्ति की भावना ने उन्हें राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया। महज 14 साल की उम्र में ही वे संघ के स्वयंसेवक के नाते राष्ट्र की सेवा में जुट गए।

1947 में देश विभाजन की टीस से वह भी अछूते नहीं रहे। उन्हें अपना घर छोड़कर भारत पलायन करना पड़ा। हालांकि उन्होंने इस घटना को खुद पर हावी नहीं होने दिया और मन में इस देश को एकसूत्र में बांधने का संकल्प लिया। इस विचार के साथ वह राजस्थान में संघ के प्रचारक के रूप में कार्य में लग गए।

1980 से 1990 के बीच आडवाणी जी ने भाजपा को एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनाने के लिए अपना पूरा समय दिया और इसका परिणाम तब सामने आया, जब 1984 में महज 2 सीटें हासिल करने वाली पार्टी को 1989 के लोकसभा चुनावों में 86 सीटें मिलीं। उस समय के लिहाज से यह काफी बेहतर प्रदर्शन था। पार्टी 1992 में 121 सीट से 1996 में 161 सीटों पर पहुंच गई। आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस सत्ता से बाहर थी और बीजेपी सबसे अधिक संख्या वाली पार्टी बनकर उभरी थी।

बदला राजनीतिक परिदृश्य

1990 में जब देश विकट परिस्थितियों से जूझ रहा था, जातिवादी तत्व एक तरफ एकता और अखंडता को तार-तार करने पर तुले हुए थे, दूसरी तरफ छद्म पंथनिरपेक्षता के पैरोकार मत-पंथ के आधार पर देश को बांटना चाहते थे। उस दौर में श्री लालकृष्ण आडवाणी आगे आये और उन राष्ट्र विरोधी ताकतों को करारा जवाब दिया। श्री आडवाणी ने अपनी सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा एक ऐसे दौर में शुरू की जब लोग दिल्ली में बैठे अपनी सत्ता को जाति और मत-पंथ के बंटवारे से मजबूती देने पर तुले थे। भारतीय जनता पार्टी, रथ यात्रा के जरिये, अपना सन्देश जन जन तक ले गई। ये ईंट-पत्थर को जोड़कर एक मंदिर बनाने की यात्रा भर नहीं थी। ये राष्ट्र की भावनाओं से अपने पूज्य को उनका सही स्थान दिलाने की यात्रा थी। राष्ट्रवाद की भावनाओं को इस यात्रा ने उभार कर दिया।