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राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020: पांच वर्षों की यात्रा और प्रासंगिकता

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020: पांच वर्षों की यात्रा और प्रासंगिकता 

29 जुलाई 2020 को घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 को लागू हुए अब पाँच वर्ष पूरे हो चुके हैं। यह स्वतंत्र भारत की तीसरी और 21वीं सदी की पहली शिक्षा नीति है। इससे पहले 1968 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में तथा 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की अध्यक्षता में शिक्षा नीतियाँ लागू की गई थीं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 का प्रारूप अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में तैयार किया गया और देशभर में व्यापक विचार-विमर्श व जनभागीदारी के बाद इसे अंतिम रूप दिया गया। 2014 से जून 2020 के बीच लगभग दो लाख ग्राम पंचायतों, छह हजार प्रखंडों एवं नगरीय निकायों और 676 से अधिक जिलों से सुझाव प्राप्त हुए, जिसके फलस्वरूप एक व्यापक, संतुलित और दूरदर्शी शिक्षा नीति तैयार हुई। जहाँ पूर्ववर्ती नीतियाँ मुख्यतः शिक्षा में अवसर की समानता सुनिश्चित करने पर केंद्रित थीं, वहीं 2020 की नीति का दृष्टिकोण कहीं अधिक व्यापक और बहुआयामी है। इसका उद्देश्य केवल प्रमाणपत्र देने वाली शिक्षा प्रणाली से आगे बढ़कर शोध, नवाचार, कौशल, सहयोग, समावेशन और आत्मनिर्भरता के माध्यम से करोड़ों नागरिकों के द्वारा देखे गए विकसित भारत के स्वप्नों को साकार करने वाली शिक्षा प्रणाली स्थापित करना है। यह नीति शिक्षा के मायने को ही पुनर्परिभाषित करती है और आजीवन अध्ययन व अधिगम को इसके केंद्र में रखती है।

दशकों तक भारत में विद्यालयों में नामांकन और उपस्थिति बढ़ाना एक बड़ी चुनौती रही है। अनेक बच्चे अर्थाभाव या अन्य कारणों से बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को विवश होते रहे हैं। इस नीति ने इस चुनौती का सीधा समाधान प्रस्तुत किया है। सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप 2030 तक सभी बच्चों को पूर्व-प्राथमिक से कक्षा 10 तक अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने और सकल नामांकन अनुपात 100 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया है। उच्च शिक्षा में 2035 तक 50 प्रतिशत का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इन लक्ष्यों की दिशा में ठोस कदम उठाए गए हैं, जिसके अंतर्गत दूरस्थ क्षेत्रों में नए विद्यालय खोले जा रहे हैं, और अब तक सात चरणों में देशभर में 14,500 पीएम श्री विद्यालय लोकार्पित किए जा चुके हैं। निपुण भारत मिशन के अंतर्गत यह सुनिश्चित करने का संकल्प लिया गया है कि 2027 तक कक्षा 3 तक के सभी बच्चे पढ़ने, लिखने और बुनियादी गणना जैसे आधारभूत साक्षरता और संख्यात्मक कौशल हासिल कर लें। गैर-सरकारी संगठन ‘असर’ तथा एनसीईआरटी के पूर्व में राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण तथा अब ‘परख’ द्वारा प्रस्तुत किए गए वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट, 2024 के अनुसार, पिछले पाँच वर्षों में नामांकन, उपस्थिति, अक्षर और शब्द पहचान, पढ़ने-लिखने की क्षमता, संख्यात्मक और गणितीय कौशल तथा प्रारंभिक शिक्षा वर्षों में समग्र अधिगम परिणामों में 60 से 64 प्रतिशत सुधार दर्ज किया गया है। प्राथमिक स्तर की शिक्षा को रोचक और व्यावहारिक बनाने के लिए फाउंडेशनल स्टेज (पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं) हेतु ”जादुई पिटारा“ विकसित किया गया है, जो खेल-खेल में सीखने पर बल देता है। इस किट में कार्ड, कहानियाँ और ऑडियो-विज़ुअल सामग्री सम्मिलित है, जिससे शिक्षण आनंददायक और सहभागितापूर्ण बन सके। विशेष रूप से, इसे केवल मुद्रित पुस्तकों तक सीमित नहीं रखा गया है, बल्कि इसे संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त सभी 22 भाषाओं में ई-प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध कराया गया है।

भारत में लंबे समय से कौशल-आधारित शिक्षा की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। यह पहली नीति है जिसने औपचारिक रूप से कक्षा 6 से ही पाठ्यक्रम में व्यावहारिक, तकनीकी और व्यावसायिक कौशलों को जोड़ा है। विद्यालयी छात्रों में शोध और नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए अटल इनोवेशन मिशन शुरू किया गया है। पिछले कुछ वर्षों में देशभर में 10,000 से अधिक अटल टिंकरिंग लैब्स स्थापित किए जा चुके हैं, और मौजूदा बजट में इस संख्या को 50,000 तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। इस नीति की एक और प्रमुख विशेषता डिजिटल संसाधनों का व्यापक उपयोग है। सीबीएसई, एनसीईआरटी और यूजीसी ने पीएम ई-विद्या, दीक्षा, विद्या समीक्षा केंद्र, ई-पाठशाला, स्वयं, स्वयं प्रभा, समर्थ, निष्ठा, राष्ट्रीय डिजिटल लाइब्रेरी और राष्ट्रीय अकादमिक डिपॉजिटरी जैसे पोर्टल्स एवं ई-मंचों के माध्यम से शिक्षकों और छात्रों को उच्च गुणवत्ता वाली ऑनलाइन सामग्री उपलब्ध कराना सुनिश्चित किया है। अब ये संसाधन दूरस्थ गाँवों के बच्चों और शिक्षकों के लिए भी सुलभ हैं। इस नीति में शिक्षक-प्रशिक्षण, व्यावसायिक विकास और मूल्यांकन पर भी विशेष बल दिया गया है। नेशनल प्रोफेशनल स्टैंडर्ड्स फॉर टीचर्स (एनपीएसटी) के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि शिक्षक केवल कक्षा तक सीमित न रहें, बल्कि छात्रों के समग्र विकास में सक्रिय भूमिका निभाएँ।

भाषाई स्तर पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा या स्थानीय भाषा में शिक्षा को अनिवार्य और कक्षा 8 तक वैकल्पिक रूप से जारी रखने को प्राथमिकता देती है। इसके साथ ही यह भारतीय ज्ञान परंपरा, साहित्य, कला और संस्कृति को पाठ्यक्रम में एकीकृत करती है। वस्तुतः भारतीय ज्ञान परंपरा का संरक्षण और संवर्धन भारत की भाषाओं के सम्मान और प्रोत्साहन के बिना संभव नहीं है। इसी दिशा में एनसीईआरटी ने मातृभाषा और बहुभाषी शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। अब तक भारत की लगभग 117 भाषाओं में अध्ययन-सामग्री तैयार की जा चुकी है। 14 भाषाओं में 1,000 से अधिक कहानियाँ ई-पाठशाला मंच पर उपलब्ध कराई गई हैं, जिससे छात्र अपनी सांस्कृतिक और भाषाई परिवेश के अनुरूप सीख सकें। इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने हाल ही में बजट में महत्वाकांक्षी ”भारतीय भाषा परियोजना“ की घोषणा की है। यह योजना न केवल भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास को गति देगी, बल्कि वैश्विक मंच पर भारत की भाषाई विरासत को भी प्रदर्शित करेगी। भारत में प्रचलित सभी भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ हैं; उनमें भले ही शैलीगत विविधता हो, परंतु भाव, विचार एवं तत्त्व-चिंतन के स्तर पर उनमें अद्भुत एकता एवं साम्यता है। इतनी कि सहसा उसे देख एवं अनुभूत कर देश व दुनिया के लोग विस्मित एवं चमत्कृत हो उठते हैं। इस प्रकार भारतीय भाषाओं का संवर्धन राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सुदृढ़ करता है और साथ ही संयुक्त राष्ट्र की इस अपेक्षा को भी पूरा करता है कि वैश्विक भाषाई विविधता का संरक्षण और संवर्धन किया जाए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धियों में से एक, विद्यालयी शिक्षा की संरचना में व्यापक सुधार है। दशकों पुराने 10$2 ढाँचे को बदलकर 5$3$3$4 ढाँचा लागू किया गया है, जिसमें आधारभूत स्तर (पूर्व-प्राथमिक से कक्षा 2 तक), प्रारंभिक स्तर (कक्षा 3 से 5), मध्य स्तर (कक्षा 6 से 8) तथा उच्च माध्यमिक स्तर (कक्षा 9 से 12) शामिल हैं। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2023 के आधार पर कक्षा 1 से 8 तक की पाठ्यपुस्तकें पहले ही युगीन आवश्यकताओं एवं राष्ट्रीय आकांक्षाओं के अनुरूप प्रकाशित की जा चुकी हैं, जबकि कक्षा 9 से 12 की पुस्तकें इस वर्ष और अगले वर्ष पूरी हो जाएँगी। इस पाठ्यक्रम में भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य के विचारों व आवश्यकताओं का समावेश है।

विद्यालय से लेकर उच्च शिक्षा तक लचीलापन और बहुविषयकता को बढ़ावा देने के लिए अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट्स (एबीसी) और नेशनल क्रेडिट फ्रेमवर्क (एनसीआरएफ) लागू किए गए हैं। इस व्यवस्था के तहत विद्यार्थियों को शिक्षा, खेल-कूद, पाठ सहगामी गतिविधियों तथा कौशल के लिए क्रेडिट अंक प्रदान किए जाते हैं। यदि किसी कारणवश विद्यार्थी की पढ़ाई बीच में रुक जाती है, तो अर्जित क्रेडिट उसके खाते में सुरक्षित रहते हैं और वह आगे पुनः अध्ययन कर और क्रेडिट जोड़ सकता है। यहाँ तक कि सीखने या कौशल अर्जन के लिए प्रति घंटा यानी निर्दिष्ट अवधि के आधार पर भी क्रेडिट प्राप्त करने की व्यवस्था है। परीक्षा के दबाव को कम करने के लिए सीबीएसई ने घोषणा की है कि सत्र 2025-26 से कक्षा 10 के विद्यार्थियों को वर्ष में दो बार बोर्ड परीक्षा देने का विकल्प मिलेगा। एनसीईआरटी ने परख (परफॉर्मेंस एसेसमेंट, रिव्यू, एंड एनालिसिस ऑफ नॉलेज फॉर  होलिस्टिक डेवलपमेंट) नामक एक व्यापक रिपोर्ट कार्ड प्रारंभ किया है, जो केवल अंकों तक सीमित न रहकर विद्यार्थियों के जीवन मूल्यों, नैतिकता, सृजनात्मकता, सहयोग, संवेदनशीलता और अन्य गुणों का आकलन करेगा। इसी प्रकार, चार वर्षीय स्नातक डिग्री कार्यक्रम में बहु-प्रवेश (मल्टीपल एंट्री) और बहु-निकास (मल्टीपल एग्जिट) की सुविधा दी गई है, जिससे विद्यार्थियों का समय, धन और परिश्रम व्यर्थ न जाए। एक वर्ष की पढ़ाई पूरी करने पर प्रमाणपत्र, दो वर्ष पर डिप्लोमा, तीन वर्ष पर ऑनर्स डिग्री और चार वर्ष पर शोध सहित ऑनर्स डिग्री प्रदान की जाएगी। शोध में रुचि रखने वाले विद्यार्थी चार वर्षीय स्नातक डिग्री के बाद सीधे इस क्षेत्र में प्रवेश कर सकेंगे। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अभियांत्रिकी, स्वास्थ्य, चिकित्सा तथा स्टेम शिक्षा में शोध एवं नवाचार को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री अनुसंधान फेलोशिप (पीएनआरएफ) योजना प्रारंभ की गई है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में अनुसंधान राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एएनआरएफ) की स्थापना की गई है, जिसका उद्देश्य महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और प्रयोगशालाओं में अनुसंधान एवं नवाचार की संस्कृति को प्रोत्साहित करना है। केंद्र सरकार ने इसके लिए ₹50,000 करोड़ का प्रावधान किया है। यह नीति दुहरी (ड्वेल) डिग्री और बहुविषयक अध्ययन को भी प्रोत्साहित करती है, जिससे किसी भी संकाय (स्ट्रीम) के विद्यार्थी अपनी रुचि, पात्रता और आवश्यकता के अनुसार उच्च शिक्षा के विषय चुन सकते हैं।

शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण भारत के लिए नया विचार नहीं है। प्राचीन काल में नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, वल्लभी, ओदंतपुरी और पुष्पगिरि जैसे विश्वविद्यालय वैश्विक ज्ञान-केन्द्र थे, जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी, शोधार्थी और दार्शनिक आते थे। आज उसी गौरवशाली परंपरा और आदर्श को आगे बढ़ाते हुए भारत के प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान न केवल विदेशी विद्यार्थियों को आकर्षित कर रहे हैं, बल्कि विदेशों में भी अपने परिसरों की स्थापना कर रहे हैं। इसी प्रकार, विदेशी विश्वविद्यालय भी भारत में अकादमिक केन्द्र खोल रहे हैं, जिससे वैश्विक ज्ञान-साझाकरण की परिकल्पना को ठोस रूप मिल रहा है। इस दिशा में आईआईटी मद्रास ने ज़ांज़ीबार में, आईआईटी दिल्ली ने आबू धाबी में, आईआईएम अहमदाबाद और आईआईएफटी ने दुबई में परिसर खोले हैं, जबकि आईआईटी मुंबई ने तोहोकू विश्वविद्यालय (जापान) के साथ एक संयुक्त अकादमिक केंद्र स्थापित किया है। दूसरी ओर, विदेशी विश्वविद्यालय भी भारत में सक्रिय हो रहे हैं-गुजरात के गिफ्ट सिटी में 2, गुरुग्राम में एक और बेंगलुरु में एक परिसरों की स्थापना हो चुकी है। यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका और इटली के कई प्रतिष्ठित संस्थानों ने भारत में शिक्षा केन्द्र खोलने में रुचि दिखाई है, और 11 विश्वविद्यालयों को आशय-पत्र (लेटर ऑफ इंटेंट) जारी किए गए हैं। इनमें यूनाइटेड किंगडम के यूनिवर्सिटी ऑफ साउथैम्प्टन, यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल, यूनिवर्सिटी ऑफ यॉर्क और यूनिवर्सिटी ऑफ एबर्डीन; ऑस्ट्रेलिया के डीकन यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ वूलॉन्गॉन्ग और यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया; अमेरिका के इलिनॉय इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी; तथा इटली के इस्तितुतो यूरोपियो दी डिजाइन शामिल हैं। कुल मिलाकर, शीर्ष 15 विदेशी विश्वविद्यालय भारत में परिसर स्थापित करने के प्रारंभिक चरण को पार कर चुके हैं और 5 और अनुमोदन की प्रतीक्षा में हैं। इन विश्वविद्यालयों का आगमन विद्यार्थियों को देश में रहते हुए विश्वस्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराएगा, भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देगा, अकादमिक गुणवत्ता को नए आयाम पर ले जाएगा और ज्ञान-केंद्रित परिसर व समृद्ध शैक्षणिक वातावरण के निर्माण में सहायक होगा। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इससे विद्यार्थियों की विदेश जाने की आवश्यकता कम होगी, आर्थिक बोझ घटेगा, और भारत को पुनः एक वैश्विक ज्ञान-केन्द्र के रूप में स्थापित किया जा सकेगा, जिसका विश्वभर में सम्मान और मान्यता होगी।

हाल के वर्षों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार केवल कागजी योजनाओं तक सीमित न रहकर ठोस परिणामों में परिवर्तित हुए हैं। वर्ष 2014-15 में केवल 11 भारतीय विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान ही क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग्स में स्थान प्राप्त कर सके थे। वर्ष 2025-26 तक यह संख्या बढ़कर 54 हो गई है। भारत ने जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और चीन के साथ इस सूची के शीर्ष चार देशों में स्थान बना लिया है। इन रैंकिंग्स के लिए उपयोग किए जाने वाले 10 वैश्विक मानकों में से कई पर भारतीय विश्वविद्यालय अब शीर्ष 100 में गिने जाते हैं। यह बदलाव केवल आँकड़ों में वृद्धि नहीं है, बल्कि आत्मविश्वास में भी उछाल है। नवाचार और उद्यमिता के क्षेत्र में भी भारत ने ऐतिहासिक छलांग लगाई है। देश में अब लगभग 1,76,000 पंजीकृत स्टार्टअप्स हैं, जिनमें 118 से अधिक यूनिकॉर्न्स शामिल हैं, जिससे भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा स्टार्टअप इकोसिस्टम बन गया है। पेटेंट दाखिल करने के क्षेत्र में भी भारत ने नई ऊँचाइयाँ प्राप्त की हैं। वर्ष 2023-24 में 92,168 पेटेंट आवेदन के साथ भारत विश्व के शीर्ष छह देशों में शामिल हो गया है। ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में वर्ष 2024 में 81वें स्थान से 2025 में 39वें स्थान पर पहुँचना और वैश्विक फिनटेक अपनाने में विश्व में प्रथम स्थान प्राप्त करना इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि भारत अब केवल अतीत के सपनों का पीछा नहीं कर रहा, बल्कि नए वैश्विक मानक स्थापित कर रहा है।

केवल पाँच वर्षों में, राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने देश की शिक्षा व्यवस्था में नई दृष्टि, नयी ऊर्जा और नया आत्मविश्वास भर दिया है। संरचनात्मक सुधार लागू हो चुके हैं, नए पाठ्यपुस्तक और डिजिटल प्लेटफॉर्म तैयार हैं, और नामांकन ही नहीं, अधिगम परिणामों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई है। उच्च शिक्षा में नामांकन 2014-15 में 3.4 करोड़ से बढ़कर 2022-23 में 4.46 करोड़ हो गया है। यह वृद्धि केवल संख्या नहीं, बल्कि अवसरों के विस्तार का प्रतीक भी है। फिर भी, आगे की राह आसान नहीं होगी। सकल नामांकन अनुपात (ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो) के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संसाधनों का विस्तार, प्रशिक्षित मानव पूंजी का विकास और ठोस कार्ययोजना आवश्यक होगी। डिजिटल खाई को पाटना, ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढाँचे को सुदृढ़ करना और शिक्षक-छात्र अनुपात में सुधार आगामी वर्षों में सर्वाेच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में कक्षा 9-10 में दो भारतीय भाषाएँ और एक विदेशी भाषा, तथा कक्षा 11-12 में एक भारतीय और एक विदेशी भाषा पढ़ाने का प्रावधान है। दुर्भाग्यवश, यह प्रावधान अब तक व्यवहार में लागू नहीं हुआ है। समाज और सरकार  दोनों को यह स्मरण रखना चाहिए कि भाषा केवल संचार, संप्रेषण और ज्ञान की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं है, बल्कि यह मूल्यों, संस्कृति और सभ्यता की जीवंत धरोहर है।

समग्र रूप से देखा जाए तो यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 केवल एक सरकारी योजना या दृष्टिपत्र नहीं है, बल्कि यह भारत को ज्ञान-आधारित, आत्मनिर्भर वैश्विक नेतृत्व की दिशा में मार्गदर्शित करने वाला एक व्यापक रोडमैप है। इसकी उपलब्धियाँ आत्मविश्वास जगाती हैं, परंतु इसके अंतिम लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए आने वाला दशक निर्णायक होगा। यदि इस नीति के प्रावधानों को पूर्ण निष्ठा, दृढ़ संकल्प, दूरदृष्टि और निरंतरता के साथ लागू किया गया, तो यह निस्संदेह 21वीं सदी में शिक्षा के माध्यम से भारत को नई ऊँचाइयों पर ले जाने वाला ऐतिहासिक परिवर्तन सिद्ध हो सकता है।