सामाजिक समरसता का प्रतीक पर्व रक्षाबंधन
विभिन्न संस्कृतियों से परिपूर्ण एवं समृद्ध विरासत की पुण्य भूमि हमारे देश भारत वर्ष में प्राचीन काल से ही त्यौहार एवं पर्व अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हुए समाज में विशेष उत्साह का संचार करते रहे हैं। ‘सर्वेः भवन्तुः सुखिनः’ का उद्घोष करने वाली त्योहारों की परंपरा हमारे राष्ट्र को गौरवान्वित करती है। यह हमारे त्योहार मात्र परंपरा ही नहीं है अपितु सामाजिक समरसता, संस्कृति और सभ्यता की खोज तथा हमें अपने अतीत से जुड़े रहने का एहसास भी कराते हैं। रक्षाबंधन एक ऐसा ही पर्व है जो श्रावण शुक्ल मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। रक्षाबंधन के त्योहार में राष्ट्र की सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति एवं अतीत से जुड़े रहने का सुखद अहसास है। आत्मीयता एवं रिश्तों की मजबूती से परिपूर्ण यह पर्व भाई-बहन के प्यार एवं स्नेह के साथ-साथ अधिकार एवं कर्तव्यों का भी बोध कराता है तथा साथ ही यह पर्व भारतीय धर्म संस्कृति एवं परंपरा का प्रतीक भी है। इस पर्व पर भाई अपनी बहन से अपनी कलाई पर रक्षा सूत्र का धागा बंधवा कर, उसको उपहार देकर उसकी रक्षा एवं सुरक्षा का वचन देते हैं। रक्षाबंधन को कुछ स्थानों पर राखी का पर्व भी कहा जाता है। भाई बहन के निर्मल स्नेह को अखंड रखने और प्रेरक बल प्रदान करने वाला यह पर्व काल क्रम में हुए अनेक परिवर्तनों के अनुरूप निरंतर परिवर्तनशील रहा है, परन्तु यह कब प्रारंभ हुआ इसके संबंध में कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। यह वैदिक काल से ही प्रचलन में है, सर्वप्रथम इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। जब असुरों से पराजित होकर सभी देवता अपनी रक्षा के निमित्त देवराज इंद्र के नेतृत्व में गुरु बृहस्पति के पास पहुंचे और देवराज इंद्र ने दुखी होकर बृहस्पति से कहा कि ‘देवगुरु अच्छा होगा कि अब मैं अपना जीवन ही समाप्त कर लूं।’ गुरु बृहस्पति के निर्देश पर इंद्राणी ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इंद्र सहित सभी देवताओं की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा, अंततः इंद्र ने युद्ध में विजय प्राप्त की। पद्मपुराण, स्कंधपुराण और श्रीमद् भागवत में भी वामन अवतार कथा में रक्षाबंधन के प्रसंग का उल्लेख है। राजा बलि ने 100 यज्ञ पूर्ण करने के बाद स्वर्ग पर अपना आधिपत्य करने की चेष्टा की थी जिसको भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर विफल कर दिया था, वर्णन है कि उन्होंने ब्राह्मण वेश में राजा बलि से तीन पग भूमि दान में लेकर आकाश, पाताल और पृथ्वी को तीन पग में नाप लिया था और राजा बलि को रसातल में भेज दिया था परन्तु राजा बलि ने अपनी भक्ति से भगवान विष्णु को हमेशा अपने पास रहने का वचन ले लिया। विष्णु जी के घर पर ने लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी के बताएं उपाय के अनुसार लक्ष्मी जी ने राजा बलि को भाई बना कर श्रावण माध की पूर्णिमा के दिन रक्षा सूत्र बांधा और अपने पति को उपहार स्वरूप वापस ले आयीं, तभी से रक्षा सूत्र बांधते समय ‘येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चलस।’ श्लोक का उच्चारण करते है, जिसका अर्थ है कि जिस रक्षा सूत्र से दानवों के महा पराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बंध गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गए थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं, हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता के सातवें अध्याय के सातवें श्लोक में कहा है कि ‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।’ अर्थात् सूत्र अथवा धागा अविच्छिन्नता का प्रतीक है क्योंकि सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनाता है। माला के सूत्र की तरह रक्षा सूत्र भी लोगों को जोड़ता है, गीता में कहा गया है कि जब संसार में नैतिक मूल्यों में कमी आने लगती है तब ज्योतिर्लिंगम भगवान शिव, प्रजापति ब्रह्मा द्वारा धरती पर पवित्र धागे भेजते हैं जिन्हें मंगल कामना करते हुए भाइयों को बांधती हैं और भगवान शिव उन्हें नकारात्मक विचारों से दूर रखते हुए दुख और पीड़ा से मुक्ति दिलाते हैं। रक्षाबंधन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एक सूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है। विवाह के बाद बहने पराये घर चली जाती हैं और इस रक्षाबंधन के बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं अपितु दूरदराज के रिश्तो के भाइयों तक को उनके घर जाकर रक्षासूत्र बांधती हैं और इस प्रकार से अपने संबंधों का नवीनीकरण करती रहती हैं। इससे दो परिवारों एवं दो कुलों का परस्पर मिलन होता है। प्राचीन काल में युद्ध भूमि में युद्ध करने वाले वीरों की माता, पत्नी, बहन या अन्य कोई रक्षा सूत्र बांधकर व्यक्ति के शुभ के लिए मंगल कामना करती थी। यदि हम देखें तो इंद्र को इंद्राणी ने, अभिमन्यु को कुंती ने, राजा बलि को लक्ष्मी ने रक्षा सूत्र बांधा था। मध्य युग में जब विदेशी आक्रमणों से भारत भूमि के निवासियों को जीवन का भय हो गया, विशेषकर स्त्रियों के शील की रक्षा का प्रश्न खड़ा हुआ तब रक्षाबंधन में अपना अलग ही रूप धारण कर इनकी रक्षा की। इस काल में रक्षा सूत्र बांधने वाली बहनों की रक्षा के लिए आहुति देने वाले अनगिनत वीरों की बलिदान गाथाओं से इतिहास भरा पड़ा है।
रक्षाबंधन का पर्व हमेशा से ही सामाजिक समरसता एवं सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा देने वाला रहा है तथा देश काल की परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप को इसमें ढालता रहा है। इस पर्व का महत्व सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों में और भी अधिक है, वर्तमान में भी रक्षाबंधन के दिन भारत के प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति सहित सभी उच्च पदस्थ लोग रक्षा सूत्र बांधकर व बंधवाकर समाज एवं देश की रक्षा करने का वचन लेते हैं एवं देते हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी जन-जागरण करते समय रक्षाबंधन के पर्व का सहारा लिया गया था। 1905 में लॉर्ड कर्जन द्वारा बंग-भंग के परिणामस्वरूप वन्देमातरम् आंदोलन की गति में तीव्रता आई थी। लॉर्ड कर्जन का विरोध करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर लोगों के साथ यह कहते सड़कों पर उतरे थे- ‘सप्त कोटि लोकेर करुण क्रन्दन, सुनेना सुनिल कर्जन दुर्जनय ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल, आमि स्वजने राखी बंधन।’ प्राचीन काल में भी पुरातन भारतीय परंपरा के अनुसार जो समाज का पथ प्रदर्शक गुरु अर्थात् शिक्षक वर्ग होता था वह रक्षा सूत्र के सहारे देश की ज्ञान परंपरा की रक्षा का संकल्प शेष समाज से कराता था। सांस्कृतिक और धार्मिक पुरोहित वर्ग भी रक्षा सूत्र के माध्यम से समाज से रक्षा का संकल्प कराता था। प्रायः हम देखते हैं कि किसी भी अनुष्ठान के पश्चात रक्षा सूत्र के माध्यम से उपस्थित सभी व्यक्तियों को रक्षा का संकल्प कराया जाता है, इस सब का अभिप्राय यही है कि शक्ति संपन्न सामर्थ्यवान वर्ग अपनी क्षमता के अनुसार समाज के श्रेष्ठ मूल्यों का एवं समाज की रक्षा का संकल्प लेता है। इस प्रकार इस पर्व पर जो लोग सक्षम है वह अन्य को विश्वास दिलाते हैं कि वे निर्भर हैं और किसी भी संकट में उनके साथ खड़े रहेंगे।
सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य भी रक्षाबंधन पर्व को बड़े उत्साह एवं धूमधाम से मनाते हैं, यह वर्ष भर में मनाए जाने वाले 6 महत्वपूर्ण उत्सवों (गुरु पूजन, शस्त्र पूजन के रूप में दशहरा, दीपावली, रक्षाबंधन, वर्ष प्रतिपदा एवं मकर संक्रान्ति) में से एक महत्वपूर्ण पर्व होता है। जाति, धर्म, भाषा, धन-संपत्ति, शिक्षा या सामाजिक ऊंच-नीच का भेद इनके बीच अर्थहीन होता है रक्षाबंधन का सूत्र इन सारी विभेदकारी विविधताओं के ऊपर एक समानता वाली सृष्टि रखता है, बहुत सी भिन्नताओं के होते हुए भी समरसता का भाव इनके बीच अटूट होता है। इस पर्व के माध्यम से एक रक्षा सूत्र के द्वारा सभी स्वयंसेवक आत्मीय भाव से बंधकर परंपरागत कुरीतियों को दूर कर, एक दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण भाव से परस्पर बंध जाते हैं। रक्षाबंधन पर्व पर स्वयंसेवक परम पवित्र भगवा ध्वज को रक्षा सूत्र बांधकर उस संकल्प का स्मरण करते हैं जिसमें कहा गया है कि ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ अर्थात् हम सब मिलकर धर्म की रक्षा करें, समाज में मूल्यों और अपनी श्रेष्ठ परंपराओं का रक्षण करें। धर्म कोई बाहरी वस्तु नहीं है यह हम सब के हृदय में छिपी लोक मंगलकारी भावना एवं व्यवहार का नाम है। ध्वज को रक्षा सूत्र बांधने का अर्थ भी यही है कि हम सब समाज के लिए हितकर परंपरा का अनुसरण करेंगे। रक्षाबंधन पर्व पर स्वयंसेवक समाज के बीच में वंचित एवं उपेक्षित बस्तियों में जाकर उनके बीच बैठकर, उन्हें भी रक्षा सूत्र बांधते एवं बंधवाते हैं और यह संकल्प दोहराते हैं जिसमें भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि ‘समानम सर्वभूतेषु।’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा रक्षाबंधन के त्यौहार को सामाजिक समरसता को मजबूत करने एवं सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने के उद्देश्य से मनाया जाता है।
रक्षाबंधन सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के साथ-साथ नारी अस्मिता एवं उसकी रक्षा का पर्व भी है। इस दिन महिलाएं सेना एवं सुरक्षा बलों के जवानों को भी राखी बांधकर उनसे देश एवं स्वयं की रक्षा का वचन लेती है। इस दिन हिंदू समाज के सभी लोग बिना भेदभाव के एक दूसरे की कलाई में रक्षा सूत्र बांधकर सामाजिक समरसता का भाव जागृत करते हुए समाज में व्याप्त कुरीतियों, रंगभेद, जातिवाद व भेदभाव दूर करने का संकल्प लेते हैं। रक्षाबंधन पर्व हमारे सामाजिक परिवेश एवं मानवीय रिश्तो का सबल अंग है, इसमें हमारे मानवीय जीवन मूल्य छिपे हैं जो कि राष्ट्र और समाज के कल्याण में सहायक है। यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि हम सब एक परम पिता की संतान हैं और हम सभी को एक दूसरे के हित में विचार करते हुए राष्ट्र एवं समाज के प्रति समर्पण भाव से एकीकृत रूप में कार्य करना चाहिए, रक्षा सूत्र हमें शब्द, विचार और कर्म में शुद्धता हेतु बोध कराता है। रक्षाबंधन पर हमें संकल्प लेना चाहिए कि ‘हम सब भारत माता की संतान हैं, हम सब एक हैं और इस विशाल समाज के अंग हैं, हमें भेदभाव और छुआछूत जैसी कुरीतियों को समूल नष्ट करना है।’ हमें अपने जीवन में उन भगवान श्री राम के आदर्शों को समाहित करना चाहिए जिन्होंने वन में निषादराज का आतिथ्य तो स्वीकार किया ही था साथ ही भीलनी माता शबरी के जूठे बेर भी बड़े चाव से आत्मीयता पूर्वक गृहण किये थे।
भारतीय परंपरा एवं जीवनशैली में विश्वास ही मूल बंधन है और इन्ही बन्धनों के परिपेक्ष्य में रक्षाबंधन पर्व भाषायी एवं क्षेत्रीय सीमाओं को लांघकर परस्पर स्नेह के बंधनों को बांधने वाला त्योहार है, यह मानव से मानव एवं मानव से प्रकृति के संबंधों को उच्चता प्रदान करने वाला तथा राष्ट्रीय अस्मिता को पहचान देने वाला, सामाजिक समरसता का प्रतीक पर्व है।